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नेहरू की हठ के चलते अधूरा अशोक स्तंभ बना राष्ट्रीय प्रतीक

अशोक स्तंभ का जो स्वरुप हमारा राष्ट्रीय चिह्न है, वह अशोक स्तंभ का वास्तविक स्वरुप नहीं है। दरअसल असल अशोक स्तंभ में एक चक्र ऊपर भी था जिसमें 32 तीलियां थीं। जब अशोक स्‍तंभ को राष्‍ट्रीय चिह्न के तौर पर अपनाया जा रहा था तब एक सांसद ने इस ओर नेहरू का ध्यान आकृष्ट भी कराया लेकिन उन्‍होंने इसकी अनदेखी कर दी थी।
नेहरू की हठ के चलते अधूरा अशोक स्तंभ बना राष्ट्रीय प्रतीक

कोलकाता के भव्य एकदलिया रोड पर स्थित मुखर्जी के घर में रात के खाने के बाद चार पीढिय़ों से एक ही विषय पर चर्चा चल रही है। प्रदीप्त मुखोपाध्याय आउटलुक से बातचीत में बताते हैं, ‘मेरे दादा अक्सर बताते थे कि नेहरू ने जब एक खंडित प्रतीक को हमारे देश के राष्ट्रीय चिह्न के रूप में मंजूरी दी थी तो वह कितना अचंभित हुए थे।’ जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में राज्यसभा सांसद, विद्वान और इतिहासकार रहे राधा कुमुद मुखर्जी के पोते प्रदीप्त मुखोपाध्याय अपने दादा और प्रथम प्रधानमंत्री के बीच आदान-प्रदान हुए पत्रों और दस्तावेज को सहेज कर रखे हुए हैं। इन दस्तावेज से पता चलता है कि देश के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकृत अशोक स्तंभ दरअसल मूल प्रतीक की प्रतिकृति नहीं बल्कि खंडित रूप है। इतना ही नहीं, नेहरू ने इस बारे में जानने की भी कोशिश नहीं की बल्कि जब मुखर्जी ने इस ओर ध्यान दिलाया तो उन्होंने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। मुखर्जी ने इसमें संशोधन के लिए हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था। 

नेहरू को 27 अगस्त, 1957 में लिखे पत्र में राधा कुमुद ने लिखा, ‘हमें यह जानने के बाद बहुत फिक्र है कि हमारा राष्ट्रीय प्रतीक जो अशोक चक्र के नाम से जाना जाता है, वह सारनाथ के स्तंभ की असल प्रतिकृति नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात कि इस मूल प्रतीक के महत्व को खंडित रूप में पेश किया गया है।’ उस जमाने के प्रभावशाली नेताओं-हीरेन मुखर्जी, किशनचंद और सुचेता कृपलानी सहित नौ अन्य सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित इस पत्र में उन्होंने प्रतीक की बड़ी त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाया था: ‘ऐसा लगता है कि मूल रूप में चार शेरों के कंधों पर 32 तीलियों वाला चक्र टिका हुआ है। मूल विचारधारा थी कि आध्यात्मिक ताकत प्रदर्शित करने वाला सच्चाई का यह चक्र चार शेरों के ऊपर होना चाहिए जो भौतिक ताकत को दर्शाता है। (हालांकि) इस बात के साक्ष्य हैं कि शीर्ष पर स्थित यह चक्र उस डंडे से निकल चुका है जिस पर यह टिका था और सारनाथ संग्रहालय में भी आप इस शीर्ष के बगैर शेर का सिर देख सकते हैं।’ 

बंगाली ऐतिहासिक शोध पर आधारित पाक्षिक पत्रिका देशकाल के संपादक श्यामलाल घोष ने इस विषय पर कई लेख लिखकर इस जटिल मुद्दे को समझाया है और लोगों की जानकारी में लाया है। वह बताते हैं कि 1949 में संविधान सभा की बहस के दौरान ही अशोक चक्र को राष्ट्र चिह्न के रूप में स्वीकार करने का फैसला किया गया। नेहरू ने इस सभा की अध्यक्षता की थी। इस ‘चक्र’ को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार करने तथा राष्ट्रीय झंडे में इसके इस्तेमाल को लेकर उन लोगों में कुछ असहमति भी थी जो यह समझते थे कि इसका धार्मिक निहितार्थ कुछ ज्यादा है। लेकिन नेहरू की दलील थी कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक अभिन्न प्रतीक है और इसलिए इसे राष्ट्रीय झंडे और राष्ट्रीय प्रतीक दोनों के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए। सदन के ज्यादातर सदस्यों का भी यही नजरिया था। यह ‘चक्र’ प्राचीन बौद्ध सिद्धांतों का पालन करने वाले साम्राज्य का भी प्रतीक था जिसे सम्राट अशोक के काल में शांति और शक्ति का प्रतीक माना गया था। घोष बताते हैं, ‘अशोक स्तंभ उत्तर प्रदेश के सारनाथ के खंडहरों में मिला था जिसमें कई सारे चक्र बने हुए थे इसलिए यह सबसे उपयुक्त विकल्प था।’

