1857 का वर्ष भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का प्रारम्भिक बिंदु माना जाता है। मंगल पांडे इस संग्राम की चिंगारी को हवा देने वाले पहले वीर सपूत थे। उन्होंने अंग्रेजों के अन्याय और धार्मिक अपमान के विरुद्ध आवाज़ उठाई, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें 8 अप्रैल 1857 को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
विद्रोह की शुरुआत
29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी में एक ऐतिहासिक घटना घटी। 34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही मंगल पांडे ने अंग्रेज अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उन्होंने लेफ्टिनेंट बौ और सार्जेंट हेव्सन पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया। जब उनके साथी सैनिकों से मदद की उम्मीद की गई, तो अधिकांश ने साथ देने से मना कर दिया, लेकिन मंगल पांडे डटे रहे। इस पूरी घटना के चश्मदीद गवाह हवलदार शेख पलटू के मुताबिक, पांडे ने हेव्सन पर गोली चलाई, लेकिन यह गोली उन्हें नहीं लगी।
ब्रिटिश इतिहासकार रिचर्ड फॉर्स्टर ने अपने शोध पत्र "Mangal Pandey: Drug-Crazed Fanatic or Canny Revolutionary?" में लिखा है कि मंगल पांडे के कार्यों को अक्सर नशे में की गई हिंसा के रूप में देखा गया है, लेकिन यह दृष्टिकोण ब्रिटिश औपनिवेशिक सोच का परिणाम है। फॉर्स्टर के अनुसार, मंगल पांडे के विद्रोह को केवल धार्मिक कारणों से जोड़ना उचित नहीं है; इसके पीछे सामाजिक और राजनीतिक असंतोष भी था।
गिरफ्तारी और सुनवाई
विद्रोह के तुरंत बाद मंगल पांडे को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजी सरकार ने इस घटना को गंभीरता से लिया और उन्हें एक अनुकरणीय सजा देने का निर्णय लिया ताकि अन्य भारतीय सैनिक डर के मारे विद्रोह न करें। मंगल पांडे पर न्यायालय में मुकदमा चलाया गया, जहाँ उन्हें राजद्रोह और ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला करने के अपराध में दोषी पाया गया।
फांसी की तिथि और बदलाव
शुरुआत में मंगल पांडे को 18 अप्रैल 1857 को फांसी देने का निर्णय हुआ था। लेकिन अंग्रेज अधिकारियों को डर था कि इतने दिनों तक ज़िंदा रहने से उनकी लोकप्रियता और विद्रोह की भावना और अधिक फैल सकती है। इसलिए उन्होंने जल्दबाज़ी में फांसी की तारीख बदलकर 7 अप्रैल 1857 कर दी। लेकिन जल्लादों ने मंगल पांडे को फांसी देने से मना कर दिया। अगले दिन कोलकाता से जल्लाद बुलाकर 8 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे को फांसी दी गई।
फांसी का दिन
8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे को फांसी दी गई। उस दिन बैरकपुर की हवा में विद्रोह की गूंज थी। मंगल पांडे ने बिना किसी भय के फांसी को गले लगाया। वह अंतिम क्षण तक निडर रहे, और उनके होंठों पर देशभक्ति की भावना साफ झलक रही थी।
प्रसिद्ध इतिहासकार सुरेंद्रनाथ सेन अपनी पुस्तक "Eighteen Fifty-Seven" में बताते हैं कि 1857 का विद्रोह कोई अचानक हुई घटना नहीं थी बल्कि यह ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ भारतीयों के गहरे असंतोष का परिणाम था। वे इस संग्राम में मंगल पांडे, नाना साहेब, रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे जैसे वीर नेताओं की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जिन्होंने इसे एक संगठित विद्रोह का रूप दिया।
ब्रिटिश हुकूमत ने मंगल पांडे के साहस और विद्रोह को कमज़ोर साबित करने की पूरी कोशिश की। उन्होंने यह प्रचारित किया कि पांडे ने विद्रोह "नशे की हालत" में किया, ताकि उनके क्रांतिकारी कदम को एक तात्कालिक, भावनात्मक या अराजक हरकत के रूप में पेश किया जा सके—न कि एक गंभीर सामाजिक या राजनीतिक विरोध के रूप में। लेकिन यह सोच उस गहरी औपनिवेशिक मानसिकता को उजागर करती है, जिसमें भारतीयों को कमजोर, असंगठित और असभ्य समझा जाता था।
मंगल पांडे का विद्रोह सिर्फ एक सिपाही की नाराज़गी नहीं थी—यह उस ज्वाला की पहली चिंगारी थी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला देने वाले संग्राम को जन्म दिया। उनकी फांसी ने आने वाले वर्षों में हजारों लोगों को प्रेरणा दी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।