Advertisement

अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा विश्व स्तर पर भारत की लोकतांत्रिक साख को नुकसान पहुंचा रही है

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा), जो भारत के सशस्त्र बलों को 'अशांत क्षेत्रों' में काम करने के...
अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा विश्व स्तर पर भारत की लोकतांत्रिक साख को नुकसान पहुंचा रही है

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा), जो भारत के सशस्त्र बलों को 'अशांत क्षेत्रों' में काम करने के लिए पूरी छूट देता है, देश की बहुप्रतीक्षित लोकतांत्रिक परंपराओं पर एक धब्बा है। ब्रिटिश राज ने 1943 में भारत छोड़ो आंदोलन से निपटने के लिए ये अधिनियम लाया था, जिसे बाद में देश में भी लंबे समय तक स्क्रैप कर दिया गया था। इस काले अधिनियम के माध्यम से "अशांत" अधिसूचित राज्यों में साथी देशवासियों के खिलाफ व्यापक मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएँ सामने आई हैं।

अफस्पा के ऊपर सबकी नजरें एक बार फिर से तब टिकीं जब हाल ही में नागालैंड के मोन जिले में कथित तौर पर असहाय नागरिकों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। संविधान द्वारा गारंटीकृत अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता और अधिकारों पर भारत का रिकॉर्ड तेजी से गिर रहा है और विशेष रूप से पश्चिमी लोकतंत्रों में ये एक गंभीर चिंता का विषय भी है। ईसाईयों पर हमले और हिंदू धार्मिक नेताओं द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का आह्वान दुनिया भर में नोट किया जा रहा है।

नागालैंड में बेगुनाहों की हत्या को लेकर दिल्ली में भी विरोध प्रदर्शन हुआ। तथ्य यह है कि सभी पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिक इसे निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। उस समय जब भाजपा ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था, तब अफ्सपा को लेकर पुनर्विचार किया गया। केंद्र सरकार ने नागालैंड से अफ्सपा को वापस लेने की जांच के लिए एक पैनल का गठन किया है, जिसको 45 दिनों के अंदर रिपोर्ट देनी होगी। लेकिन इस "ब्लैक एक्ट" की समीक्षा केवल नागालैंड तक ही सीमित है, सभी जगहों के लिए नहीं।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के प्रवक्ता कोलविल ने जिनेवा से आउटलुक को बताया, "संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय चिंतित है और 1990 के सशस्त्र (जम्मू और कश्मीर) विशेष बल अधिनियम के संबंध में मुखर रहा है, जो उत्तर-पूर्वी भारत के कई राज्यों में लागू अफ्सपा के लगभग समान है।"

उन्होंने कहा कि 2018 में जम्मू और कश्मीर पर हमारी की गयी रिपोर्ट के पैराग्राफ 43 में कहा गया है, "यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर में सक्रिय सुरक्षा बलों को व्यापक अधिकार देता है और केंद्र सरकार को उनके खिलाफ सभी चलने वाले संभावित मुकदमों को मंजूरी देने की आवश्यकता के कारण, उनके आचरण के लिए नागरिक अदालतों में अभियोजन से प्रभावी रूप से प्रतिरक्षा प्रदान करता है।"

उन्होंने आगे कहा कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र विशेष प्रतिवेदक ने उनकी 2014 की भारत यात्रा की रिपोर्ट (ए/एचआरसी/26/38/) में सरकार से आग्रह किया था कि "सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को निरस्त करें और यह सुनिश्चित करें कि सशस्त्र बलों के सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा कानूनी बाधाओं से मुक्त हो।"

