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प्रवासी भारतीय साहित्य : बदलता परिदृश्य

  प्रवासी भारतीय साहित्यकारों को सबसे पहली आपत्ति ‘प्रवासी’ शब्द से ही रही है।वे अपने आप को,...
प्रवासी भारतीय साहित्य : बदलता परिदृश्य

 

प्रवासी भारतीय साहित्यकारों को सबसे पहली आपत्ति ‘प्रवासी’ शब्द से ही रही है।वे अपने आप को, विदेशों में लंबे समय तक रहने के बावजूद, पूरी तरह से भारतीय ही मानते हैं और अपने साहित्य को ‘भारतीय’।वे तथाकथित मुख्य धरा के साहित्य में शामिल रहना चाहते हैं, समालोचना के लिये वहीं आधार खोजते हैं तथा उनकी शिकायत रही है कि उन्हें मुख्य धरा में शामिल नहीं किया जा रहा। ‘प्रवासी’ कहकर न सिर्फ उनकी अलग श्रेणी बना दी गई है बल्कि उस श्रेणी को न जाने किस आधार पर, मुख्य धरा के लेखकों से नीचा भी मान लिया गया है। लेकिन यह बात अब पुरानी पड़ चुकी। ‘विश्वरंग’ के इस अंक में शामिल कहानीकारों - नासिरा शर्मा, तेजेंद्र शर्मा, रामदेव, कृष्ण बिहारी, अर्चना पेन्यूली, जकिया जुबैरी, दिव्या माथुर, रोहित कुमार हैप्पी तथा शैल अग्रवाल की कहानियाँ इस बात का प्रमाण हैं। वे अपने कथ्य में अलग हो सकती हैं लेकिन रूप में, कहानी कला की दृष्टि से, किसी भी तरह अन्य भारतीय कहानियों से कमतर नहीं। नासिरा शर्मा तो खैर बहुमान्य साहित्य अकादमी पुरस्कार से विभूषित कथाकार हैं ही, अन्य सभी कथाकार भी अपनी तरह के श्रेष्ठ रचनाकार हैं।

 

अगर आप पहली पीढ़ी के प्रवासियों को देखें तो जिन परिस्थितियों में उनका विदेश गमन हुआ उसमें देश की गहरी याद, हमारे ग्रंथों और परंपरा से दूर होने की गहरी टीस और उससे जुड़े रहने की आकांक्षा, देश वापसी की उम्मीद, उनके मन में और उनकी रचनाओं में आना स्वाभाविक था।गिरिराज किशोर ने अपने बहुपठित उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ में इस टीस को पूरी करुणा के साथ उभारा है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद, साठ और सत्तर के दशकों में और हाल ही के वर्षों में, प्रवासित भारतीयों का नजरिया पूरी तरह बदला है।अब वे अपने-अपने देश में, उनके नागरिकों के साथ बराबरी से व्यवहार कर पाते हैं। ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में कई बार उन पर भारी पड़ते हैं और भारत की यादें भले ही उनके मन में हों, पर उनके प्रवास का देश भी अब उनकी रचनाओं में, परिवेश में और कथ्य में संपूर्णता के साथ झलक जाता है। कनाडियन रचनाकारों के संग्रह की भूमिका में शैलजा सक्सेना कहती हैं कि भले ही प्रथम पीढ़ी के साहित्यकारों की मूल प्रवृत्ति रहा हो पर आज की पीढ़ी अपने परिवेश से पूरी तरह परिचित है और उसकी स्थानिकता, उसके संघर्ष, उसके मूल्य जो एक तरह से वैश्विक मूल्य ही है- उनकी रचनाओं में जीवंतता से उपस्थित होते हैं।

 

प्रवासी साहित्य के संदर्भ में एक जरूरी बात यह है कि उसे पर्याप्त समालोचना नहीं मिली है।कमल किशोर गोयनका ने तीन खंडों में उसका संग्रह तो किया है, और चयन ही रचनाकारों की विशिष्टता भी करता है, पर उसमें आलोचनात्मक आलेख अनुपस्थित हैं। केन्द्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका ‘प्रवासी जगत’ या भोपाल से निकलने वाली ‘गर्भनाल’ में रचनाएँ तो प्रकाशित होती हैं पर आलोचना लगभग न के बराबर है। जरूरत इस बात की है कि देशों या क्षेत्रीय आधारों पर प्रवासी संग्रह प्रकाशित हों और भारत के प्रख्यात आलोचकों द्वारा उन पर आलोचनात्मक आलेख लिखवाये जायें।प्रवासी लेखक भी भारतीय साहित्य की समालोचना कर सकते हैं। इससे जो पर्यावरण बनेगा वह शायद प्रवासी साहित्य को देखने की एक दृष्टि प्रदान करे।

