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यौन उत्पीड़नः बलात्कार की ‘सत्ता’

बलात्कार और यौन हिंसा के मामलों में दंड की दर हर दशक में लगातार घटती रही है, ऐसे अपराधों पर प्रतिक्रिया...
यौन उत्पीड़नः बलात्कार की ‘सत्ता’

बलात्कार और यौन हिंसा के मामलों में दंड की दर हर दशक में लगातार घटती रही है, ऐसे अपराधों पर प्रतिक्रिया और इंसाफ देने में राज्य लगातार नाकाम होता गया है

अठहत्तरवें स्‍वतंत्रता दिवस के ठीक अगले दिन कोलकाता की सड़क पर एक अभूतपूर्व दृश्‍य उभरा। एक सरकारी अस्‍पताल में एक महिला डॉक्‍टर के साथ हुए बलात्‍कार और उसकी हत्‍या के खिलाफ सैकड़ों की संख्‍या में लोग बैनर-पोस्‍टर लिए इंसाफ मांगते और मुट्ठियां लहराते नजर आए। सबसे आगे ज्‍यादातर औरतें थीं, कुछ पुरुष भी थे। पहली पंक्ति के बीचोबीच उनका नेतृत्‍व कर रही थीं नीले किनारी वाली परिचित उजली धोती पहने ममता बनर्जी, जो लोकतांत्रिक रूप से पश्चिम बंगाल की निर्वाचित मुख्‍यमंत्री हैं। जब खुद एक मुख्‍यमंत्री मय सत्ताधारी दल सड़क पर विरोध में उतर आए, तो स्‍वाभाविक प्रश्‍न बनता है कि इंसाफ किससे मांगा जा रहा है। नौ अगस्‍त को आर.जी. कर अस्‍पताल में हुए रेपकांड के खिलाफ सोलह अगस्‍त को हुई इस ‘सरकार विरोध रैली’ के बाद भी बहुत कुछ अभूतपूर्व घटा। जैसे, अगले ही दिन ममता बनर्जी के मुख्‍य प्रशासनिक सलाहकार अलापन बंदोपाध्‍याय ने प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर 17-सूत्रीय ‘उपचार’ सुझाए, जिसकी भाषा ‘होना चाहिए’ और ‘अनुरोध करते हैं’ जैसे पदों से भरी हुई थी। इसी के विस्‍तार के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‍लिखी ममता बनर्जी की उस चिट्ठी को देखा जा सकता है, जिसमें उन्‍होंने देश भर में बढ़ रहे बलात्‍कार और हत्‍या के मामलों का जिक्र किया है (लेकिन कोलकाता के ताजा प्रसंग का नहीं)। उन्‍होंने बलात्‍कार और हत्‍या के दोषियों को सजा देने के लिए केंद्रीय कानून बनाने और उनके मुकदमों की जल्‍दी सुनवाई के लिए फास्‍ट ट्रैक अदालतें बनाने की मांग की है। विडंबना यहीं नहीं रुकती। पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस के राष्‍ट्रीय महासचिव, ममता बनर्जी के भतीजे और लोकसभा सांसद अभिषेक बनर्जी ने 22 अगस्‍त को सोशल मीडिया पर लिखा कि ‘जब दस दिन से देश आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज की घटना पर विरोध कर रहा है, उस दौरान देश के कई हिस्‍सों में 900 बलात्‍कार के केस हो चुके हैं।’ यह 900 का आंकड़ा उन्‍होंने एनसीआरबी की रिपोर्ट से प्रतिदिन औसतन 90 बलात्‍कारों के आधार पर निकाला और कड़े कानून की मांग करते हुए लिखा, ‘वेक अप इंडिया’ (जागो भारत)।

