राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के आज 100 वर्ष पूर्ण हो गए। हिंदू समाज को एकजुट करना और लोगों का चरित्र निर्माण करना, आरएसएस के प्रमुख मूल्यों में रहा है। संघ को अलग अलग समय पर अलग अलग सरसंघचालकों का दृष्टिकोण प्राप्त हुआ, जो विविध क्षेत्रों से आए थे। उन्होंने अपनी कार्यशैली से संगठन पर अमिट छाप छोड़ी है।
सन 1925 में नागपुर में दशहरे (27 सितंबर) के अवसर पर ही महाराष्ट्र के एक चिकित्सक केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शुरुआत एक शाखा से की गई थी। पत्रकार सुधीर पाठक के अनुसार, पिछले 100 वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छह सरसंघचालकों या प्रमुखों में से प्रत्येक ने अनेक मुद्दों से निपटने में संगठन के दृष्टिकोण में परिवर्तन किए और बदलते समय के साथ तालमेल बनाए रखने का प्रयास किया।
यद्यपि हेडगेवार ने 1925 में आरएसएस की स्थापना की थी, लेकिन सरसंघचालक के रूप में उनके नाम की घोषणा चार साल बाद 10 नवंबर, 1929 को की गई थी। हेडगेवार पूर्व में कांग्रेस के भी पदाधिकारी रहे लेकिन अपना स्वतंत्र रास्ता तय करने से पहले उन्होंने 1920 में नागपुर में आयोजित पार्टी सम्मेलन में भाग लिया था। इसके बाद, 1930 में 'जंगल सत्याग्रह' में भाग लेने के कारण उन्हें जेल में डाल दिया गया था और जब हेडगेवार जेल में थे, तब डॉ. एल.वी. परांजपे कुछ समय के लिए सरसंघचालक थे।
गौरतलब है कि हेडगेवार ने 17 अन्य लोगों के साथ मिलकर आरएसएस की स्थापना की थी। इसकी शुरुआत नागपुर के महाल में न्यू शुक्रवारी इलाके में स्थित अपने निवास 'हेडगेवार वाड़ा' से हुई। संगठन का औपचारिक नाम कुछ महीने बाद 26 सदस्यों की एक बैठक में तय किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरीपटका मंडल और भारतद्वारक मंडल - ये वो तीन नाम थे जो अंतिम रूप से चुने गए थे।
बाद में, आरएसएस नाम को 20, जरीपटका मंडल को 5 और भारतद्वारक मंडल को 1 वोट मिला। इसी तरह, संगठन का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा गया। आरएसएस से जुड़े अखबार 'तरुण भारत' के पूर्व संपादक पाठक ने पीटीआई-भाषा से बात करते हुए बताया कि शुरुआती शाखाएं नागपुर के इतवार दरवाज़ा स्कूल के सामने वाले मैदान में लगती थीं। जैसे-जैसे स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ी, ये शाखाएं नागपुर के 'मोहिते वाड़ा' में लगने लगीं।
पहली बार 18 फरवरी, 1926 को नागपुर के बाहर वर्धा में शाखा शुरू हुई थी। आज तक आरएसएस की 83,000 से अधिक शाखाएं हैं जिनमें लाखों स्वयंसेवक हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस मूल इकाई में स्वयंसेवक सामुदायिक सेवा और शारीरिक व्यायाम जैसी गतिविधियों में भाग लेने के लिए मिलते हैं।
बता दें कि हेडगेवार ने 1939 में वर्धा जिले के सिंदी में आरएसएस की अपनी अंतिम बैठक में भाग लिया था, जो अधिकारी प्रशिक्षण शिविर (ओटीसी) था, जिसमें संगठन के संबंध में तीन महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे।
पाठक ने बताया कि सबसे पहले, आरएसएस की प्रार्थना - 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे' - जिसमें पहले केवल दो छंद थे, को एक स्कूल शिक्षक एनएन भिड़े द्वारा लिखित एक पूरी नई प्रार्थना में बदल दिया गया। दूसरा, स्वयंसेवकों के लिए एक नई गणवेश बनाने का निर्णय लिया गया। तीसरा, यह निर्णय लिया गया कि आरएसएस के आदेश अंग्रेजी के बजाय संस्कृत में जारी किए जाएँगे।
