यकीनन 15 अगस्त 1947 को आजादी के साथ ही, बकौल पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, हमने अपनी "नियति से साक्षात्कार" भी किया। उसी नियति को हमारे महानायकों ने संविधान के रूप में संहिताबद्घ किया। हमारा संविधान आजादी की लड़ाई से उपजी वैचारिकी का ही नहीं, बल्कि हमारी पूरी सभ्यता का निचोड़ है, जो हमें एकसूत्र में बांधे रखने और हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक आजादी के गणतंत्र की रूपरेखा तय करता है। हालांकि उसके पहले हमारे अंग्रेज हुक्मरान इस मुगालते में थे कि यहां इतने धर्म, इतने समुदाय, इतनी जातियां, इतनी भाषाएं हैं कि उसे एक सूत्र में बांधे रखना मुश्किल नहीं, नामुमकिन होगा। उनकी मंशा कुछ हद तक धर्म के आधार पर देश के बंटवारे में फलीभूत भी हुई और विभाजन के बाद कई इलाकों में दंगे भड़क उठे। हजारों लोगों ने जान गंवाई। पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के बाद जैसी त्रासदी भारत ने देखी, वैसी त्रासदी बीसवीं सदी में शायद ही किसी अन्य मुल्क ने देखी। फिर, आजादी के छह महीने के भीतर महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी। इन तमाम घटनाओं के कारण दुनिया भर में खासकर पाश्चात्य देशों में ऐसी धारणा बनी कि भारत में गृहयुद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता।
भारत के लिए वह निश्चित रूप से बहुत बड़ी चुनौती थी। आजादी के बाद कई राजे-रजवाड़ों और नवाबों ने भारत की संप्रभुता को स्वीकारने से इनकार कर दिया। देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने शुरुआती समस्याओं से जैसे बिना खून-खराबे के निजात पाई, वह भी हमारे देश के लोगों के उसी संकल्प का उदाहरण था, जो हमारे संविधान में परिलक्षित है। इससे तब अधिकतर पाश्चात्य विश्लेषक कुछ हैरान भी थे। लेकिन वह इस तथ्य का भी इजहार था कि हमारा गणतंत्र उस सामूहिक इच्छा का मूर्त रूप है, जिसकी परिकल्पना संविधान करता है। आज हमारा संविधान 75 वर्ष का होने जा रहा है और इस बीच कई ऊंच-नीच भी देख चुका है।
बेशक, पिछले साढ़े सात दशक में देश निरंतर विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है और इसी की बदौलत उसकी गिनती आज विश्व के सबसे मजबूत लोकतंत्र के रूप में की जाती है। अंग्रेज हमारी जिस विविधता और अनेकता को देश की एकता के लिए खतरा बता रहे थे, वही दरअसल हमारे लोकतंत्र की विशेषता बनी हुई है। यह एक मायने में दुनिया में अपने तरह का अनोखा योगदान है। अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाले यहां के लोग भले ही विभिन्न संस्कृतियों और रीती-रिवाजों को मानने वाले हों, भले ही उनकी भाषाएं अलग-अलग हों, लेकिन देश की अखंडता और एकता के नाम पर वे सभी एक सूत्र में बंधे हैं। यही भारतीय लोकतंत्र की ताकत है। जहां भारत के कई पड़ोसी देशों में लोकतंत्र का प्रयोग सफल नहीं हो पाया, भारत में आम लोगों द्वारा चुनी गयी सरकार का शासन बदस्तूर जारी रहा। यहां कभी सेना ने बहुमत द्वारा चुनी गई सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश नहीं की। 1975 में एक बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जरूर इमरजेंसी लगाकर हमारे संविधान और गणतंत्र के स्वरूप को बदलने की कोशिश की लेकिन देश की जनता ने अगले चुनाव में उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। उससे एक बात और पुख्ता हुई कि भारत के लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर बेहद सजग हैं। देश का संविधान उनके लिए सर्वोपरि है और अपने मौलिक अधिकारों से उसे किसी तरह की छेड़छाड़ पसंद नहीं।
निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि देश का संविधान ही है जिसने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ों को सींचा है। यह देश का संविधान ही है जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र की साख दुनिया भर में बढ़ी है। हालांकि समय-समय पर सरकारों की अपनी सत्ता-सुविधा और राजनीति के लिए बदलाव की कोशिशों की मिसालें भी हैं। इसी मायने में संविधान के प्रति लगातार सजग रहने की दरकार है। पिछले आम चुनाव में संविधान खुद भी मुद्दा बन गया। लेकिन लोगों ने जाहिर कर दिया कि संविधान और उसमें निहित मूल तत्व लोकतंत्र की संजीवनी हैं और भविष्य में भी रहेंगे।
संविधान लागू होने का यह 75वां वर्ष है। इसके निर्माण में संविधान निर्माताओं ने विश्व के कई देशों के संविधानों का भी अध्ययन किया और उनके कई प्रावधानों को अपने संविधान में शामिल भी किया। भारत का संविधान अपने आप में अनूठा है। आउटलुक के इस संग्रहणीय विशेषांक में आप संविधान से जुड़े तमाम पहलुओं पर ख्यात विशेषज्ञों के लेख पढेंगे। यह उन सभी संविधान सभा के सदस्यों के प्रति आदर ज्ञापन भी है जिन्होंने ऐसे कालजयी दस्तावेज का निर्माण किया जिसकी बदौलत भारतीय लोकतंत्र की मिसाल दुनिया भर में दी जाती है। स्वतंत्रता दिवस पर ढेरों शुभकामनाएं।