भारत दुनिया का सबसे बड़ा मांस निर्यात करने वाला मुल्क बन चुका है। गुलाबी क्रांति पर रोक के दावे करने वाली मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद मांस निर्यात आश्चर्यजनक तौर पर बढ़ा है। वित्त वर्ष 2014-15 में अप्रैल-दिसंबर के दौरान भैंसे के मांस का निर्यात पिछले साल 19.35 हजार करोड़ रुपये से बढक़र इस साल 22.98 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। करीब 19 फीसदी की बढ़ोतरी। सरकार गौ मांस निर्यात के आंकड़े अलग से जारी नहीं करती लेकिन मांस निर्यात में गौ मांस की हिस्सेदारी का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस अवधि में डेयरी उत्पादों का निर्यात करीब 3 हजार करोड़ रुपये से घटकर सिर्फ 16 सौ करोड़ रुपये के आसपास रह गया है।
गौ मांस पर कड़े प्रतिबंध का मुद्दा उस महाराष्ट्र से तूल पकड़ रहा है जो किसानों की खुदकुशी और कृषि संकट की जमीन रहा है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन टी. हक कहते हैं कि जिस तरह खेती के नुकसान की भरपाई डेयरी से होती है उसी तरह मांस उद्योग पशुपालन के पूरक उद्योग की तरह है। पुराने अनुभव यही बताते हैं कि पाबंदियां बढ़ने से अवैध कारोबार और भ्रष्टाचार ही फलता-फूलता है।
अकेले भैंस मीट का निर्यात पूरे कृषि निर्यात पर हावी है। अप्रैल-दिसंबर 2014-15 के दौरान भैंस मीट का निर्यात 1.1 लाख टन तक पहुंच गया जिसकी कीमत करीब 23 हजार करोड़ रुपये बैठती है। कृषि उत्पादों में सबसे ज्यादा बासमती चावल का निर्यात हुआ है जो 20.47 हजार करोड़ रुपये के आसपास है और भैंस मांस के निर्यात से कहीं कम है। उत्पादकता और रखरखाव में आसानी के चलते पशुपालकों का रुझान वैसे ही गाय के बजाय भैंस की तरफ तेजी से बढ़ रहा है। सन 2012 की पशुगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2007 के मुकाबले गाय की संख्या 6.52 फीसदी घटी है जबकि भैंस की आबादी 7.99 फीसदी बढ़ी है। फिर भी देश में करीब 12 करोड़ से ज्यादा गायें हैं जबकि भैंस की आबादी 8 करोड़ के आसपास है।
गौ मांस पर प्रतिबंधों का सिलसिला तेज हुआ तो बूढ़े और अनुत्पादक गौ वंश से पशुपालकों की आय का रास्ता बंद हो जाएगा जिससे गाय पालना घाटे का सौदा हो जाएगा। तब सडक़ों पर कूड़ा खाती लावारिस गायों की तादाद बढऩे लगे और वे रासायनिक जहर से मरने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। पशुपालकों को कोई विकल्प दिए बगैर गौ मांस पर प्रतिबंध गौ-अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकता है और प्रजाति के तौर पर गाय को भी संकट में डाल सकता है।