बीते 28 मई को सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट सचिन जैन द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से पूछा था कि जब प्राइवेट अस्पतालों को रियायत दरों या मुफ्त में जमीन दी गई है तो वे इस महामारी के संकट में गरीब कोविड मरीजों का इलाज मुफ्त में या रियायत दरों पर क्यों नहीं कर सकते हैं? आउटलुक से बातचीत में सचिन जैन बताते हैं कि इस संकट में भी प्राइवेट हॉस्पिटल मुनाफाखोरी में लगे हुए हैं। इसलिए मैंने कोर्ट से एक रेगुलेशन की मांग की थी ताकि कोई गरीब मरीज जब किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में जाए तो उसे दस या बीस लाख का बिल न थमाया जाए। और यह हर बिमारी के इलाज को लेकर मांग की गई है।
प्राइवेट हॉस्पिटल या कॉर्पोरेट हॉस्पिटल को सरकार द्वारा आवंटित की जाने वाली जमीन को लेकर सचिन कहते हैं, "जब जमीन को आवंटित किया जाता है तो उस वक्त ये कॉर्पोरेट सरकार से कहते हैं कि 50 से 70 फीसदी बेड गरीबों के इलाज के लिए रखा जाएगा। दिल्ली में इस वक्त 26 हॉस्पिटल ऐसे है जो फ्री लैंड पर बने हुए हैं। लेकिन ये लोगों को सुविधा देने में असफल है।"
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरफ से एक ऐप लॉन्च किया गया है जिसमें सरकारी और प्राइवेट हॉस्पिटल में मौजूद कोविड बेड और स्थिति के बारे में जानकारी दी गई है। ऐप के मुताबिक इस वक्त राजधानी के आठ सरकारी में 5,461 कोविड बेड उपलब्ध हैं। जबकि 59 प्राइवेट हॉस्पिटल में 2,925 कोविड बेड मौजूद है। लेकिन इन प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराना आम आदमी की जेब से बाहर है।
आउटलुक ने दिल्ली के दो बड़े अस्पताल सर गंगाराम और अपोलो हॉस्पिटल में कोविड मरीज के इलाज में सामान्य आने वाले खर्च को लेकर मुआयना किया। सर गंगाराम के दो यूनिट में इस वक्त कोविड के 155 बेड हैं। एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि इडब्ल्यूएस कोटा के तहत दस फीसदी बेड रिजर्व है। सामान्य कोविड मरीजों को भर्ती होने से पहले 5 लाख जमा करना होता है। डिस्चार्ज होने तक यदि खर्च इससे कम आता है तो उसे रिफंड कर दिया जाता है। कोई मरीज यदि गंभीर स्थिति में भर्ती होता है तो डिस्चार्ज होने तक 15 से 16 लाख रूपए खर्च आते हैं। जबकि सामान्य लक्षण वाले मरीज का खर्च चार से पांच लाख रूपए होता है।
अपोलो हॉस्पिटल में भी यही बात है। बिलिंग डिपार्टमेंट का कहना हैं कि यहां मरीज के भर्ती होने के पहले 1.5 लाख रूपए जमा करना होता है। यदि मरीज गंभीर है, वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है तो खर्च 16 लाख रूपए के करीब आता है। हर दिन का खर्च एक लाख से ज्यादा भी आता है।
दिल्ली में बुधवार (3 जून) तक कोरोना वायरस संक्रमितों की संख्या 22,132 है जिसमें से 556 लोगों की मौत हो चुकी है और 12,333 एक्टिव मामले हैं। कोरोना से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र है। महाराष्ट्र सरकार ने कोरोना के संकट को देखते हुए राज्य के सभी प्राइवेट हॉस्पिटल को अपने नियंत्रण में ले लिया है और इलाज के खर्च को तय कर दिया है।