असली अशोक स्तंभ के वृताकार आधार पर एक हाथी, एक बैल, एक घोड़े और एक शेर की चित्रकारी की गई है। प्रत्येक चित्र के बाद चक्र है और 24 तीलियों वाला एक पहिया है जो 24 ‘आचारी धर्म’ यानी जीवन के तौर-तरीकों का प्रतीक है। घोष के मुताबिक, सन 1949 में संविधान सभा की बहस के फैसले के अनुसार भारतीय तिरंगे और राष्ट्रीय प्रतीक के चार शेरों के कंधों पर चक्र रखने का मकसद इसे महाधर्म चक्र बनाना था जिसमें 32 तीलियां होती हैं। घोष बताते हैं, ‘यह चक्र बौद्ध सिद्धांतों पर आधारित है जिसमें ‘चार सत्य’ और जीवन के ‘8 तौर-तरीके’ ( 4 गुणा 8 यानी 32) होते हैं। वास्तविक अशोक स्तंभ में चार शेरों के कंधों पर ऐसा एक ही चक्र है, जिस बारे में राधा कुमुद मुखर्जी और उनके सांसद मित्रों ने नेहरू को पत्र लिखा था। राष्ट्रीय प्रतीक की प्रतिकृति तैयार करने के लिए जब डिजाइनरों को सारनाथ भेजा गया था तो यह महाधर्म चक्र या तो गायब हो गया होगा या गिर गया होगा, जैसाकि राधा कुमुद बताते हैं।’

सन 1963 में प्रदीप्त के दादा का 83 साल की उम्र में जब निधन हुआ था तो वह 12 साल के थे। वह बताते हैं कि उनके दादा सही और गलत की समझ रखने वाले सिद्धांतवादी व्यक्ति थे। उन्हें बेईमानी या तुच्छता बर्दाश्त नहीं थी, खासकर जब हमारे राष्ट्रीय प्रतीक का महत्व हो। वह अक्सर भारत की छवि एक ऐसे देश के रूप में कायम रखने की जरूरत पर जोर देते थे, जो सहिष्णुता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ ताकत और निडरता के लिए जाना जाता हो। इसलिए वह इसे स्वीकार नहीं कर सके। 

 

अपने पत्र में राधा कुमुद ने लिखा, ‘हम समझते हैं कि अपने देश के प्रतीक को हमें इस रूप में नहीं स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यह एक ऐतिहासिक भूल थी। उस स्तंभ से चक्र निकल जाने की विशुद्ध दुर्घटना मूल ढांचे की संक्षिप्त प्रतिकृति के लिए न्यायसंगत नहीं हो सकती। इसके अलावा जिस चक्र को इस शीर्ष फलक पर अब उकेरा गया है, वह मूल ढांचे के महत्व और प्रतीक की व्याख्या नहीं करता है, जिसमें आध्यात्मिक मूल्यों की विशिष्टता पर जोर दिया गया है। यदि हम इस त्रुटि को सुधार लें तो यह हमारे सिद्धांतों और आदर्शों के अनुकूल होगा। अगर हम अशोक के आदर्शों को पुनर्जीवित करना चाहते और असल में हम ऐसा कर भी चुके हैं, तो हमें इस स्मृति चिह्न के विकृत आयाम वाले स्वरूप को जारी नहीं रखना चाहिए।’ प्रतीक में संशोधन की दिक्कतों के समझते हुए उन्होंने मशवरा देते हुए कहा और यहां तक कि पत्र में भी लिखा, बदलाव के खर्च का आकलन चंद लाख रुपये से ज्यादा का नहीं है। प्रदीप्त बताते हैं कि नेहरूजी के जवाब से मेरे दादा सन्न रह गए थे। इस बारे में उनके पिता और राधा कुमुद के पुत्र प्रद्युम्र ने एक बार बताया था कि उन्हें इस जवाब पर यकीन नहीं हो पाया। सिर्फ चार वाक्यों के जवाब में अगले ही दिन उन्होंने पत्र लिखा, जो नि:संदेह उनकी अनिच्छा को व्यक्त कर रहा था। उन्होंने लिखा कि इसमें बदलाव की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने 28 अगस्त 1957 को मुखर्जी को पत्र लिखा, ‘मुझे नहीं लगता कि इस प्रतीक को लेकर अब सवाल उठाने और कोई बदलाव करने की जरूरत रह गई है।’ मजे की बात है कि नेहरू ने अपने पत्र में पहले के उस मौके का भी जिक्र किया था जब राधा कुमुद ने उस त्रुटि की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था।   

 

 

 

 

 

 

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