डॉक्टरों के धरने पर तोड़फोड़

डॉक्टरों की धरने पर तोड़फोड़

ऊपर लिखी हुई घटनाओं को संपादक-कवि रघुवीर सहाय ने बरसों पहले ‘आने वाला खतरा’ नाम की अपनी कविता में कुछ इस तरह से समझाया था: एक दिन इसी तरह आएगा-रमेश / कि किसी की कोई राय न रह जाएगी-रमेश / क्रोध होगा पर विरोध न होगा / अर्जियों के सिवाय-रमेश / खतरा होगा खतरे की घंटी होगी / और उसे बादशाह बजाएगा-रमेश। जब बादशाह खुद देश को जगाने, कानून बनाने, इंसाफ मांगने और दंड देने की मांग करने लगे, तब रमेश यानी जुर्म का शिकार आम आदमी क्‍या करेगा? यह सवाल सामाजिक अपराधों के प्रति सरकारों और राज्‍य सत्ता के बदलते नजरिये और प्रतिक्रियाओं की पड़ताल की मांग करता है। 

इलाज के खोल में मर्ज

आर.जी. कर रेपकांड के बाद पश्चिम बंगाल, पूरे देश और यहां तक कि देश के बाहर भी तमाम लोग एक बैनर के तले यौन उत्‍पीड़न के लंबित मामलों में इंसाफ की मांग कर रहे हैं। इस अभियान का नाम है ‘रीक्‍लेम द नाइट।’ इस अभियान ने अपने इकलौते बयान में पश्चिम बंगाल सरकार के सुझाए 17 सूत्रीय ‘उपचार’ का कायदे से पोस्‍टमॉर्टम करते हुए बताया है कि यौन हिंसा को रोकने के लिए ऐसे कथित उपचार कैसे तालिबानी राज कायम करने की मंशा रखते हैं।

बयान कहता है, ‘‘यह अभियान की मांगों से पूरी तरह उलटी है। जिन महिला मरीजों को रात में महिला डॉक्‍टरों की जरूरत पड़ेगी, क्‍या उन्‍हें तत्‍काल उपचार देने से मना कर दिया जाएगा और नर्सों का क्‍या? आया, हाउसकीपिंग, ऑपरेशन थियेटर में काम करने वाली महिला स्‍टाफ का क्‍या? क्‍या इन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए? बिंदु 3 और 11 में वे महिला सुरक्षाकर्मी (जिन्‍हें रात में तैनात किया जाएगा) उनकी रात की पाली होगी? उनकी सुरक्षा का क्‍या?’’

महाराष्ट्र में न्याय की मांग

महाराष्ट्र में न्याय की मांग

सरकारी सुझावों में छुपी इस गुत्‍थी की ओर ध्‍यान दिलवाने के बाद बयान कहता है, ‘‘हम जानते हैं बिलकुल इसी तर्क से उत्तर प्रदेश में लड़कियों के लिए शाम के स्‍कूल बंद कर दिए गए, अफगानिस्तान में तालिबान के शासन में औरतों से शिक्षा का अधिकार छीन लिया गया। इसलिए... हम विभिन्‍न जगहों पर औरतों की उपस्थिति को नियंत्रित करने की पश्चिम बंगाल सरकार की कोशिश का विरोध करते हैं।’’

इसमें एक और सुझाव की ओर ध्‍यान खींचा गया है। यह ‘रात्रि साथी ऐप’ का सरकारी नुस्‍खा है। अभियान सवाल पूछता है कि जब डायल 100, महिला सुरक्षा हेल्‍पलाइन, महिला थाना, महिला आयोग, फास्‍ट ट्रैक अदालतें, सब कुछ निष्क्रिय पड़ा हो, तो इस अतिरिक्‍त टेक्‍नोलॉजी से कौन सा नया समाधान पैदा हो जाएगा?

पश्चिम बंगाल सरकार ने दबाव और जल्‍दबाजी में सबसे बड़ा मजाक इन 17 सुझावों के भीतर सीसीटीवी कमरे का नाम बदलकर किया है। सीसीटीवी कमरों को अब ‘सेफ रूम’ कहा जाएगा। आर.जी. कर में डॉक्‍टर के साथ 9 अगस्‍त की रात को हुआ बलात्‍कार इसी कथित ‘सेफ रूम’ में किया गया था।

बलात्कार के दर्ज मामले

कोलकाता की घटना के बाद महिला संगठनों के एक राष्‍ट्रीय समूह ‘ऑल इंडिया फेमिनिस्‍ट अलायंस’ ने विस्‍तृत बयान में 1973 के अरुणा शानबाग कांड को याद करके लिखा है कि पचास साल बाद भी स्‍वास्‍थ्‍य सेवा में कार्यरत औरतों की हालत सुधरी नहीं है। इसलिए, ‘‘हम इस केस को जघन्‍य अपराध पर राज्‍य की प्रतिक्रिया की नाकामी के रूप में देखते हैं।‘’  