 

मुझे लगता है कि प्रवासी साहित्य को समझने का एक अनिवार्य कदम प्रवासन की ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना है।इस दृषि् से महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के आगमन पर एक दिलचस्प आलेख लिखा है। वे कहते हैं, ‘इकरारनामें में भारत से दक्षिण अफ्रीका भेजे गये मजदूरों के इकरार नामे में इस बात का पूरा ख्याल तो नहीं ही रखा गया कि इस प्रकार सुदूरदेश में जाने वाले अनपढ़ मजदूरों पर यदि कोई दुख या संकट आ पड़े तो उससे वे कैसे मुत्ति पा सकेंगे। 

 

प्रवासी भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य को समझने के लिये डॉ. पुष्पिता अवस्थी का एक अन्य आलेख अत्यंत उपयोगी है। वे कहती हैं "प्रवासी साहित्य का ताना-बाना मूलतः विस्थापन और निर्वासन की दारुण यातना से निख्रमत हुआ है। जिसमें इस निष्करुण त्रासदी के दौर में देश, जाति, धर्म और भाषा के बंधन शिथिल हुए हैं। जीवन और जीविका के दबाव में मनुष्य आश्चर्यजनक रूप से विवश हुआ है। जिसमें जिजीविषा, प्रेम, स्वाधीनता, सुखोपभोग और स्त्री की अहम भूमिका है। इस दृष्टि से विश्व की विभिन्न भाषाओं के साहित्य के अन्तरंग से गुजरें तो निर्वासन और प्रवासन से संघर्षशील कई पीढ़ियों के संवेदनशील साहित्य से साक्षात्कार हो सकेगा जिससे प्रवासी संघर्ष की विसंगतियों को देखा जा सकेगा। "

 

प्रवासी कविता ‘विश्वरंग’ का एक सशक्त और सुंदर हिस्सा हैं जो प्रवासी साहित्य के कोमलतम को अभिव्यक्त करती हैं।उदाहरण के लिये सुरेश ट्टतुपर्ण की कविता ‘जहाजी भाई’ का यह अंश देखिये

 

ये नदियाँ, ये पर्वत, ये समुद्र

यह हवा, यह बारिश हमारी थी

सागर की लहरों में समाया

नमक हमारा था

 खेतों में लहराती मिठास हमारी थी़

इसी देश की मिट्टी में रोपा था हमने

अपने सपनों का बिरवा

सींचा था अपने पसीने से

और उसे फलते-फूलते देखा

सुख-दुख की धूप छाँह के बीच

कभी भूल नहीं पाए

अपने पुरखों का देश 

दिए जला मनायी दिवाली

खेला फाग, जलाई होली

बोलते रहे रामायन महारानी की जय

गाते रहे मानस की चौपाई

कड़ा समय आया जब भी भारत मैया पर

बेचैन हो गये थे हम

कंठ कंठ करता था प्रार्थना

हे प्रभु! माँ पर आयी विपदा तू टालना

हजारों मील दूर रहता था हमारा तन

पर तन तो जुड़ा था

अपनी जड़ों से

माँ के दिए संस्कार ही काम आए

पराये देश में तभी तो फल-फूल पाए।

या इशरत आफरीन की ये गजल 

हमारी आँखों ने दुख सहे थे जो हमने लिक्खे

न अब नये हैं, न तब नये थे जो हमने लिक्खे

जो हम न लिखते तो कौन लिखता अलम हमारे

कहीं नहीं ये लिखे गये थे जो हमने लिक्खे

वो चिट्ठियां जो जलायी जाती रही हैं बरसों

वो गम के बेनाम सिलसिले थे जो हमने लिक्खे

वो नस्ल दर नस्ल, सीना-ब-सीना चलतीं

कहानियां थीं, मकालमे थे जो हमने लिक्खे

दरूने-ख़ाना वो आँसुओं से लिखे गये ख़त

कि नाम उन पर नहीं लिखे थे जो हमने लिक्खे

हमारे चारों तरफ जो बिखरे हुए थे सुख-दुख

हमारे दुख से बहुत बड़े थे जो हमने लिक्खे

प्रवासी साहित्य अपने गिरमिटिया दिनों से आगे बढ़ते हुये अब एक विश्व संस्कृति की झलक बनता जा रहा है।

 

(लेखक विश्वरंग महोत्सव के निदेशक हैं)

 

 

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