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प्रणब मुखर्जी के संघ में जाने से कांग्रेसियों की 'लिबरल' रूह कांप क्यों रही है?

तुम्हारे पास अपनी विचारधारा है और मेरे पास अपनी। -   खलील जिब्रान पिछले कई दिनों से देश में...
प्रणब मुखर्जी के संघ में जाने से कांग्रेसियों की 'लिबरल' रूह कांप क्यों रही है?

तुम्हारे पास अपनी विचारधारा है और मेरे पास अपनी।

-   खलील जिब्रान

पिछले कई दिनों से देश में विचारधाराओं का एक जुबानी संघर्ष देखने को मिल रहा है। वजह है कि देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी 7 जून को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हैं। इसके लिए वह नागपुर में हैं।

इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। लोग अलग-अलग धड़ों में बंटे हुए हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर विरोधी विचारों के प्रति सहिष्णु होने तक का विमर्श जारी है। हालांकि चीजें इस पर ज्यादा निर्भर करेंगी कि प्रणब मुखर्जी वहां क्या कहते हैं।

कांग्रेस में उहा-पोह की स्थिति

सिर्फ प्रणब मुखर्जी को लेकर ही नहीं कांग्रेस में इस वक्त विचारधारा को लेकर भी उहा-पोह की स्थिति है। पिछले कई दिनों में कई नेताओं ने प्रणब मुखर्जी को पत्र लिखा कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। यहां तक कि मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने उन्हें आगाह किया। शर्मिष्ठा ने ट्वीट कर कहा, “आज के मामले को देखकर आपको अंदाजा लग गया होगा कि भाजपा किस प्रकार से गंदा खेल खेलती है। यहां तक की आरएसएस भी इस बात पर भरोसा नहीं करेगा कि आप अपने भाषण में उनके विचारों का समर्थन करेंगे। लेकिन भाषण को भुला दिया जाएगा और तस्वीरें हमेशा के लिए बनी रहेंगी, जिसे फर्जी बयान के साथ हमेशा ही फैलाया जाता रहेगा।”

कांग्रेस की यह दुविधा कई हद तक जायज मालूम होती है। कांग्रेस के अंदर अपनी छवि को लेकर बेचैनी दिख रही है। नेहरू के समय से कांग्रेस सेक्युलर, लिबरल मूल्यों की ध्वजवाहक रही है। हालांकि उस पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप भी लगते रहे हैं। इससे चिंतित कांग्रेस ने खुद गुजरात, कर्नाटक में सॉफ्ट हिंदुत्व का फॉर्मूला अपनाया। राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर घूमना और जनेऊधारी हिंदू होने का दावा करना सबको याद है।

ऐसे में लिबरल होने के दावों के बीच यह सामान्य बात है कि विरोधी विचारधारा के साथ बातचीत की जाए। लेकिन आरएसएस जिस हार्डलाइन हिंदुत्व की राह पर चलता है, उससे कांग्रेस बचना चाहती है। राहुल गांधी लगातार अपने भाषणों में संघ पर सीधा हमला बोलते हैं। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब ‘व्हाय आई एम ए हिंदू’ पर बातचीत करते हुए कहा था कि हमें हिंदू धर्म के कोर वैल्यू की तरफ लौटना होगा और उसे कट्टरपंथियों के हाथ में पड़ने से बचाना होगा।

विरोधी विचारों से संवाद

इस देश में तमाम विचारधाराओं में संघर्ष चलता ही रहता है लेकिन कई बार लोग साथ भी आते हैं। हाल ही में कर्नाटक चुनाव के बाद कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के दौरान मंच की तस्वीर लोगों के जहन में ताजा है। पश्चिम बंगाल में गलाकाट प्रतिस्पर्धा रखने वाले टीएमसी, सीपीएम, यूपी से सपा-बसपा और कई विरोधी विचारों वाले दल एक साथ दिखे थे। उसके सियासी और चुनावी मतलब हैं लेकिन अगर ये दल आपस में संवाद कर सकते हैं तो सवाल उठना लाजिमी है कि संघ के साथ ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता?

इसके जवाब में कहा जा रहा है कि वर्तमान दौर में देश में घट रही तमाम घटनाओं के पीछे संघ की विचारधारा काम कर रही है। दलितों, अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं, विरोधी विचारधारा वालों को तुरंत नक्सली बता दिया जाता है। ऐसे में कोई भी पार्टी संघ से अपना या अपने किसी नेता का नाम जोड़े जाने से बचना चाहेगी।

कांग्रेस के लिए यह समय भी परीक्षा वाला है। शर्मिष्ठा मुखर्जी का जो डर है, वो बहुत से लोगों का डर है। इसका इस्तेमाल संघ अपने हक में कर सकता है। बातों से ज्यादा तस्वीरों का महत्व होगा। राजनीति में प्रतीकों और चीजों को ‘बिटविन द लाइन’ पढ़ने पर काफी जोर होता है।