राज्‍य की नाकामी

किसी भी राज्‍य की कामयाबी प्रत्‍यक्ष रूप से कानून के अनुपालन और दंड में देखी जा सकती है। इसलिए बलात्‍कार और यौन हिंसा के मामलों में दंड की दर राज्‍य की उसके प्रति प्रतिक्रिया और नजरिये का सीधा पता दे सकती है।

जब अरुणा शानबाग कांड हुआ था, उस वक्‍त देश में बलात्‍कार के मामलों में दंड की दर 44.3 प्रतिशत थी। आज यह गिरकर 27 से 28 प्रतिशत के बीच रह गई है और ऐसा बीते छह साल से लगातार है। दिलचस्‍प है कि बीते कुछ वर्षों में सबसे चर्चित रहा दिल्‍ली का निर्भया कांड जब हुआ, उस साल बलात्‍कार में दंड की दर सबसे कम 24.2 प्रतिशत थी। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि 1973 से लेकर अब तक यानी पचास साल के दौरान बलात्‍कार के मामलों में दंड की दर दशक दर दशक लगातार घटती रही है। यानी ऐसे अपराधों पर प्रतिक्रिया और इंसाफ देने में राज्‍य लगातार नाकाम होता गया है।

इसकी वजह क्‍या है? दंड की कम दर क्‍या केवल लंबे चलने वाले अदालती मुकदमों, सुस्‍त न्‍यायपालिका, लचर सुबूतों, रूढ़ दलीलों या बलात्‍कारियों को राजनैतिक संरक्षण के कारण पैदा होती है? दंडहीनता के विरुद्ध लिखी अपनी किताब चैलेंजिंग इमप्‍यूनिटी में वी. गीता कहती हैं कि यह महज कानूनी या राजनैतिक गोरखधंधे का मामला नहीं है। यह ‘‘राजकीय कर्मियों द्वारा साझा मानवता का हिस्‍सा बनने से ठोस इनकार’’ का नतीजा है क्‍योंकि ‘‘खुद को कानून और न्‍याय के दायरे से ऊपर रखकर राज्‍य अपने पहुंचाए कष्‍ट को कभी स्‍वीकार ही नहीं करता, न ही उसकी कोई जिम्‍मेदारी लेता है, बल्कि उलटे वह दंडमुक्ति का सत्ता-सुख लेता है।’’

उदाहरण के लिए, पुस्‍तक में डॉली किकोन के हवाले से बताया गया है कि नगालैंड में दशकों से जारी सैन्‍यकरण का परिणाम यह हुआ है कि बलात्‍कारों को अब ‘सामान्‍य’ माना जाने लगा है। यहां बलात्‍कार को लेकर समाज की समझदारी ऐसी बन गई है कि इसे एक ओर सैन्‍यबलों की क्रूरता और दूसरी ओर नगा लोगों के प्रतिरोध के बीच की बुनियादी विभाजक रेखा के रूप में देखा जाने लगा है। इसलिए, खासकर सशस्‍त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफ्सपा) के तहत दंडहीनता का अधिकार पाए सैनिकों के किए बलात्‍कारों को ही बलात्‍कार माना जाता है क्‍योंकि वहां इससे नगा अस्मिता को सीधे चुनौती मिल रही होती है। बाकी हर किस्‍म की यौन हिंसा या बलात्‍कारों को ‘नजरअंदाज’ कर दिया जाता है।

यह दंडमुक्ति बदले में समाज पर असर डालती है और अपराधों को अगंभीर बना देती है। इसके नतीजे नगालैंड में ही नहीं, समूचे पूर्वोत्तर से लेकर कश्‍मीर के कुनान-पोश्‍पोरा और शोपियां कांड तथा बस्‍तर में सुरक्षाबलों पर बलात्‍कार के आरोपों में दिखाई देते हैं, जिन पर संसद तक में बहसें हो चुकी हैं। जहां का समाज सैन्‍यकृत नहीं है, वहां दंडमुक्ति सामाजिक विशेषाधिकारों, जैसे जाति या धर्म या नस्‍ल से निकलती है और दंडहीनता की संस्‍कृ‍ति को फैलाती है।

