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 ‘लोक’ के नाम, मगर ‘लोक’ से दूर: तीन दशक में सात वित्त मंत्रियों ने क्या बदला

“तीन दशक में सात वित्त मंत्रियों से क्या हासिल, खेती में क्रांतिकारी बदलाव का दावा खोखला, बेरोजगार और...
 ‘लोक’ के नाम, मगर ‘लोक’ से दूर: तीन दशक में सात वित्त मंत्रियों ने क्या बदला

“तीन दशक में सात वित्त मंत्रियों से क्या हासिल, खेती में क्रांतिकारी बदलाव का दावा खोखला, बेरोजगार और गैर-बराबरी बढ़ी”

कुल सात हैं। सात वित्त मंत्रियों ने भारत की अर्थव्यवस्था की दिशा बदल दी। इनमें 2019 में बनीं मौजूदा और भारत की पहली महिला वित्त मंत्री भी हैं। 1991 से 2021 के दरम्यान इन वित्त मंत्रियों ने 31 मुख्य बजट और कुछ अंतरिम बजट पेश किए। अपनी नीतियों की बदौलत उन्होंने इस बात की परिकल्पना, चर्चा और बहस की, कि कैसे बाजार का अदृश्य हाथ प्रत्यक्ष नतीजे दे सकता है।

वे आदर्शवादी और यथार्थवादी दोनों थे। वे दार्शनिक और अर्थशास्त्री, दोनों का मिलाजुला रूप थे। उनकी राह इस बात से तय नहीं होती थी कि क्या है, बल्कि इस बात से होती थी कि क्या हो सकता है। वे चुनावी हकीकत का भी ध्यान रखते थे। देश को आगे ले जाने के लिए कई बार वे तेजी से मुड़े तो बीच में रास्ता भी भूले। कई अवसरों पर वे अपने विचारों के साथ आगे बढ़े तो कई बार उनके सामने ऐसा चौराहा आया जहां से उन्हें लौटना पड़ा। इन वित्त मंत्रियों ने मार्केट मंत्र को समाजवादी नारों के साथ जोड़ा।

मनमोहन सिंह

मनमोहन सिंह

दरअसल, उन्होंने हमें और हमारे समाज को बदला। उनकी वजह से कई पीढ़ियों में आमूलचूल और दूरगामी बदलाव हुए। कांग्रेस के मनमोहन सिंह ने जब अपना पहला बजट पेश किया और 24 जुलाई 1991 को नई औद्योगिक नीति के साथ पूंजीवाद की आधारशिला रखी तो उसके बाद जीवन कभी पहले जैसा नहीं रहा। इन तीन दशकों में वित्त मंत्रियों ने हमारी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को उकसाया है। संपत्ति, खपत, मनोरंजन हर बात में हमारा नजरिया पहले से बिल्कुल अलग हो गया है।

जीडीपी की ऊंची दर उनकी पहली प्राथमिकता थी। अन्य प्राथमिकताओं में गरीबी के प्लेग से मुक्ति और लोगों को संपन्नता की तरफ ले जाना शामिल हैं। 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम, जिनके नाम तीन कार्यकाल में सबसे अधिक बजट पेश करने का रिकॉर्ड है, ने कहा था, “हम विकास के रथ पर सवार होंगे, समानता हमारी साथिन होगी और सामाजिक न्याय हमारा लक्ष्य होगा।” उनसे एक साल पहले मनमोहन सिंह ने भी कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे।

मैन्युफैक्चरिंग ज्यादा लोगों को रोजगार देने, आमदनी बढ़ाने, जीवन स्तर सुधारने और गरीबी का अभिशाप दूर करने का जरिया थी। मनमोहन सिंह ने अपने कई भाषणों में कहा था कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज की जकड़न से मुक्त, प्रतिस्पर्धी उद्योग किसानों के लिए भी मददगार होगा। उन्होंने 1995 में कहा था कि उद्योग से जुड़े बदलाव सब्सिडी के किसी भी कार्यक्रम की तुलना में ज्यादा असरदार होंगे। जसवंत सिंह (एनडीए-1, 2003) नागरिकों की रचनात्मक प्रतिभा को फिर से जगाना चाहते थे।

