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मेरे पिता: पापा एक अथक अध्यापक

  “मैं मम्मी-पापा, दोनों के साथ लंबे समय रही मगर मेरे ऊपर छाप पड़ी पापा की” ममता...
मेरे पिता: पापा एक अथक अध्यापक

 

“मैं मम्मी-पापा, दोनों के साथ लंबे समय रही मगर मेरे ऊपर छाप पड़ी पापा की”

ममता कालिया

पुत्री : विद्याभूषण अग्रवाल

पिता को मैं पापा कहती थी। यह ‘था’ शब्द मुझे चाकू की तरह चीरता है। उनका नाम श्री विद्याभूषण अग्रवाल था। उनके छोटे भाई थे भारतभूषण अग्रवाल, विख्यात कवि। पापा के नाम के प्रथमाक्षर थे, वी.बी. अग्रवाल और भारत चाचा के बी.बी. अग्रवाल। अगर कभी कोई पापा के नाम का उच्चारण वी.बी. की जगह बी.बी. कर देता, तो उसकी शामत आ जाती। पापा उसे अपने सामने खड़ा कर डपटते, “तुम्हें किसी ने उच्चारण नहीं सिखाया स्कूल में। मेरा नाम वी.बी. अग्रवाल है। वी बोलो। अपना होठ दांतों में दबाकर कहो वी। वी फॉर विक्ट्री।’’

मैं मम्मी-पापा, दोनों के साथ लंबे समय रही मगर मेरे ऊपर छाप पड़ी पापा की। जो समाचार वाचक पापा को पसंद, वह मुझे। जो पुस्तक पापा पढ़ेंगे, वह मैं जरूर पढ़ूंगी, समझ आए चाहे नहीं। जिस गीत पर पापा फिदा, उसी पर उनकी बेटी कुर्बान। पापा का कंठ बहुत अच्छा था। वह सस्वर कविता-वाचन का युग था। पापा साकेत की अमर पंक्तियां गुनगुनाते, ‘क्या कर सकती थी मरी मन्थरा दासी, मेरा ही मन रहा न निज विश्वासी। यह सच है तो अब लौट चलो घर भइया, कह रही है तुमसे एक अभागन मैया।’ अथवा, ‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।’ और मैं पूरा साकेत पढ़ डालती।

परिवार के साथ

पापा अपनी सरकारी नौकरी में बहुत रस लेते थे। आकाशवाणी का काम भी बहुरंगी था। बड़े-बड़े कलाकार, रचनाकार आकाशवाणी भवन में आते। तब बोलने वाला भी चार रिहर्सल घर से कर के आता और प्रक्षेपण, प्रसारण करने वाला भी चाकचौबंद रहता। हर सफल कार्यक्रम के बाद उच्च अधिकारी या मंत्रालय से तारीफ का टेलिफोन आता। पापा पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ इस दैनिक अभियान का नेतृत्व करते। उनकी रचनात्मक जिजीविषा संतुष्ट होती। 

मेरे लिए पापा एक अथक अध्यापक थे। ऐसी सख्ती कोटा के कोचिंग केंद्रों में भी न होती होगी जैसी मेरे साथ होती थी। आकाशवाणी से आने से पहले पापा ने कई कॉलेजों में पढ़ाया था। उनका शिक्षक अभी जागृत था। हमारा विषय भी एक था, अंग्रेजी साहित्य। पहले वे अपना ज्ञान उंड़ेलते, फिर लाइब्रेरियों से पुस्तकें लाकर ढेर लगाते और अंत में मेरे लिखे नोट्स जांचते। ऐसा लगता घर में दो लोगों को एम.ए. की परीक्षा देनी है। 

सीमित आमदनी में असीमित आह्लाद अर्जित करना उन्हें आता था। उन्हें महात्मा गांधी सर्वाधिक प्रिय इसलिए भी लगते क्योंकि वे मितव्ययिता को महत्व देते थे। गांधीजी की तरह ही पापा पेंसिल के टोटे के पीछे कागज लपेट कर उसे लंबी कर काम में लाते। हमें कहीं चोट लगती, पापा कहते पनचोरा बांध लो- पानी में भीगी पट्टी। कभी मेरे पेट में दर्द होता तो वे सी.जी.एच.एस. तक पैदल ले जाते कि हरकत से पेट का शूल शांत हो जाएगा।

जामा मस्जिद पर सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया की सीढ़ियों पर ठंडे दही बड़े बिकते थे। पापा कहते, “हम नेहरूजी से ज्यादा खुशकिस्मत हैं।”

“क्यों?” मैं हैरान होकर पूछती।

“क्योंकि नेहरूजी सेन्ट्रल बैंक की सीढ़ियों पर बैठ कर दही-बड़े नहीं खा सकते।”

पापा के अंदर एक रचनाकार भी बैठा रहता। इसीलिए उन्हें जैनेन्द्र कुमार, भारत चाचाजी, विष्णु प्रभाकर और प्रभाकर माचवे का साथ अच्छा लगता। मेरी बहन ने अपनी मर्जी से सन 1959 में शादी कर ली थी। यह बात पापा को नागवार गुजरी। उनकी उम्मीदें अब मुझ पर टिकी थीं। मैं उस दिशा में बढ़ रही थी कि यकायक 1965 में मुझे रवीन्द्र कालिया मिले और मेरे सारे कवच कुंडल गिर गए। कहां पापा रवि की कहानियों के प्रशंसक थे, कहां वे उनके आलोचक बन गए। वे मुंह बना कर कहते, “मैंने कभी नहीं सोचा था तू इतनी साधारण जिंदगी जियेगी।” मेरा दिमाग पलट चुका था। भूल गए मुझे पापा के सपने। मैं अपने सपने देखने लगी।

पापा-मम्मी स्वयं आदर्श दंपती थे। हर वक्त साथ रहते। कॉलोनी में उन्हें हंस का जोड़ा कहा जाता। मम्मी बीमार पड़तीं तो पापा उनकी जी-जान से सेवा करते। मैं भी इलाहाबाद से भाग-भाग कर गाजियाबाद आती। सन 1991 में मम्मी के दिवंगत होने के बाद पापा ऐसे हो गए जैसे उनका राजपाट चला गया हो। सात महीने बाद ही उन्हें दिल का गंभीर दौरा पड़ा और अस्पताल में 21 जनवरी को उनकी सांसें थम गईं। पापा ने कभी मुझे टूटने नहीं दिया। जब कभी मैं परेशान होती, उनसे शिकायत करती, वे कहते, “क्या मैं मानूं मैंने एक पलायनवादी चुप चींटी को जन्म दिया है! दायित्वों के दावानल में खड़ी हुई हो क्यों रोती हो।”

और मैं आंसू पोंछ, सिर उठाकर वापस चल देती जीवन के महासमर में। पापा आज भी एक रोशनी की तरह याद आते हैं।

(व्यास पुरस्कार प्राप्त ख्यात लेखिका)

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