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'जिसने कभी न झुकना सीखा उसका नाम है मुलायम', कभी लगता था महाबली हनुमान भक्त के नाम पर नारा

लखनऊ। बजरंगबली हनुमान की प्रतिदिन अर्चना करने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करने वाले के बारे में आखिरकार...
'जिसने कभी न झुकना सीखा उसका नाम है मुलायम', कभी लगता था महाबली हनुमान भक्त के नाम पर नारा

लखनऊ। बजरंगबली हनुमान की प्रतिदिन अर्चना करने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करने वाले के बारे में आखिरकार सोमवार की सुबह वो मनहूस खबर आ ही गई जिसकी आशंका पिछले एक सप्ताह से बनी हुई थी। देश की राजनीति में कार्यकर्ताओं के बीच 'नेताजी' के नाम से प्रसिद्ध नेता मुलायम सिंह यादव 82 वर्ष की उम्र में शरीर शांत हो गई। एक दौर था, उनके नाम पर नारा लगता था 'जिसने कभी न झुकना सीखा उसका नाम मुलायम है' और आज उसी मुलायम का सिर मृत्यु के आगे झुक गया। झुकना ही था मृत्यु से भला कौन जीता है। वैसे राजनीतिक तौर पर मुलायम इससे लगभग छह वर्ष पूर्व ही पुत्र अखिलेश यादव के हाथों पार्टी हार चुके थे।

22 नवंबर 1939 को इटावा के सैफई के किसान सुघर सिंह ने शायद कभी सपने में सोचा भी नहीं होगा कि जो बच्चा उनके यहां दूसरे पुत्र के रूप में पैदा हुआ है वह आगे चलकर परिवार का नाम इस कदर रौशन करेगा कि सैफई का‌ नाम विश्व पटल पर चमकेगा। सुघर सिंह और मूर्ति देवी के इस पुत्र का नाम मुलायम किसने रखा ये नहीं पता परन्तु हर बार इरादों से ये लड़का अपने नाम के विपरीत कठोर ही दिखा। पिता बनाना चाहते थे पहलवान लेकिन बेटे का इरादा मिट्टी के मुलायम अखाड़े की बजाय राजनीति के सख़्त अखाड़े में दांवपेंच आजमाने का था।

सामाजिक क्षेत्र में पहलवानी के गुर नत्थू सिंह से सीखे तो राजनीति का गुरू बनाया राम सेवक यादव को। दोनों गुरुओं का आशीर्वाद लेकर शिक्षक मुलायम सिंह यादव ने 1967 में जसवंत नगर से पहली बार यूपी विधानसभा में विधायक के रूप में प्रवेश किया। फिर ये सिलसिला रुका नहीं। उतार चढ़ाव बाधाएं रुकावटें आती रहीं पार होती रहीं। पहले पशुपालन मंत्री और सहकारिता मंत्री और फिर प्रदेश का मुख्यमंत्री दो बार बनने के बाद लगभग तीन दशक की राजनीतिक यात्रा में 1996 में प्रदेश और देश की राजनीति में ऊंचे पायदान चढ़ते हुए देश के रक्षामंत्री का पद हासिल किया। इस बीच उनका नाम संयुक्त मोर्चे की इस सरकार में प्रधानमंत्री के लिए भी चला, परन्तु उनके ही सजातीय नेताओं लालू यादव और शरद यादव ने उनकी टांगें खींच लीं और उन्हें रक्षामंत्री की कुर्सी से संतोष करना पड़ा।

कहावत है कि राजनीति में कोई नियमित शत्रु या मित्र नहीं होता और सत्ता प्राप्ति ही मुख्य लक्ष्य होता है। मुलायम इसमें अखाड़े रूपी क्षेत्र में भी पारंगत थे 1989 में कांग्रेस के विरोध की राजनीति करते हुए पहली बार मुख्यमंत्री बने और इसमें भाजपा का भी समर्थन था। परन्तु 1990 में भाजपा समर्थित राममंदिर आंदोलन में धार्मिक भावनाओं और राजनीतिक गतिविधियों को लेकर मुलायम सख़्त नजर आए और अयोध्या में रामभक्तों पर गोली चलवाने से पीछे नहीं हटे। इस घटना ने जहां मुलायम को हिंदुओं के बड़े वर्ग का खलनायक बना दिया, वहीं मुसलमानों के वो आजादी के बाद कांग्रेस से अलग हटकर सबसे बड़े हितैषी नेता के रूप में उभरे।

राजनीतिक स्तर पर भाजपाइयों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहा तो मुसलमानों ने उन्हें 'रफीक-उल-मुल्क' की उपाधि दी। राम मंदिर आंदोलन में खलनायक बनकर उभरे मुलायम को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इस बीच देश में आरक्षण मुद्दा तेजी से पांव पसार रहा था। मुलायम ने इसे अवसर के रूप में लिया और वीपी सिंह के साथ मिलकर पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने लगे। इसमें उनका साथ उनकी बिरादरी के यादव नेताओं ने खुलकर दिया। देखते ही देखते मुलायम सिंह यादव ने अपने दाँव के जरिए और समीकरण के सहारे सत्ता में आने में सफल रहे, परन्तु इस बार उनके पालनहार बने बहुजन क्रान्ति के नायक कांशीराम। हालांकि, यहाँ का राजनीतिक रथ भी बहुत समय तक साथ नहीं रहा।

विभिन्न राजनीतिक दलों जैसे सोशलिस्ट पार्टी, जनता पार्टी, लोकदल, जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी का सफर तय करते हुए मुलायम सिंह यादव ने 1992 में अंततः अपने लोगों को इकट्ठा कर नये राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी बनाकर काम शुरू किया। चूंकि पार्टी खुद की थी और देश भर के समाजवादियों ने उन्हें नेता मान लिया था। उनकी बिरादरी यादव और मुसलमानों का भी उन्हें समर्थन हासिल था ही फिर उन्हें इस बात का अंदाजा था कि सिर्फ इतने से सत्ता नहीं मिलने वाली।

इस राजनीतिक सफर के बीच ही 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस एक बार फिर नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केंद्र में सत्ता आ चुकी थी और यहाँ उत्तर प्रदेश में रामभक्तों की सरकार कल्याण सिंह के नेतृत्व में हुंकार भर रही थी। 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद तो लगता था कि रामलहर से कोई पार न पा पाएगा। ऐसे में मुलायम सिंह यादव ने देशभर में दलितों की राजनीति को परवान चढ़ा रहे कांशीराम से फिर हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया। दलित पिछड़ा मुसलमान के इस गठबंधन ने भाजपा के प्रचंड राम लहर और कांग्रेस के सहानुभूति लहर के सहारे सत्ता प्राप्ति के मंसूबे पर पानी फेर दिया। फिर तो 'मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्रीराम' के नारे के साथ दलित पिछड़ा गठबंधन की सपा-बसपा सरकार बनी और मुलायम एक बार फिर मुख्यमंत्री बने।

सत्ता को लेकर सपा-बसपा में बड़ी खींचतान शुरू हो रही थी कि भाजपा के रणनीतिकारों ने इस जातिगत समीकरण की काट ढूंढी। उन्हें मौका भी जल्द मिल गया, राजधानी के स्टेट गेस्ट हाउस कांड के जरिए।‌ कांशीराम की राजनीतिक शिष्या मायावती पर हुए हमले ने सब समीकरण ध्वस्त कर दिये। मौके की ताक में बैठी भाजपा ने इसका फायदा उठाया और लालजी टंडन आदि नेताओं के जरिए मायावती से भाई-बहन का रिश्ता गांठकर साझे की सरकार बनाई। इस बीच मुलायम 'समाजवादी क्रांति रथ' पर सवार होकर प्रदेश में पार्टी का आधार बढ़ाने में लगे रहे। 2003 में मौका मिला देखकर मुलायम ने अंदरखाने में भाजपा से हाथ मिलाया और एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। मुख्यमंत्री के रूप में ये उनका अंतिम कार्यकाल साबित हुआ।

भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से तीन बार कम समय के लिए मुख्यमंत्री बनकर सत्ता का स्वाद बखूबी चख चुकीं सुश्री मायावती ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए भाजपा के खासकर ब्राह्मण वोटों को अपने पाले में किया और 2007 के चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहीं।‌ मायावती की इस सफलता ने देश भर के राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की काट मुलायम को युवा पीढ़ी में दिखी। पार्टी के नेताओं को भनक भी नहीं लगी और नेताजी चुपके से अपने पुत्र अखिलेश को संगठन के युवा चेहरे के रूप में आगे बढ़ाते रहे। इसका स्पष्ट संकेत तब मिला जब 2012 के चुनाव से पहले समाजवादी क्रांति रथ पर इस बार मुलायम की जगह अखिलेश नजर आए। चुनाव में यादव मुस्लिम के साथ ही युवा मतदाताओं का रुझान भी सपा की ओर दिखा और समाजवादी पार्टी भी पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में सरकार बनाने में सफल रही। पहली बार ऐसा समय आया जब मुलायम ने मुख्यमंत्री बनने से इंकार कर अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की। जिस थोड़े बहुत मान-मनौव्वल के बाद पार्टी नेताओं ने स्वीकार भी कर लिया।

 भारतीय समाज में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि जो दुश्मनों से नहीं हारता, वह अपनों से हारता है। ऐसा ही कुछ धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव के साथ भी हुआ (ऐसा लोग मानते हैं)। जिस उम्मीद के साथ मुलायम ने सत्ता अपने पुत्र को हस्तांतरित की थी, उससे कहीं आगे बढ़ते हुए अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले सत्ता के साथ ही समाजवादी पार्टी पर भी कब्जा कर दिखाया।

बेटा अखिलेश न सिर्फ मुलायम समर्थक नेताओं चाचा शिवपाल आदि को पार्टी और सरकार से बेदखल किया बल्कि पिता यानि नेताजी को भी अध्यक्ष की कुर्सी से हटाते हुए खुद अध्यक्ष बन बैठा। अखिलेश चाहें जो भी दावा करें लेकिन नेताजी बेटे द्वारा किए गये अपने इस सार्वजनिक अपमान से अंदर ही अंदर टूट गये और अपने करीबियों के बीच अपने इस दुःख को व्यक्त करते थे। 'लड़के हैं गलती हो जाती है' जैसा बयान देने वाले मुलायम को कभी सपने में भी अंदाजा न रहा होगा कि उनका लड़का भी कभी उन्हें इस तरह अपमानित करने की गलती करेगा। इसके बाद उन्हें भले ही संरक्षक बना दिया गया। परन्तु परिवार को हमेशा साथ लेकर चलने वाला राजनीतिक व्यक्ति भावनात्मक रूप से एक आहत पिता बीमारियों से ऐसा घिरा कि आज मृत्यु की लड़ाई से हार गया।

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