Advertisement

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां : जलती धरती करे पुकार

अब धरती की तपिश कल्पना नहीं, आंकड़ों में दर्ज एक खौफनाक सच्चाई बन चुकी है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO)...
जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां : जलती धरती करे पुकार

अब धरती की तपिश कल्पना नहीं, आंकड़ों में दर्ज एक खौफनाक सच्चाई बन चुकी है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की “State of the Global Climate 2023” रिपोर्ट के अनुसार, 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा। औसत वैश्विक तापमान 1.45°C (±0.12°C) पूर्व-औद्योगिक युग (1850–1900) से ऊपर दर्ज हुआ। यह केवल वैज्ञानिक भाषा में दर्ज कोई चेतावनी नहीं, बल्कि हमारे जीते-जागते अनुभव की अब दैनिक वास्तविकता बन चुका है। यूरोप में जंगलों की आग, अफ्रीका में सूखा, अमेरिका में बर्फीले तूफान और चक्रवात, और एशिया — विशेषकर भारत — में भयावह गर्मी की लहरें… ये सब पृथ्वी की हद से आगे बढ़ चुकी पीड़ा के लक्षण हैं। दिल्ली में तापमान 50°C के करीब, उत्तराखंड में बर्फ पिघलने से भूस्खलन और हिमस्खलन, और बंगाल की खाड़ी में चक्रवातों की तीव्रता — ये इशारे नहीं, चेतावनियाँ हैं। अब पृथ्वी हमें चुपचाप संकेत नहीं दे रही — वह शोर कर रही है, चीख रही है, लेकिन क्या हम सुन रहे हैं?

पिछले सौ वर्षों में हमने विकास की जो परिभाषा गढ़ी, उसमें हमने प्रकृति को केवल एक ‘उपयोग की वस्तु’ मान लिया। हमने नदी से पानी खींचा, जंगल से लकड़ी, पहाड़ से खनिज, हवा से ऑक्सीजन — और बदले में लौटाया केवल प्लास्टिक, रसायन, और कार्बन। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण एजेंसी UNEP के अनुसार, मानवता अब हर साल पृथ्वी से 1.7 गुना अधिक संसाधन निकाल रही है, जितनी वह पुनः उत्पन्न कर सकती है। इसे ‘Ecological Overshoot’ कहा जाता है। हर साल लगभग 10 मिलियन हेक्टेयर जंगल साफ हो जाते हैं। WWF की Living Planet Report 2022 के मुताबिक, 1970 से अब तक धरती की जैव विविधता का 69% हिस्सा समाप्त हो चुका है। समुद्रों में 150 मिलियन टन प्लास्टिक तैर रहा है और अनुमान है कि 2050 तक वहाँ मछलियों से ज़्यादा प्लास्टिक हो सकता है। क्या यह विकास है? या वो विनाश जिसकी शुरुआत हमने उत्सव की तरह की थी?

पर यह केवल नीति या सरकारों की भूल नहीं है — यह सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर हमारी आदतों और लालच का परिणाम भी है। हम हर साल औसतन 50–60 किलो प्लास्टिक उपयोग करते हैं, जिनमें से अधिकांश एक बार इस्तेमाल होने के बाद फेंक दिया जाता है। हमारी फैशन की आदतें, हर सीज़न नए कपड़े और ट्रेंड्स की होड़ — पर्यावरणीय संसाधनों की सबसे बड़ी खपत में से एक बन चुकी है। फैशन इंडस्ट्री अकेले वैश्विक जल प्रदूषण का 20% और कार्बन उत्सर्जन का लगभग 10% योगदान करती है (UNEP)। तकनीकी उपकरणों की बात करें तो — मोबाइल, लैपटॉप, इलेक्ट्रिक कारें — इनमें प्रयुक्त कोबाल्ट और लिथियम जैसी धातुएँ अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की खदानों से निकाली जाती हैं, जहाँ अक्सर बाल मज़दूरी और पर्यावरणीय शोषण होता है। यानी हमारी चमक किसी और की ज़िंदगी के अंधेरे से खरीदी जा रही है। यह उपभोग नहीं, यह शोषण है — और उसका भुगतान पृथ्वी कर रही है।

भारत की बात करें तो स्थिति और भी चिंताजनक है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) और ‘स्टेट ऑफ एनवायरमेंट रिपोर्ट 2023’ के अनुसार, भारत की 603 नदियों में से 279 नदियाँ गंभीर रूप से प्रदूषित हैं। गंगा, यमुना, गोमती — श्रद्धा की धाराएँ अब सीवेज और औद्योगिक कचरे का भार ढो रही हैं। WHO और IQAir की 2023 रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में हैं, जिनमें दिल्ली, गाज़ियाबाद, लखनऊ, पटना, कानपुर प्रमुख हैं। दिल्ली की हवा WHO के मानकों से 20 गुना अधिक प्रदूषित है। हिमालय क्षेत्र — जिसे देवभूमि कहा गया — आज अवैज्ञानिक निर्माण, अतिक्रमण और अनियंत्रित पर्यटन के कारण ध्वस्त होता जा रहा है। जोशीमठ का धंसना, केदारनाथ का बार-बार प्रभावित होना, और उत्तराखंड-हिमाचल में लैंडस्लाइड्स — ये सब हमारी गलत विकास नीतियों की सजीव गवाही हैं।

सरकार ने प्रयास किए हैं — इसे नकारा नहीं जा सकता। भारत ने 2021 में COP26 सम्मेलन में 2070 तक ‘नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन’ का लक्ष्य रखा। ‘नमामि गंगे’ से लेकर ‘जल जीवन मिशन’ और ‘राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन’ तक कई योजनाएँ चलाई गईं। देश अब दुनिया के शीर्ष 5 सौर ऊर्जा उत्पादक देशों में है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये योजनाएँ परिणाम दे रही हैं, या केवल प्रस्तुति? क्या गंगा सच में साफ हो रही है? क्या प्लास्टिक पर प्रतिबंध ज़मीनी हकीकत बन पाया है? क्या हमारे शहरी और ग्रामीण योजनाकार पर्यावरणीय संतुलन को प्राथमिकता देते हैं? यदि नहीं, तो नीतियों का मूल्यांकन ईमानदारी से होना चाहिए। जब तक विकास के मॉडल में पर्यावरण ‘अवरोध’ की तरह देखा जाएगा, तब तक स्थायी समाधान संभव नहीं। अब समय आ गया है कि सरकारें ‘ग्रीन जीडीपी’ को अपनाएँ — जहाँ विकास की गणना पर्यावरणीय स्वास्थ्य के साथ हो।

अब हमें यह तय करना है कि हम आगे जीवन की ओर बढ़ेंगे या विनाश की ओर। शिक्षा प्रणाली में पर्यावरण को केवल एक विषय नहीं, एक संस्कार की तरह जोड़ा जाए। हर शहर की योजना में ग्रीन बेल्ट, जल स्रोतों की सुरक्षा और निर्माण के पूर्व पर्यावरणीय आकलन अनिवार्य हो। ग्रामीण भारत में पारंपरिक जल संरक्षण पद्धतियों और जैविक खेती को प्रोत्साहन मिले। पर्यटन और शहरीकरण के नाम पर पहाड़ों का बलात्कार रोका जाए। और सबसे महत्वपूर्ण — व्यक्ति स्तर पर उपभोग की आदतों में बदलाव आए। कम खरीदें, बार-बार इस्तेमाल करें, और ‘स्थायी जीवनशैली’ को अपनाएँ। पृथ्वी कोई ‘उपयोग की वस्तु’ नहीं — यह हमारे जीवन का आधार है। अगर हमने अब भी नहीं सुना — तो अगली पीढ़ियाँ हमें ही कोसेंगी।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad