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नागरिकों की निजता में डीएनए की सेंध

डीएनए प्रोफालिंग बिल पर समिति की रिपोर्ट पूरी, सरकार बिल लाने की तैयारी में। भारत में भेदभावमूलक व्यवहार की लंबी परंपरा रही है और इसमें इस तकनीक का दुरुपयोग किया जा सकता है, जैसे घुमंतू जनजातियों-विमुक्त जनजातियों को अपराधी माना जाता रहा है। इसके अलावा आबादी के आधार पर भी भेदभाव किया जा सकता है और इससे जाति और धर्म राजनीति बहुत गहराई से प्रभावित होने की आशंका है। अल्पसंख्यक समुदाय पहले से ही प्रोफाइलिंग का शिकार है।
नागरिकों की निजता में डीएनए की सेंध


एक सवाल देश के वैज्ञानिकों, मानवाधिकार कार्यकताओं, सरकारी महकमों और खास तौर से विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधिकारियों को मथ रहा है कि क्या इस देश के नागरिकों की डीएनए प्रोफाइल (आनुवंशिकी प्रोफाइलिंग ) इक_ïा करने का हक सरकार को होना चाहिए। क्या यह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और उसकी निजता का हनन नहीं है। ये सारी बहसें डीएन प्रोफाइलिंग विधेयक 2012 के विभिन्न प्रावधानों पर चर्चा के लिए बनाई गई उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के अंतिम होने के बाद और तेज हो गई हैं। 
आउटलुक को मिली जानकारी के मुताबिक इस उच्च स्तरीय समिति के सभी सदस्यों ने अपनी टिप्पणी सौंप दी है और जल्द ही सरकार इस कानून को संसद में पेश करने की तैयारी में है। इसी बीच देश की सर्वोच्च अदालत में 2012 में दाखिल जनहित याचिका भी प्रस्तावित विधेयक से जोड़ दी गई है जिसमें बिना शिनाख्त हुए शवों का बाद में मिल जाने वाले लापता लोगों और गुमशुदा बच्चों तथा उनके परिजनों का डीएनए परीक्षण कराने की मांग की गई थी। हालांकि इसके याचिकर्ता अशोक धमीजा ने आउटलुक से बातचीत के दौरान बताया, 'हम सभी नागरिकों के डीएनए डाटाबेस को तैयार करने की बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि इसे निजता के उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है। हमारी मांग तो सिर्फ यह है कि उन्हीं लोगों के डीएनए एक जगह जमा किए जाए› जिनके शवों की शिनाख्त नहीं होती है। साथ ही गायब लोगों और उन बच्चों के परिजनों के डीएनए ही जमा किए जाएं जो गुम होकर फिर मिल जाते हैं। अशोक धमीजा का कहना है कि अगर इन लोगों का डीएनए प्रोफाइल रखा जाएगा तो परिजनों को सालो-साल तक दर-दर भटकना नहीं पड़ेगा। शिनाख्त के बगैर जो शव लावारिस जला दिए जाते हैं, उनके लिए इंसाफ की एक राह भी निकल सकती है। डीएनए प्रोफाइल के जरिए बिछड़े परिजनों का कम से कम अता-पता तो चल सकेगा।
इस जनहित याचिका में कहीं भी देश भर के तमाम नागरिकों का डीएनए प्रोफाइल करने की मांग नहीं की गई है, जैसा कि इस विधेयक में प्रस्तावित किया गया है। एक बहुत हैरान करने वाली बात तफ्तीश के दौरान पता चली कि अभी इस विधेयक पर चर्चा ने भी अंतिम रूप नहीं लिया है लेकिन भारत सरकार ने डीएनए डाटा के विशेलेषण के लिए अमेरिकी जांच एजेंसी फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (एफबीआई) से विशेष किस्म का सॉफ्टवेयर लेने का समझौता कर दिया है। आउटलुक को यह जानकारी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय में बायोटेक्नोलॉजी विभाग के हलफनामे से मिली। इस हलफनामे के अनुसार डीएनए डाटाबैंक में डीएनए फ्रोफाइलिंग डाटा की क्रॉस मैंचिंग के लिए एक विशेष किस्म के सॉफ्टवेयर की जरूरत होती है, जो अमेरिका के फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (एफबीआई) के पास है। इस सॉफ्टवेयर को हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायज्नॉस्टिक (सीडीएफडी) एफबीआई से हासिल करने की प्रक्रिया में है और यह उसे मुफ्त में मिल रहा है। इस बाबत अक्तूबर में एक संयुक्त वर्कशॉप आयोजन हो चुका है।  