सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को इस कानूनी सवाल पर अपना आदेश सुरक्षित रख लिया कि क्या राज्य सरकार को प्रवेश और सार्वजनिक नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमन, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए राज्यों की दलीलें सुनीं, जिसमें ईवी चिन्नैया फैसले की समीक्षा की मांग की गई थी, जिसने 2004 में फैसला सुनाया था कि सभी सदियों से बहिष्कार, भेदभाव और अपमान झेलने वाले एससी समुदाय एक सजातीय वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे, जो उप-वर्गीकृत होने में असमर्थ थे।
पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र मिश्रा भी शामिल हैं, 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है, इसमें पंजाब सरकार द्वारा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली मुख्य याचिका भी शामिल है।
शीर्ष अदालत ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में 2004 के पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले पर फिर से विचार करने के संदर्भ में सुनवाई कर रही है, जिसमें यह माना गया था कि एससी और एसटी समरूप समूह हैं और इसलिए, राज्य आगे उप-वर्गीकरण नहीं कर सकते हैं। उन्हें इन समूहों में अधिक वंचित और कमजोर जातियों के लिए कोटा के अंदर कोटा प्रदान करना होगा।
चिन्नैया फैसले में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों का कोई भी उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करेगा। 2004 के फैसले में कहा गया था कि केवल संसद, न कि राज्य विधानसभाएं, संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत एससी समझी जाने वाली जातियों को राष्ट्रपति सूची से बाहर कर सकती हैं।