आउटलुक बातचीत में नालसार लॉ यूनिवर्सिटी, हैदराबाद के कुलपति फैजान मुस्तफा कहते हैं, "महाराष्ट्र की तरह हर राज्य को इस वक्त प्राइवेट हॉस्पिटल को अपने अधिकार में लेना चाहिए। जमीन लेते वक्त जो वादा सरकार से प्राइवेट हॉस्पिटल करते हैं उसे पूरा नहीं करते हैं। सरकार उन पर कार्रवाई नहीं करती हैं क्योंकि ये सभी हॉस्पिटल कॉरपोरट सेक्टर के हैं। जिस कंडिशन के तहत ये जमीन लेते हैं उसे भी पूरा नहीं करते हैं। मेरा ये मानना है कि जीडीपी का दो फीसदी खर्च करने से कुछ नहीं होगा। पब्लिक हेथ पर सरकार को ज्यादा से ज्यादा खर्च करना चाहिए। और इस महामारी में प्राइवेट हॉस्पिटल को भी आगे आना चाहिए।"
इलाज में लाखों के आ रहे खर्च को लेकर प्राइवेट हॉस्पिटल की अपनी दलील है। सर गंगा राम अस्पताल के सीनियर कंसल्टेंट डॉ. धीरेन गुप्ता कहते हैं, “एक दिन में पीपीई किट का खर्च दस से बीस हजार रूपए एक मरीज पर आता है। क्योंकि एक किट को डॉक्टर या नर्स लगातार 6 या 12 घंटे नहीं पहन सकते हैं। खास तौर से हमलोग सुपर स्प्रेडर हैं। कहीं भी चुक होती है तो कई अन्य संक्रमित हो सकते हैं। हॉस्पिटल को इसका वहन खुद से करना होता है इसलिए बिल में यह भी जोड़ा जाता है। प्राइवेट हॉस्पिटल में लोग अच्छे इलाज के लिए आते हैं। हॉस्पिटल का खर्च भी पहले से बढ़ गया है। अब एक कमरे में दो मरीज ही रह सकते हैं जो पहले चार थे। उसी जगह में आइसोलेशन वार्ड बनाने पड़े हैं जिससे जगह की कमी है। सरकार को प्राइवेट अस्पतालों को भी रियायत दरों पर पीपीई किट मुहैया करानी चाहिए।“
आगे डॉक्टर धीरेन कहते हैं, “डॉक्टर और नर्स को होटल में प्रबंधन की तरफ से आइसोलेट और क्वारेंटाइन में रखा जा रहा है। ओपीडी बंद रहा है जिसकी वजह से अस्पतालों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। इसका वहन कैसे होगा। सरकार कोई मदद नहीं कर रही है। कई मामले ऐसे आए हैं जिसमें मरीज को छोड़ परिवार वाले भाग जाते हैं। इसलिए पैसे पहले लिए जा रहे हैं।“
डॉ. धीरेन गुप्ता इस बात को स्वीकार करते हैं कि गरीबों की मदद होनी चाहिए। लेकिन वो कहते हैं कि इस घड़ी में सरकार और प्राइवेट हॉस्पिटल के बीच एक सुदृढ़ बातचीत कर सकारात्मक रास्ता निकाला जाना चाहिए। केंद्र को सेंट्रल सिस्टम बनाने की जरूरत है जो इसको मॉनिटर कर सके। हॉस्पिटल की अपनी मजबूरी है। एक दिन में 6 हजार रूपए में इलाज संभव ही नहीं है। यदि काम कर रहे कर्मचारियों को समय पर सैलरी नहीं मिलेगी तो वो कैसे खुद का निर्वहन कर सकते हैं? डॉ धीरेन कोटा को लेकर भी सवाल उठाते हैं। वो कहते हैं, “गरीबों के लिए तय दस फीसदी कोटा से इस वक्त काम नहीं चल सकता है।“
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंस के सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन एंड कम्यूनिटी हेल्थ की प्रोफेसर रितु प्रिया महरोत्रा कहती हैं, “सरकार और प्राइवेट हॉस्पिटल का रवैया देशहित में नहीं है। इन्हें एक रूपए की दर पर जमीन दी जाती है। फिर भी ये अपने किए गए वादे को पूरा नहीं करते हैं। वसूले जा रहे इलाज के खर्च संतोषजनक नहीं है। सरकार को इस महामारी में जल्द-से-जल्द कदम उठाने की जरूरत हैं।“