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रतन थियाम (1948–2025): भारतीय रंगमंच का अंतिम ऋषि और उत्तर-पूर्व की सांस्कृतिक आत्मा का संरक्षक

एक परदा गिरता है 23 जुलाई 2025 को भारतीय रंगमंच ने अपनी सबसे मौन और दीप्त उपस्थितियों में से एक को खो दिया।...
रतन थियाम (1948–2025): भारतीय रंगमंच का अंतिम ऋषि और उत्तर-पूर्व की सांस्कृतिक आत्मा का संरक्षक

एक परदा गिरता है

23 जुलाई 2025 को भारतीय रंगमंच ने अपनी सबसे मौन और दीप्त उपस्थितियों में से एक को खो दिया। रतन थियाम, नाटककार, निर्देशक, कवि, चित्रकार और मंचीय दर्शन के पुरोधा, अब हमारे बीच नहीं हैं। यह केवल एक सर्जक की मृत्यु नहीं है । यह एक युग का अवसान है। उनका जाना एक ऐसे सौंदर्यशास्त्र और नैतिकता के विलुप्त हो जाने जैसा है, जो मंच को साधना स्थल मानता था।

सुपरिचित लेखक वि रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल कहते हैं ‘अगर आधुनिक भारतीय रंगमंच एक तपोभूमि है, तो रतन थियाम उसके ध्यानस्थ ऋषि थे।उनके नाटक देखने का अर्थ था, अपने भीतर उतरना, अपने मौन के गर्भ में प्रवेश करना।’

इंफाल से उठा वह प्रकाश जो सीमाओं से परे था

20 जनवरी 1948 को इंफाल, मणिपुर में जन्मे रतन थियाम ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 1974 में स्नातक किया। इब्राहीम अल्काज़ी उनके गुरु रहे। शिक्षा के बाद जब अधिकांश रंगकर्मी दिल्ली या मुंबई में बसने को लालायित रहते, थियाम इंफाल लौटे और 1976 में कोरस रेपर्टरी थिएटर की स्थापना की।

यह केवल एक संस्था नहीं था। वह एक सांस्कृतिक आश्रम था। जहाँ कलाकारों का निर्माण एकात्म साधना के रूप में होता। कलाकार वहाँ अभिनेता ही नहीं, संगीतज्ञ, दार्शनिक और चित्रकार भी बनते। वास्तव में शहरों से दूर यह स्थान आत्मचिंतन और सामूहिक अनुशासन की प्रयोगशाला था।

मंच: एक मौन तीर्थ

रतन थियाम का रंगमंच न संवाद प्रधान था, न दृश्यात्मक चमत्कारों से भरपूर। उनके नाटकों में मौन, गति, प्रकाश, मुखौटे और प्रतीक, सभी का गहन प्रयोग होता। उनकी रचना प्रक्रिया भारतीय नाट्यशास्त्र, मणिपुरी मैतेयी परंपरा और प्राचीन अनुष्ठानों से अनुप्राणित थी।

उनके मंच पर अभिनेता अभिनय नहीं करता था, वह ‘प्रकट’ होता था,एक आध्यात्मिक उपस्थिति की तरह। मंच प्रकाश से नहीं, ध्यान से प्रकाशित होता। प्रतीकात्मकता, शारीरिक अनुशासन और गहन मौन, उनके नाटकों को दृश्य कविता में बदल देते।

नाट्यकर्म नहीं, एक यज्ञ

उनका नाटक ‘चक्रव्यूह’ (1984), महाभारत पर आधारित था, पर उसकी प्रतिध्वनि समकालीन युद्धों और उनके नैतिक संकटों में सुनाई देती थी। यह नाटक एडिनबर्ग फेस्टिवल में Fringe First Award से सम्मानित हुआ और मणिपुर को अंतरराष्ट्रीय रंगमंच के मानचित्र पर लाकर रख दिया।

‘अंधा युग’, ‘उत्तर प्रियदर्शी’, ‘ऋतुसंहार’, ‘नाइन हिल्स वन वैली’ जैसे नाटकों में रतन थियाम ने मिथक, पर्यावरण, नैतिकता और समकालीन संघर्षों को एक साथ रचा। उनके मंचन में ऋतुएँ आत्मा की अवस्थाएँ बन जातीं, युद्ध आत्मा की अंधता का प्रतिरूप बन जाता।

उन्होंने यूरोपीय नाटकों यथा, एंटीगनी, बैकाए, मैकबेथ आदि को भी मणिपुरी संदर्भों में ढाला और इन्हें एक नई भाषिक व सांस्कृतिक देह दी।

कला और नैतिकता का अंतःसंबंध

रतन थियाम की राजनीति नारेबाजी में नहीं थी—वह उनके मौन में थी, उनके विरोध में थी, उनके लौटाए गए पद्मश्री में थी। मणिपुर में जब हिंसा फैली, उन्होंने संस्कृति से राजनीति को जवाब दिया। उन्होंने बार-बार धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व से शांति की पहल करने की अपील की।

उनके लिए संस्कृति केवल उत्सव नहीं, एक सामाजिक ज़िम्मेदारी थी। विविधता उनके लिए कोई अमूर्त अवधारणा नहीं, बल्कि एक जीवंत वास्तविकता थी, जिसकी रक्षा आवश्यक थी।

सम्मान और सादगी

रतन थियाम को मिले सम्मानों की सूची लंबी है, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1987), पद्मश्री (1989), संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप (2012), कालिदास सम्मान, META लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, भूपेन हजारिका पुरस्कार, भारत मुनि सम्मान, और असम विश्वविद्यालय से डी.लिट।

2013 से 2017 तक वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष रहे। उनके नेतृत्व में उत्तर-पूर्व की सांस्कृतिक विविधता को नई पहचान मिली। उन्होंने रंगमंच के विकेंद्रीकरण की वकालत की और मंच को भारतीय बहुलता का वास्तविक दर्पण बनाया।

जो प्रकाश शेष है

रतन थियाम घोषणाओं के लेखक नहीं थे। उन्होंने नाटकों में मौन लिखा, स्थिरता को गति बनाया, और प्रतीकों को भावनाओं से गूंथ दिया। उनका रंगमंच भावुक नहीं, भावविह्वल था। उनकी रचनाएँ किसी जलती मशाल की तरह अंधेरे में रास्ता दिखाती थीं, या जैसे बांस के झुरमुट में बहती कोई अदृश्य हवा।

उनके नाटकों की पुनरावृत्ति संभव नहीं, केवल उनकी आत्मा बची रहेगी, उन निर्देशकों में जो गहराई को प्राथमिकता देते हैं, उन छात्रों में जो अभ्यास को अभिनय से पहले सीखते हैं।

एक अंतिम प्रणाम

रतन थियाम का जाना एक सांस्कृतिक ऋषि का जाना है। वे उन विरले कलाकारों में थे, जिनके लिए रंगमंच आत्मा की साधना था, दृश्य की नहीं। आज जब मंच पर गति, शोर और कौशल की प्रधानता है, रतन थियाम उस एकांत की याद दिलाते हैं, जहाँ मौन भी संवाद होता है।

उनका जाना केवल एक परिवार, एक संस्था, या एक राज्य की क्षति नहीं है।यह एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक शून्यता है। पर उनके रचे मंच, उनके संकल्प और उनकी दृष्टि, हमारे भीतर अब भी जीवित है।

(अशुतोष कुमार ठाकुर, बेंगलुरु स्थित साहित्यालोचक और क्यूरेटर हैं। उनसे संपर्क किया जा सकता है: [email protected])

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