कोशिश हमेशा यह रही कि गरीबों और वंचितों को फोकस में दिखाया जाए। यशवंत सिन्हा (एनडीए-1) ने 1998 में भावुक होते हुए कहा था, “मैंने सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति के चेहरे को ध्यान में रखा और यह तय किया कि बजट उनके मतलब का हो।” 2014 में अरुण जेटली (एनडीए-2) ने कहा कि “गरीब भी मध्यवर्ग का हिस्सा बनना चाहते हैं।” अपने पहले बजट भाषण में निर्मला सीतारमण ने 2019 में दावा किया कि “सरकार आखिरी पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक पहुंचना चाहती है।”

प्रणब मुखर्जी (यूपीए-2) ने 2010 के बजट भाषण में कहा था कि यदि विकास से हर जाति, वर्ग और समुदाय के लोगों को रोजगार मिलता है, लोगों की आमदनी बढ़ती है, बुनियादी और अन्य सुविधाएं मिलती हैं और जीवनशैली बेहतर होती है तो हमें उस विकास की जरूरत है। लेकिन अगर उससे असमानता बढ़ती है, करोड़ों लोगों को भूखे रहना पड़ता है और बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार रह जाते हैं तो यह समय की बर्बादी है। मनमोहन सिंह ने बड़ी सूझबूझ वाला बयान दिया था कि 'विकास सिर्फ एक माध्यम है, लक्ष्य नहीं।'

कृषि से ज्यादा कमाई और व्यवहार्य खेती के साथ रोजगार के बेहतर मौके, विकास और संपन्नता के दो आवश्यक तत्व थे। सातों वित्त मंत्रियों ने कृषि को ऊर्जावान बनाने के लिए एक के बाद एक नीतियों का डोज देने की कोशिश की। उनकी इन्हीं कोशिशों का नतीजा हाल में बने तीन कृषि कानून हैं, जिन्हें लेकर पिछले दिनों काफी हंगामा हुआ और जिनका किसान विरोध कर रहे हैं।

तीन नए कृषि कानूनों में से पहले में ‘एक देश-एक बाजार’ की बात कही गई है। इसका मकसद किसानों को अपनी उपज पूरे देश में कहीं भी बेचने की आजादी देना है। तर्क यह दिया गया कि किसान सीधे बाजार में अपनी उपज बेच सकते हैं, जहां उन्हें अधिक कीमत मिलेगी। एकीकृत राष्ट्रीय बाजार की पहली बार चर्चा मनमोहन सिंह ने की थी। उस परिकल्पना में कृषि उपज को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने पर किसी तरह की प्रशासनिक पाबंदी नहीं थी। यशवंत सिन्हा ने किसानों को खाद्य प्रसंस्करण करने वालों को सीधे अपनी उपज बेचने की अनुमति दी।

दूसरे कानून में आवश्यक वस्तु अधिनियम को खत्म करने की बात है। यह अधिनियम केंद्र सरकार को कुछ फसलों की कीमतें और उनका वितरण नियंत्रित करने का अधिकार देता है। लेकिन तमाम वित्त मंत्री 1991 से ही इस अधिनियम को ढीला करते आए हैं। वे एक के बाद एक उत्पादों को इसके दायरे से बाहर निकालते गए। कारण यह बताया गया कि अगर बाजार की ताकतें कीमतें नियंत्रित करेंगी तो किसानों की कमाई बढ़ेगी। पिछले वित्त मंत्रियों ने कॉरपोरेट फार्मिंग को लेकर भी कई प्रयोग किए जिसकी परिणति तीसरा कृषि कानून है।