राष्ट्रीय डाटा डीएनए बैंक गठित करने के संबंध में इस तरह की आशंकाएं पहली भी जाहिर की जा चुकी हैं। अंतरराष्ट्रीय कानूनविद उषा रमानाथन का कहना है कि यह विधेयक अपने मूल रूप में ही नागरिकों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है। सबसे पहली बात यह कि जिस डीएनए साक्ष्य को अंतिम और अकाट्य मान लिया जाता है, वह उतना अकाट्य है नहीं क्योंकि संभाव्यता पर आधारित है। इससे भी बड़ी बात यह है कि डीएनए से हासिल जानकारी की व्याख्या की जाती है, यानी इसकी किस तरह से व्याख्या हो, यह भी व्याख्या करने वाले की दक्षता पर निर्भर करता है।
इन तमाम बातों के अलावा कई विशेषज्ञ, वैज्ञानिक और कानूनविद् यह भी मानते है कि डीएनए के सैंपल लेते समय हुई गड़बडिय़ों, मानवीय भूलोंं और रिपोर्टिंग या लेबलिंग में हुई गलतियों की वजह से सारी जांच ही उलट सकती है। जरा सी गड़बड़ी सारी जांच का बंटाधार कर सकती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण आरुषि हत्याकांड है, जिसमें डीएनए सैंपल में गड़बड़ी ने सारी जांच को अधर में लटका दिया। इस बात को बहुत करीब से देख रही अधिवक्ता रेबेका जॉन का कहना है कि डीएनए जांच पर बहुत अधिक निर्भरता खतरनाक हो सकती है क्योंकि भारत जैसे देश में घटनास्थल से  अपराध के जिस तरह से सबूत जुटाए जाते हैं उनमें ही इतनी गड़बड़ी हो जाती है कि डीएनए अंतिम साक्ष्य नहीं हो सकता। इनमें से बहुत से तथ्यों को मंत्रालय के हलफनामे में भी माना गया है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। इसमें कहा गया है कि देश में डीएनए विशेषज्ञ साल भर में 100 मामले एक साल में देख सकता है और जनहित याचिका के अनुसार देश भर में 40 हजार सैंपल की जांच करने के लिए 400 डीएनए विशेषज्ञ चाहिए। एक मामले की डीएनए जांच पर 20 हजार रुपये लगेंगे और 40 हजार बिना शिनाख्त वाले शवों की डीएनए प्रोफाइल पर 80 करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च आएगा। इसमें प्रयोगशाला और विशेषज्ञों का वेतन शामिल नहीं है। मंत्रालय ने तमाम अन्य सवालों पर भी चिंता जताई है।
मुद्दा सिर्फ सभी नागरिकों की डीएनएफ प्रोफाइलिंग और डीएनए डाटा बैंक पर आने वाली लागत का नहीं है। सवाल सैद्धांतिक है। सवाल इसकी जरूरत और उपयोगिकता का है। सवाल नागरिकों की निजता के हनन का है। साथ ही बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इस आंकड़े के बेजा इस्तेमाल की आशंका का भी है। अमेरिका और ब्रिटेन सहित कई देशों में ये सारे सवाल उठते रहे हैं। ब्रिटिश होम ऑफिस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2001 और 2006 में यूके नेशनल डीएनए डाटाबेस में 27.6 फीसदी जो मैच खोजे गए वे एक से अधिक व्यक्तियों के थे। इसकी वजह यह बताई गई कि अपराध की जगह से जो सैंपल प्रोफाइल लिए गए, वे आंशिक थे। इसलिए वे किसी दूसरे के डीएनए प्रोफाइल से मिल सकते थे। इसी तरह से अपराधियों के डीएनए प्रोफाइलिंग को लेकर भी कई गंभीर सवाल उठ रहे रहे हैं, जिन्हें नजरंदाज करना संभव नहीं है। डीएनए प्रोफालिंग विधेयक के प्रावधानों में अपरााधियों की शिनाख्त में इसका इस्तेमाल करने की बात है। आउटलुक को मिली जानकारी के अनुसार, नागरिक स्वतंत्रता और दलित अधिकार कार्यकर्ताओं ने जनसंख्या की डीएनए प्रोफाइलिंग का सख्त विरोध किया है। उन्होंने इसकी स्पष्ट वजहें भी गिनाई है- भारत में भेदभावमूलक व्यवहार की लंबी परंपरा रही है और इसमें इस तकनीक का दुरुपयोग किया जा सकता है, जैसे घुमंतू जनजातियों-विमुक्त जनजातियों को अपराधी माना जाता रहा है। इसके अलावा आबादी के आधार पर भी भेदभाव किया जा सकता है और इससे जाति और धर्म राजनीति बहुत गहराई से प्रभावित होने की आशंका है। अल्पसंख्यक समुदाय पहले से ही प्रोफाइलिंग का शिकार है।

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