‘रीक्‍लेम द नाइट’ जैसे अभियान इसलिए समाज के सैन्‍यकरण या पुलिसिया निगरानी जैसे उपायों को दवा की जगह मर्ज मानते हैं। ऐसे उपाय राज्‍य को सिलसिलेवार ढंग से नाकाम करते जाते हैं। नाकाम राज्‍य बदले में महिलाओं को नाकाम करता है। इसकी फेहरिस्‍त बहुत लंबी है, लेकिन कुछेक अहम उदाहरण इस ओर इशारा कर सकते हैं कि समय के साथ राज्‍य ने औरतों को नाकाम करने के कैसे-कैसे तरीके अपनाए हैं और पश्चिम बंगाल में जैसी प्रतिक्रिया ममता बनर्जी सरकार की देखने को मिली है, कहानी वहां तक कैसे पहुंची है।

बलात्‍कारियों का राजकीय संरक्षण

बीते आम चुनावों को याद करें। अभी सौ दिन भी नहीं हुए हैं, कर्नाटक के हासन लोकसभा क्षेत्र से राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के उम्मीदवार रहे प्रज्‍ज्‍वल रेवन्‍ना के चुनाव के दौरान ही अलग-अलग पेन ड्राइव में जमा 2,976 वीडियो के माध्‍यम से यह बात सामने आई थी कि जनता दल (एस) के पूर्व सांसद रेवन्ना ने बड़े पैमाने पर कथित तौर पर बलात्कार और यौन हमले किए थे। रेवन्ना ने न केवल इन हमलों को फिल्माया था, पीड़ितों की सुरक्षा और सम्मान की परवाह किए बगैर फुटेज का इस्तेमाल कथित रूप से ब्लैकमेल करने में भी किया था।

इन वीडियो की भयावह प्रकृति के बावजूद पुलिस चार दिनों तक हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। जब महीने भर से ज्‍यादा समय बीत गया और चुनाव अंतिम चरण के करीब पहुंच गया, तब महिला संगठनों ने चुप्‍पी तोड़ते हुए 30 मई को मतदान से ठीक पहले ‘हासन चलो’ का आह्वान किया। आज प्रज्‍ज्‍वल रेवन्‍ना का केस सार्वजनिक स्‍मृति में धुंधला हो चुका है। यह स्थिति अनायास पैदा नहीं हुई है। जम्मू-कश्मीर (2018) में कठुआ गैंगरेप के आरोपियों के समर्थन में सत्ताधारी दल के लोगों द्वारा रैली निकाले जाने से लेकर बलात्कार के दोषी धर्मगुरुओं के समर्थन में सार्वजनिक जुलूसों तक; हाथरस (2020) में उच्च जाति के पुरुषों की दंडमुक्ति से लेकर गुजरात (2022) में दोषी बलात्कारियों की रिहाई और स्‍वागत तक (जिसे बाद में उलट दिया गया) ऐसे मामलों की सूची लंबी है। ऐसे अपराधों की शिकायत करने वाले खुद को और परिजनों को बर्बर हमलों, ब्लैकमेल और खतरों से बचाने में लगे हुए हैं। यह स्थिति उन्‍नाव से लेकर हाथरस और सागर तक फैली हुई है।

महिमामंडनः बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई पर उनका स्वागत

म‌हिमामंडनः बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई पर उनका स्वागत

आम चुनाव के दौरान ही मध्‍य प्रदेश के सागर जिले के खुरई विधानसभा क्षेत्र से एक खबर आई थी। कहानी गांव बरोदिया नौनगीर की है। अंजना नाम की एक दलित लड़की की मौत इसी साल 26 मई को हुई थी। उसके कुछ घंटे पहले ही अंजना के चाचा राजेंद्र की मौत हुई थी। उन्‍हें बुरी तरह पीटा गया था-क्योंकि नौ महीने पहले अंजना के भाई नितिन को गांव के लंबरदार ठाकुरों ने पीट-पीट कर मार डाला था और राजेंद्र उस घटना के चश्मदीद गवाह थे। राजेंद्र की मौत पर लोग गुस्से में थे, लेकिन कुछ ही घंटों में अंजना की मौत की खबर आ गई।

इस घटना की जांच करने के लिए समाजवादी पार्टी की एक टीम गांव गई थी। उस टीम के सदस्‍य और पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम बताते हैं कि अब लड़की की मां को धमकियां दी जा रही हैं। मृत लड़की के एक भाई को जिलाबदर किया जा चुका है। दूसरे लड़के को लेकर पुलिस अधिकारी की धमकी मिल चुकी है। अंजना की मां का कहना है कि उसकी मौत के पीछे एक मंत्री का हाथ है।

अंजना की उम्र तब मात्र 15 वर्ष थी। एक नाबालिग के साथ छेड़छाड़ करने वाले आरोपियों पर कायदे से पॉक्सो के तहत केस दर्ज किया जाना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ, लेकिन शिकायत के तुरंत बाद परिवार के ऊपर दबंगों का दबाव पड़ना शुरू हो गया कि वह समझौता कर केस खत्म कर दे।

अगस्त 2019 की ऐसी ही एक घटना में एक नेता को सजा हुई, लेकिन बाद में फिर वह बरी भी हो गया। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद के ट्रस्ट द्वारा संचालित एक कॉलेज में कानून पढ़ाने वाली 23 साल की एक लड़की लापता हो गई। लड़की ने एक वीडियो पोस्ट करके चिन्मयानंद के ऊपर साल भर तक यौन शोषण करने का आरोप लगाया था। स्वामी चिन्मयानंद को गिरफ्तार तो कर लिया गया, लेकिन स्वामी  ने उलटे पीड़िता और उसके दोस्तों पर ही पांच करोड़ रुपये की फिरौती का आरोप लगाकर एफआइआर दर्ज करवा दी। इसके चलते पीड़िता को दो महीने जेल में बिताने पड़े। चिन्मयानंद को मार्च 2021 में बरी कर दिया गया और मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

अपराधियों के ऐसे बचाव के पीछे बहुसंख्‍यकवादी सत्ता, पितृसत्ता और राज्यसत्ता के बीच साठगांठ सामने आती है। गुजरात में 2002 में बिलकिस बानो के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार इसका ज्‍वलन्त उदाहरण है। बलात्‍कार और परिवार के सदस्यों की हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा पाए 11 मुजरिमों को 15 अगस्त, 2022 को जेल से रिहा कर दिया गया। बाहर आने पर उनका मिठाइयों और मालाओं से स्वागत किया गया। भाजपा के विधायक सी.के. राउलजी ने उन्हें ‘ब्राह्मण’ और ‘संस्कारी’ बताया। राउलजी दो भाजपा नेताओं वाले गुजरात सरकार के उस पैनल का हिस्सा थे जिसने सर्वसम्मति से बलात्कारियों को रिहा करने का फैसला किया था।

पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और तहलका पत्रिका के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल को ऐसे ही मामलों में बरी किया जाना संस्‍थागत संरक्षण की मिसाल है। दिसंबर 2023 में उत्तर प्रदेश में एक महिला सिविल जज ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर आत्मदाह की इच्छा जाहिर की थी क्‍योंकि एक जिला जज के खिलाफ वह महज एफआइआर दर्ज करवाने के लिए महीनों से संघर्ष कर रही थी। यानी, बलात्‍कारियों और यौन हिंसा के आरोपियों की दंडमुक्ति का दायरा आम कामकाजी लड़कियों से लेकर न्‍यायपालिका में पदस्‍थ महिलाओं तक फैला हुआ है। बलात्‍कार में महिला की जाति, वर्ग, रिहाइश, रसूख मायने नहीं रखते।

न्‍याय के धोखे

बलात्‍कार के मामलों में दंड की कम दर के बावजूद इंसाफ होते हैं, लेकिन इनके पीछे की कहानी भी राज्‍य के हक में ही जाती है। इसका एक चिंताजनक पहलू यह है कि बलात्‍कारी के लिए मौत की सजा मांगने वाले लोग अकसर मुठभेड़ के नाम से की जानी वाली न्‍यायेतर हत्याओं का जश्‍न मनाते दिखते हैं। नवंबर 2019 में तेलंगाना सरकार ने हैदराबाद में 26 वर्षीय एक महिला पशु चिकित्सक के यौन उत्पीड़न के चार आरोपियों को गिरफ्तार किया था। अगले ही दिन चारों आरोपियों को पुलिस ने मौका-ए-वारदात पर अपराध का दृश्‍य दोबारा गढ़ने के दौरान ढेर कर दिया।

उसके बाद कुछ लोगों ने पुलिसकर्मियों पर फूल बरसाकर उनके जयकारे लगाए। इस कथित मुठभेड़ की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित न्यायमूर्ति वी.एस. सिरपुरकर आयोग ने बाद में निष्कर्ष दिया कि पुलिस ने जान-बूझ कर आरोपियों पर गोली चलाई थी ‘‘ताकि उनकी मौत हो जाए।’’

महिला समूहों का एक मंच विमेन अगेंस्‍ट सेक्‍सुअल वायलेंस ऐंड स्‍टेट रिप्रेशन (डब्‍ल्‍यूएसएस) कहता है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में प्रतिक्रियास्वरूप की जाने वाली मुठभेड़ का महिमामंडन राज्य के अहंकारी होने की ओर से ध्‍यान भटका देता है। इस संदर्भ में डब्‍ल्‍यूएसएस कहता है, ‘‘एक‍ बस ड्राइवर की फांसी और हत्या की मांग करना, तो आसान है, पर उन पिताओं, चाचाओं, भाइयों, धर्मगुरुओं, सुरक्षाबलों और सेना के जवानों का क्या जो बिना किसी सजा के डर के खुलेआम बलात्कार जारी रखे हुए हैं क्‍योंकि उन्‍हें कानूनी और सामाजिक संरक्षण प्राप्‍त है। सामूहिक विवेक यहीं तय कर देता है कि किसे दंड दिया जाना चाहिए और किसे नहीं। यानी झुग्गीवासियों और मजदूरों को, लेकिन धर्मगुरुओं, शिक्षाविदों, न्यायविदों या बाहुबलियों को नहीं।’’

प्रसिद्ध नारीवादी और समाजशास्‍त्री रंजना पाढ़ी लिखती हैं, ‘‘यही साम‍ूहिक विवेक एक बलात्कारी को इस देश में संत बना देता है और वह बड़ी आसानी से अपने जुर्म से इनकार कर पाता है। आसाराम बापू पर 2013 में बलात्‍कार का आरोप लगा था और उसे दोषी 2018 में ठहराया गया, लेकिन इस बीच उसके अनुयायियों ने दिल्ली के जंतर-मंतर आदि जगहों पर धरने आयोजित किए। ऐसे गुरु लंबे समय के लिए पैरोल पर रिहा कर दिए जाते हैं और तमाम नेता, मंत्री और नौकरशाह खुलेआम उनसे मिलने पहुंचते हैं। ’’ हाल में पैरोल पर रिहा हुए राम रहीम का मामला भी ऐसा ही है।

सजा की दर

रंजना कहती हैं, ‘‘मौजूदा सामाजिक और सांस्‍कृतिक वातावरण में इसी सामूहिक विवेक को नकली तौर से गढ़ा जा रहा है।’’ उनके मुताबिक यह धोखा हलके बयानों से भी दिया जाता है। जैसे, नेताओं के बयानों में बलात्‍कार के कारणों में फटी हुई जींस पहनने से लेकर चाउमीन खाने तक को बताया गया है। उत्तर प्रदेश महिला आयोग की एक सदस्य ने बढ़ते यौन हमलों का मुख्य कारण मोबाइल फोन को माना। मुलायम सिंह यादव ने अप्रैल 2014 में यौन उत्पीड़न के मामलों में मृत्युदंड का विरोध यह कहते हुए किया था कि लड़कों से गलतियां हो जाती हैं लेकिन उन्हें फांसी देने की जरूरत नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने निर्भया कांड के बाद कहा था कि इस तरह के अपराध केवल ‘अर्बन इंडिया’ में होते हैं, ‘भारत’ में नहीं क्‍योंकि शहरों के ऊपर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है। अक्सर गांवों-कस्‍बों में होने वाली ऐसी घटनाएं तभी खबर बन पाती हैं जब पीड़ित को हवाई मार्ग से दिल्‍ली के किसी अस्पताल तक पहुंचाया जाता है, जैसा हाथरस कांड में हुआ। अब अस्‍पताल में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, बदलापुर के स्‍कूल में छोटी बच्‍ची के साथ बलात्‍कार हो रहा है, तो नोएडा के मुर्दाघर में यौन हिंसा का नंगा नाच चल रहा है।