आरएसएस को कांग्रेस से कोई दिक्कत क्यों नहीं है

इतिहास बताता है कि आरएसएस को कांग्रेस से पहले भी बहुत दिक्कत नहीं रही है। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी एक लेख में लिखती हैं कि आरएसएस ने कई बार कांग्रेस का समर्थन किया है। संघ ने दिल्ली और जम्मू-कश्मीर के चुनाव में इंदिरा गांधी का समर्थन किया था। इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी का भी संघ ने समर्थन किया। हालांकि इसकी कई वजहें हो सकती हैं। एक वजह है कि संघ खुद की स्वीकार्यता बढ़ाना चाहता है। 2005 में आरएसएस के सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने एक टीवी इंटरव्यू में इंदिरा गांधी की तारीफ करते हुए उन्हें भारत की सबसे बड़ी लीडर बताया था।

कांग्रेस और संघ के बीच दूरियां भले रही हैं लेकिन कई बार इनके सिरे आपस में मिलते भी हैं। इसके लिए एक बात का बार-बार जिक्र किया जाता है।1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान संघ की भूमिका से नेहरू इतने प्रभावित हुए कि 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में संघ को आमंत्रित किया था। उस वक्त 3000 स्वंयसेवकों गणवेश के साथ परेड में हिस्सा लिया था।

 प्रणब मुखर्जी के मुद्दे पर ‘आउटलुक’ को हाल ही में दिए इंटरव्यू में संघ विचारक गोविंदाचार्य कहते हैं कि इससे संघ को अपनी छवि सुधारने में मदद मिलती है। वह कहते हैं, ‘गांधी की हत्या के बाद लोगों के मन में आरएसएस को लेकर खराब छवि है। हमें इन मुश्किलों से बाहर आने में काफी कठिनाई झेलनी पड़ी। हमें कार्यक्रमों में ऐसे लोगों की जरूरत थी ताकि लोग हमसे अच्छे रूप में जुड़ाव महसूस कर सकें। हमें दूसरी राजनीतिक पार्टियों से इस सर्टिफिकेट की जरूरत है। लोग जान सकें कि आरएसएस हिंसा का समर्थक नहीं है बल्कि शांति का संदेशवाहक है। समाज में आरएसएस की इस खराब छवि को सुधारने के लिए ऐसे कार्यक्रम हर साल आयोजित किए जाते हैं। आरएसएस पर बैन लगाया गया था और ये बात अब भी आरएसएस काडर को सताती है। इसे ठीक करने की जरूरत थी और अब चीजें हमारे पक्ष में हैं। आरएसएस खुद का विस्तार करने और अच्छे संबंधों का निर्माण करने को लेकर हमेशा सकारात्मक रहा है।‘ उन्होंने कहा कि पहले भी संघ कई पार्टियों के नेताओं को अपने कार्यक्रमों में बुलाता रहा है।

जनता परिवार के नेता और इंदिरा सरकार के खिलाफ मुखर रहने वाले जयप्रकाश नारायण ने खुद संघ की तारीफ की थी। इमरजेंसी के दौर से पहले तक संघ बुरे दौर से गुजर रहा था। गांधी की हत्या के बाद उस पर बैन लगाया गया था और उस पर फासिस्ट होने के आरोप थे। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान जनसंघ के साथ-साथ आरएसएस पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।

ऐसे वक्त में जयप्रकाश नारायण का एक बयान संघ के लिए सुखद रहा। तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने नारायण की तुलना महात्मा गांधी से की थी। तब जयप्रकाश नारायण ने जनसंघ (अब भाजपा) के एक कार्यक्रम में कहा था, ‘अगर आरएसएस फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं।‘ लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद फिर से संघ की पुरानी छवि लौट आई।

ऐसे दौर में जब संघ के ज्यादातर स्वयंसेवक महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए हैं, संघ अपनी छवि को लेकर फिर चिंतित हुआ है। रमजान में इफ्तार पार्टी से लेकर प्रणब मुखर्जी को बुलाने तक, ये कोशिशें इसका प्रमाण हैं।

प्रणब मुखर्जी की निजी महत्वाकांक्षा

राजनीति में कुछ भी हो सकता है, इसलिए इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं कि इस वक्त सबसे मजबूत संगठन से नजदीकियां बढ़ाकर प्रणब मुखर्जी निजी हित साधना चाह रहे हैं। जब प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे, तब भी उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत से दो बार मुलाकात की थी। मोदी सरकार से उनके रिश्ते अच्छे रहे। पीएम मोदी ने उन्हें अपना ‘मेंटर’ तक बताया था।

यह भी कहा जा रहा है कि पीएम मोदी संघ के हिसाब से नहीं चल रहे हैं और अधिकतर फैसले खुद ही कर रहे हैं। ऐसे में संघ की तरफ से दबाव की कोई राजनीति खेली जा रही हो, ऐसी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

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