हेडगेवार का निधन 21 जून 1940 को हो गया, लेकिन अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने माधवराव सदाशिव गोलवलकर (34), जिन्हें 'गुरुजी' के नाम से जाना जाता था, को नया सरसंघचालक नियुक्त किया। गोलवलकर ने अगले तीन दशकों तक आरएसएस को आकार देने और संगठन पर पहले प्रतिबंध के झटकों से उसे उबारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि, 1973 में गोलवलकर का निधन हो गया था, लेकिन उससे पहले उन्होंने चार पत्र लिखे थे। इनमें से एक में उन्होंने अपने उत्तराधिकारी बालासाहेब देवरस का नाम घोषित किया था, जिन्होंने आपातकाल के दौरान (1975-77) संघ का नेतृत्व किया था। देवरस के सामने आपातकाल पहली बड़ी चुनौती थी, जब सभी शाखाएं बंद कर दी गईं और उन्हें गिरफ्तार कर पूना (अब पुणे) की यरवदा सेंट्रल जेल भेज दिया गया।
पाठक के अनुसार, जब आपातकाल हटा लिया गया और देवरस जेल से बाहर आए तो उन्होंने 'भूल जाओ और माफ कर दो' का दृष्टिकोण अपनाया। देवरस ने कहा था, "हमें भूल जाओ और माफ़ कर दो की नीति अपनानी चाहिए। आपातकाल नहीं लगना चाहिए था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम उसके ख़िलाफ़ होंगे।"
उन्होंने खुद को एक समाज सुधारक के रूप में स्थापित किया और जातिगत भेदभाव और छुआछूत का कड़ा विरोध किया। उन्होंने प्रसिद्ध रूप से घोषणा की, "अगर अस्पृश्यता गलत नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है," और आगे कहा, "हम सब एक हैं और हिंदू हैं।"
पाठक ने उल्लेख किया कि देवरस ने आरएसएस के आधार और प्रभाव को व्यापक बनाने के लिए पिछड़े वर्गों और वंचित लोगों को अपने साथ जोड़ा।
पाठक ने बताया कि बीमार देवरस ने दशकों पुरानी परंपरा तोड़ते हुए घोषणा की कि प्रोफेसर राजेंद्र सिंह, जिन्हें रज्जू भैया के नाम से जाना जाता है, उनके उत्तराधिकारी होंगे। आरएसएस के इतिहास में यह पहली बार था कि सरसंघचालक ने जीवित रहते हुए किसी उत्तराधिकारी की घोषणा की।
पाठक ने बताया कि 1994 से 2000 तक सरसंघचालक रहे सिंह, एक खगोल भौतिक विज्ञानी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। वे पहले गैर-महाराष्ट्रियन आरएसएस प्रमुख थे। उनके स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर के.एस. सुदर्शन को नियुक्त किया गया। सुदर्शन के नेतृत्व में समाज के ज़्यादा से ज़्यादा वर्ग आरएसएस से जुड़े। पाठक ने बताया कि सुदर्शन ने मुसलमानों तक पहुँच बनाई, उनसे बातचीत की और उन्हें आरएसएस मुख्यालय में आमंत्रित किया। उन्होंने कहा कि इसी प्रकार उन्होंने ईसाइयों के साथ भी बातचीत की।
वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत, जिन्हें आधुनिकीकरण के रूप में देखा जाता है, ने आरएसएस का विस्तार किया और दिल्ली में व्याख्यान श्रृंखला आयोजित की, जिसमें उन्होंने सभी क्षेत्रों के लोगों को आमंत्रित किया।
पिछले महीने भागवत के 75वें जन्मदिन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी बौद्धिक गहराई और सहानुभूतिपूर्ण नेतृत्व के लिए उनकी प्रशंसा की थी और घोषणा की थी कि 2009 से आरएसएस प्रमुख के रूप में उनका कार्यकाल संगठन की 100 साल की यात्रा में सबसे परिवर्तनकारी अवधि माना जाएगा।