लेकिन किसानों को लगता है कि पुरानी नीतियां उनके लिए नुकसानदायक ज्यादा रही हैं। ‘एक देश-एक बाजार’ की अवधारणा अभी तक सिरे नहीं चढ़ सकी है। ज्यादातर किसानों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वे पास के बाजार तक अपनी उपज को लेकर जा सकें, पूरे देश में अपनी उपज भेजने की बात तो दूर की कौड़ी है। बीते वर्षों में आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों में ढील से कीमतों में जब-तब उतार-चढ़ाव आया जिसने ग्रामीण परिवारों को बर्बाद कर दिया। कॉरपोरेट या लीज पर खेती से भी किसानों को कभी फायदा हुआ तो कभी नुकसान।

इन विफलताओं के बावजूद, अगर हम सालाना उत्पादन और निर्यात में बढ़ोतरी को छोड़ दें, तो वित्त मंत्री हमेशा इस बात का ढिंढोरा पीटते रहे कि वे कैसे कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले हैं। मनमोहन सिंह ने 1992 में “किसानों के लिए नया अध्याय” शुरू करने की बात कही तो यशवंत सिन्हा ने 2002 में “किसान की आजादी” का नारा दिया। अपने कार्यकाल में जसवंत सिंह ने पहली हरित क्रांति (जिसके अच्छे और बुरे दोनों नतीजे रहे) के बाद दूसरी हरित क्रांति की चर्चा की।

जहां तक शहरी रोजगार की बात है, तो 1990 के दशक में यह शिखर पर पहुंचा और उसके बाद उसमें गिरावट आती गई। इस सदी में हमने लंबे समय तक ‘बिना रोजगार के विकास’ को देखा है। यानी ऐसा विकास जिसमें बहुत कम संख्या में लोगों को रोजगार मिला। कोविड-19 से पहले बेरोजगारी दर चार दशकों में सबसे अधिक हो गई थी। आज बेरोजगारी दर संभवतः आजादी के बाद सबसे अधिक है।

निर्मला सीतारमण

निर्मला सीतारमण

इससे भी चिंताजनक बात यह है कि बेरोजगारी को संभवतः कमतर आंका जाता है। बेरोजगारी दर का मतलब है कि नौकरी करने को इच्छुक कामकाजी आयु वर्ग की आबादी में कितने लोगों के पास काम नहीं है। यानी अगर कोई व्यक्ति काम नहीं करता है और वह नौकरी की तलाश में नहीं है तो तकनीकी रूप से उसे बेरोजगार नहीं कहा जाएगा। लेकिन काम न करने की कई वजहें हो सकती हैं। मसलन, अपनी पसंद का काम न मिलना, परिवार और समाज का दबाव, वेतन कम मिलना आदि। अफसोस की बात है कि बड़ी संख्या में लोगों, खासकर महिलाओं ने काम करना बंद कर दिया है। 2015 से 2018 के दौरान 15 से 59 साल की ऐसी महिलाओं की संख्या 20 फीसदी बढ़ गई जो स्वयं जॉब मार्केट से बाहर हो गईं।

सातों उत्साही वित्त मंत्री इन नाकामियों पर पर्दा डालना पसंद करेंगे। वे दावा करेंगे कि विकास की बाधाओं, असीम असमानता, अत्यधिक बेरोजगारी और किसानों में बढ़ती बेचैनी के बावजूद गरीबों की संख्या कम हुई है। आंकड़ों के अनुसार 1991 में देश में 50 करोड़ गरीब थे, अब 5 से 20 करोड़ रह गए हैं। पांच से 20 करोड़ का आंकड़ा इस बात पर निर्भर करता है कि आप गरीबी का आधार क्या मानते हैं। बीस करोड़ का आंकड़ा बहुत अधिक है। इसमें 20 से 30 करोड़ कम आय वर्ग के लोगों को जोड़िए, फिर सोचिए कि हमें कितने लोगों को ऊपर उठाना है, वह भी जल्दी।

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