सत्ता का प्‍लेग

कोलकाता का आर.जी. कर अस्‍पताल चिकित्‍सा क्षेत्र में बांग्‍ला पुनर्जागरण की एक महान शख्सियत डॉ. राधा गोबिंद कर के नाम पर है। डॉ. कर ने इस अस्‍पताल की वैचारिक नींव सिस्‍टर निवेदिता के साथ 1899 के प्‍लेग में काम करते हुए रखी थी, जब वे कोलकाता में सरकारी स्‍वास्‍थ्‍य अधिकारी हुआ करते थे। इंग्‍लैंड से डॉक्‍टरी की पढ़ाई करने वाले डॉ. कर ने बंगाल के गांवों को अपने काम के लिए चुना। अस्‍पताल खोलने के लिए वे बड़े लोगों की शादियों-समारोहों में चंदा जुटाने के लिए जाने लगे।

चंदे से पचीस हजार रुपये और अपनी सारी संपत्ति बेचकर जुटाई कुल रकम से उन्‍होंने बेलगछिया में 12 बीघा जमीन खरीदी ताकि गरीबों के लिए अस्‍पताल बन सके। कुल 70,000 रुपये की लागत से 30 बेड का अस्‍पताल बनाया गया। इसका पहला नाम था प्रिंस अलबर्ट विक्‍टर अस्‍पताल। बाद में यह बेलगछिया मेडिकल कॉलेज से होते हुए कारमाइकेल मेडिकल कॉलेज बना और आजादी के बाद इसका नाम आर.जी. कर पड़ा। 1918 में बीमारी से डॉ. कर की मौत हुई, तब उनके नाम पर कोई संपत्ति नहीं थी। अपना घर तक उन्‍होंने मेडिकल कॉलेज को दे दिया था।

ऐसे संत आदमी का बनवाया हुआ परिसर आज अनैतिकता, हिंसा और भ्रष्‍टाचार के अंधेरे में डूबा हुआ है, तो इसके कुछ ऐसे कारण हैं जिन्‍हें केवल स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र की गड़बड़ी या पुरुष सत्ता के कारणों तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह दरअसल राज्‍यसत्ता का मसला है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की रिपोर्ट बताती है कि देश में जितने भी सांसद या विधायक हैं, उनमें से 151 के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ जुर्म के केस दर्ज हैं। इनमें सोलह सांसद हैं और 135 विधायक हैं। सूची के शीर्ष पर 54 के साथ भाजपा है, उसके बाद कांग्रेस (23) और तेलुगुदेसम पार्टी (17) है। लेकिन कहानी यहां खत्‍म नहीं, यहीं से शुरू होती है।    

इस सूची में राज्‍यों के हिसाब से देखें, तो औरतों पर अपराध के सबसे ज्‍यादा आरोपी जनप्रतिनिधि पश्चिम बंगाल से आते हैं। यह ऐसा राज्‍य है जिसके सांसदों और विधायकों ने औरतों के खिलाफ अपराध के सबसे ज्‍यादा 25 मामले अपने हलफनामे में दिए हैं। जाहिर है, एक बलात्‍कार के केस में कोई मुख्‍यमंत्री यूं ही सड़क पर नहीं उतरता। डॉ. कर तो समाज का प्‍लेग साफ करने के लिए सड़क पर उतरे थे। सवाल है कि उन्‍हीं सड़कों पर 125 साल बाद ममता बनर्जी कौन से प्‍लेग के डर से 16 अगस्‍त को उतरीं?

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