कश्मीर में आतंकवादी हमले जारी हैं और दुनिया भर में सरकारों द्वारा आतंकवाद से निपटने के लिए सुरक्षा बलों को सशक्त बनाने की सामान्य प्रवृत्ति के साथ, यह संभावना नहीं है कि मोदी सरकार भी उपकृत होगी। वास्तव में, न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में लोकतंत्र दक्षिणपंथ के उदय के साथ पीछे खिसक रहा है। चाहे वह अमेरिका में हो, यूरोप में या भारत में, दक्षिणपंथी समूहों को धीरे-धीरे मुख्यधारा के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। ट्रम्प ने श्वेत वर्चस्ववादियों को प्रोत्साहित किया और अमेरिका पहले की तरह ध्रुवीकृत हो गया है। भारत में भी भाजपा के उदय के साथ अति-राष्ट्रवादी विचारधारा और "अन्य" पर हमले के साथ, सरकार की नीति की आलोचना को अब गैर-देशभक्त या पाकिस्तान समर्थक माना जाता है। सौभाग्य से अमेरिका में, संस्थान मजबूत हैं और वह लोकतंत्र के लिए वापस लड़ रहे हैं। भारत में, भाजपा के आने से पहले से ही संस्थाएँ पतन पर थीं।

स्वतंत्रता के बाद से भारत के लोकतंत्र को स्वतंत्र दुनिया ने बहुत सराहा, क्योंकि चीन और अन्य बड़े एशियाई देश कम्युनिस्ट शासन के अधीन थे। भारत के लोकतंत्र और बहुलवाद को लोकतांत्रिक दुनिया भर में मनाया गया। विडंबना यह है कि इंडो-पैसिफिक के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के गठन की कल्पना जापान के पूर्व प्रधान मंत्री शिंजो आबे ने प्रशांत से हिंद महासागर तक फैले लोकतंत्र के एक चाप के रूप में की थी और इसमें चार स्वतंत्र और खुले समाज शामिल थे। 

यह देखते हुए कि भारत के पास सही साख है और एशिया में चीन के बढ़ते राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक दबदबे का मुकाबला करने के लिए उसे लुभाया जा रहा है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर इस प्रतिगमन को समझना मुश्किल है। हां, घरेलू ऑडियंस के साथ यह एक मुखर हिंदू राष्ट्रवाद की कथा के साथ खेलता है, लेकिन यह बड़ी अंतरराष्ट्रीय तस्वीर को ध्यान में रखना भूल जाता है, जहां भारत को एक वैश्विक खिलाड़ी के रूप में अपने लोकतांत्रिक आदर्शों को जीने की जिम्मेदारी है।

ह्यूमन राइट्स वाच की एशिया डायरेक्टर, मीनाक्षी गांगुली कहती है, " भारत एक महत्वपूर्ण आवाज बनने के बजाय, जो दुनिया में सबसे अधिक हाशिए पर रहने वालों की रक्षा के लिए नेतृत्व कर सके, भारत अब उन देशों की श्रेणी में शामिल हो गया है जो आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करने में अपनी विफलता के कारण चिंतित हैं। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम यह होगी कि अफस्पा के साथ हुई गालियों को स्वीकार किया जाए, जिन्हें कई सरकारों द्वारा नियुक्त जांचों द्वारा प्रलेखित किया गया है या जब तक इस कठोर कानून को निरस्त नहीं किया जा सकता है तब तक इसके स्थगन का आदेश दिया जाए।

वह आगे कहती हैं, "भारत के दोस्तों को लंबे समय से उम्मीद थी कि भारत दुनिया के कई अशांत हिस्सों में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए वैश्विक प्रयासों में आगे बढ़ेगा और सफल शासन के संदेश को बढ़ावा देगा, जो एक विशाल और विविध आबादी की आकांक्षाओं को समायोजित करता है। इसके बजाय, बढ़ते सांप्रदायिक हमलों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफलता के साथ, यह भारत में अधिकारों की सुरक्षा का निराशाजनक प्रतिगमन है।"

जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधान मंत्री, सैद्धान्तिक रूप में इस अधिनियम के खिलाफ थे। लेकिन जैसा कि राजनीतिक नेतृत्व ने नागा विद्रोह से निपटने की कोशिश की, जहां नागालैंड के करिश्माई नेता ए.जेड. फिजो ने 1947 में स्वतंत्रता से पहले ही ये मांग की थी कि चूंकि नागा जनजातियों का भारत की मुख्य भूमि से बहुत कम समानता है, इसलिए अंग्रेजों को एक स्वतंत्र नागा राष्ट्र को मान्यता देनी चाहिए। बाद में उन्होंने भारत का हिस्सा बनने के बजाय एक क्राउन कॉलोनी का आह्वान किया। नागा हिल्स, उस समय असम का एक हिस्सा था, जिसे पहले एक अशांत क्षेत्र घोषित किया गया था और बाद में सेना को नागरिक अदालतों से बचाने के लिए सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम लाया गया था। यह 1958 की बात है, जब एक नए स्वतंत्र देश ने विभाजन की त्रासदी देखी थी और अपनी दूर-दराज की चौकियों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। जब अधिनियम पर बहस हुई और इसे संसद में पारित किया गया, तो कई सदस्यों को संदेह था कि क्या लोकतांत्रिक भारत को अशांत क्षेत्रों में भी नागरिक निरीक्षण के बिना सेना को संचालित करने की अनुमति देनी चाहिए। तब सांसदों को आश्वासन दिया गया कि यह नागालैंड की स्थिति से निपटने के लिए एक अस्थायी उपाय है और इसे जल्द ही हटा लिया जाएगा।

हालांकि अस्थायी उपाय स्थायी है। भारत बदल गया है और आज वैश्विक टेबल पर बैठने की महत्वाकांक्षाओं के साथ एक आत्मविश्वास से भरा हुआ देश है, फिर भी उत्तर पूर्वी राज्य हों या कश्मीर, यह काला कानून अभी भी चल रहा है। पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के दौरान भी यह लागू किया गया था लेकिन सौभाग्य से जब खालिस्तान आंदोलन खत्म हुआ तो अफप्सा को हटा लिया गया। त्रिपुरा में भी सीपीएम सरकार ने उग्रवाद खत्म होने के बाद इसे खत्म करने का फैसला किया।

भारत और विदेशों दोनों जगहों के अधिकार समूहों द्वारा किये गए अपील के बावजूद भारत की सरकारों के कानों पर जूं भी नहीं रेंग रहा है। भारतीय सेना ने स्वाभाविक रूप से इस तरह के किसी भी कदम का विरोध किया है। इसका कारण यह है कि सरकारों को आंतरिक अशांति को शांत करने के लिए सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ा है और वह सेना की इच्छा के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर सकती है।

जून 2021 में, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कश्मीर घाटी में हो रहे "गंभीर उल्लंघन" पर चिंता व्यक्त की और भारत सरकार से बच्चों के खिलाफ शॉटगन छर्रों के उपयोग को समाप्त करने की अपील की थी।

बच्चों पर आई यूएन की रिपोर्ट पर उन्होंने कहा था, "मैं सरकार से बच्चों की सुरक्षा के लिए निवारक उपाय उठाने का आह्वान करता हूं, जिसमें बच्चों के खिलाफ छर्रों के उपयोग को समाप्त करना भी शामिल है। रिपोर्ट में कहा गया था कि यह सुनिश्चित किया जाए कि बच्चे किसी भी तरह से सुरक्षा बलों के संपर्क में न आएं और यह ध्यान रखा जाए कि वो सुरक्षित स्कूल जाए।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में दिए भारत की प्रतिक्रिया कश्मीर में आतंकी संगठनों को धकेलने के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराता है। हालांकि यह सच है भी कि पाकिस्तान लगातार भारत में आतंक को बढ़ावा देता रहा है। जबकि अतीत में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भारत की ऐसी शिकायतों को ज्यादा महत्व नहीं दिया था लेकिन अब चीजें बदल गई हैं। यह मुख्य रूप से इसलिए हुआ है, क्योंकि दुनिया में पाकिस्तान की विश्वसनीयता कम हुई है। अमेरिका और नाटो देशों के मत में बदलाव, अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना के दोहरे व्यवहार का प्रत्यक्ष अनुभव मिलने के बाद हुआ है। दुनिया ने कुल मिलाकर नई दिल्ली के वर्जन को स्वीकार कर लिया है।

लेकिन यह तेजी से बदल सकता है क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों से अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें आती रहती हैं। अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रगतिशील शाखा लोकतंत्र और मानवाधिकारों जैसे मुद्दों पर मुखर है और वह इन मुद्दों को प्रकाश में लाने के लिए राष्ट्रपति जो बाइडेन पर दबाव बना सकती है। अब समय आ गया है कि मोदी सरकार अपनी कुछ नीतियों को विराम दे और पुनर्विचार करे।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad