वे लोमड़ी मार कहे जाते हैं। वे चिड़ी मार भी कहे जाते हैं। वे माने हुए शिकारी हैं। आज भी आवाज पर पत्थर से सटीक निशाना समुदाय की औरतें भी मारती है। वे घुम्मकड़ है। एक जगह बैठना उनके लिए मुश्किल है। लिहाजा बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है। इन दिनों इनके कुछ प्रतिनिधि संसद के गलियारों में चक्कर लगा रहे हैं। इनकी मांग है, इन्हें आदिवासी का दर्जा दिया जाए, इन्हें आरक्षण मिले। ये तमिलनाडु से यहां आए हैं। इन्हें नारिकोरावन कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है लोमड़ी मारने वाला। अब वे चाहते हैं कि उन्हें कुरिविकारन समुदाय यानी चिड़िया मारने वाले समुदाय के साथ जोड़ा जाए।
अभी तमिलनाडु में इनकी गिनती अति पिछड़े समुदाय (एमबीसी) में होती है और इन्हें किसी भी तरह का आरक्षण नहीं मिलता है। तमिलनाडु के त्रिरचापल्ली में इनकी तादाद बहुत है। इस समुदाय के नेता और सामाजिक कार्यकर्ता एस.महेंद्रा ने आउटलुक को बताया, हम लोगों की सीधी सी मांग है, हम जंगल के रहने वाले है। पीढ़ियों से हमने लोमड़ी मार कर गुजारा किया, फिर हमें जंगल से बाहर ढकेल दिया गया। हम किसानों के खेतों की रक्षा के लिए रखे गए। हम चिड़िया को मारकर गुजारा करते रहे। अब वह भी नहीं है। हम अब बीड्स, माला, तांबे का सामान बनाकर बड़ी मुशअकिल से गुजारा करते हैं। मैं 12वीं तक पढ़ा हूं, लेकिन मुझे इसलिए काम नहीं दिया गया कि मैं लोमड़ीमार हूं। मेरे बच्चों को स्कूल मं दाखिला नहीं मिलता, क्योंकि वे भी नारिकोरावन हैं। ऐसे में हमें आदिवासी दर्जा चाहिए और इसके लिए हम संसद का दरवाजा खटखटाने आए हैं। तमिलनाडु सरकार इन्हें घुमंतू जनजाति में गिनने को तैयार है, आदिवासी में नहीं क्योंकि वे जंगल में नहीं रहते। इस बारे में आदिवासी मंत्रालय में तमिलनाडु सरकार को पत्र लिखा है कि नारिकोरावन समुदाय को अनुसूचित जनजाति के कुरीविक्कारन समुदाय में शामिल करने पर विचार करे।
ये समुदाय देश भर में अलग-अलग नामों से जाना जाता है, लेकिन सबके-सब हैं एक हीं। यानी सबका काम जंगल में शइकार करना रहा है। कर्नाटक टीकमसिंह के समुदाय का नाम है हक्कीपीक्की। उनके पहचानपत्र पर उनकी कॉलोनी का नाम भी हक्कीपीक्की कॉलोनी लिखा हुआ है। कन्नड़ भाषा में इसका अर्थ भी होता है लोमड़ी मारने वाले। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान तक में इनका नेटवर्क है। इस समय ये समुदाय हस्तशिल्प के जरिए ही जीवन यापन कर रहा है। तमिलनाडु से आईं अमरावती ने कहा कि हम अपने बच्चों के लिए सुरक्षित भविष्य चाहते हैं। मैं बीड्स का बहुत अच्छा काम करती हूं लेकिन इससे जीवन नहीं बिता सकती। मैं अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं। आरक्षण मिले तो उनका जीवन सुधरे। बंगलूर से आई हसीनाबाई के बाल घने और बेहद सुंदर हैं और बालों की तेल ही बनाकर बेचती है। हसीना का दावा है कि उनका तेल बहुत कारगर है और इसे दो बड़ी कंपनियां खरीदकर बेचती है। सुदंर बीड़्स, तांबे के कड़े के भरोसे उनके लिए जीवन आगे चलाना मुश्किल है। सांसदों से अभी उन्हें बस आश्वासन मिला है, लेकिन वे लोमड़ीमार से चिड़ीमार आदिवासी में कब तब्दील होंगे, इसकी कुंजी सत्ता के गलियारों में है।