अंकित दुबे
आप शासित राजधानी दिल्ली के बीचों बीच अरावली की पहाड़ी और कीकर के जंगल में करीब हजार एकड़ के इस कैम्पस का सियासी माहौल कुछ और ही है। सितम्बर का महीना जब जाती हुई गरमी अपने आखिर में मिर्च सी तीखी धूप, बारिश और सुबह-शाम हल्के ओस की चादर तान रही है, चुनाव चल रहे हैं और लहर किसी पार्टी की दिखाई नहीं पड़ रही ऐसे में यहां के छात्र जो कल अपने सीनियर्स एस जयशंकर, प्रकाश करात और रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण की हैसियत में पहुंचने का सपना और संभावना लिए हुए हैं, जम कर सियासी पंडिताई कर रहे हैं। हांलाकि परिणाम सोमवार को घोषित किया जाएगा।
महिलाओं पर दांव
इस चुनाव की खास बात ये है कि कुछ निर्दलीय उम्मीदवारों को छोड़ कर इस बार तमाम सियासी दलों ने अध्यक्ष पद के लिए महिलाओं पर दांव लगाया है। विगत कई सालों से यूनियन में रही ऑल इंडिया स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन AISA से हरियाणा की गीता कुमारी जिन्हें डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन DSF और माकपा के छात्र विंग स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया SFI का समर्थन हासिल है, का मुकाबला भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्टूडेंट विंग ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन AISF की अपराजिता राजा से है। तमिलनाडु की अपराजिता एबी वर्द्धन के बाद बने भाकपा महासचिव डी राजा की बेटी हैं। इन दोनों को दो अन्य विशेष उम्मीदवार कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। ये हैं नए बने कट्टर बहुजनवादी दल बिरसा-आम्बेडकर-फूले स्टूडेंट्स एसोशिएसन BAPSA की पश्चिम बंगाल से ताल्लुक़ रखने वाली शबाना अली और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा में रची-पगी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ABVP की निधि त्रिपाठी। निधि संस्कृत में पीएचडी कर रही हैं और यूपी प्रतापगढ़ के कुंडा से आती हैं।
इन सबके साथ देश की सबसे पुराने दल का छात्र दल नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया NSUI की वृष्णिका सिंह भी चुनाव मैदान में हैं। चुटकी लेने वाले कहते हैं कि हर साल अन्य पार्टियों के लिए प्रेजिडेंशियल डिबेट होती है और कांग्रेस की प्रेजिडेंशियल डायलिसिस जिससे अगले साल भी उम्मीदवार खड़े कर सकने की ताक़त मिल जाती है। यहां लेफ्ट है, राइट है मगर मॉडरेट मानी जाने वाली कांग्रेस की छात्र पार्टी गायब सी है। लेफ्ट से इसे दक्षिणपंथी नाम मिलता है तो राइटिस्ट इसे भी वाम में गिन लेते हैं।
वोट के मुद्दे
प्रेसिडेंशियल डिबेट के मिले-जुले परिणामों के बाद आज मतदान का दिन है और कैम्पस में किसी एक पार्टी की लहर दिखाई नहीं देती। उस बीजेपी से सम्बद्ध एबीवीपी की नहीं जो अमित शाह के नेतृत्व में लगातार जीत के नए रिकॉर्ड बनाती जा रही है। चुनाव ऐसे समय में भी हो रहे हैं जब यहाँ रिसर्च की सीटों में भारी कटौती की गई और मामला कोर्ट में जाने के बाद शेष सीटों पर भी इस साल नामांकन नहीं हो सका है।
गौरतलब है कि राजनीतिक रूप से बेहद जागरूक इस कैम्पस में एक तो मतदान प्रतिशत पचास प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होता दूसरी ओर सीट कट के कारण क़रीब एक हज़ार मतदाता भी कम हैं। सीट कट पर लेफ्ट और राइट के दावे एक-दूसरे पर लगाए आरोप-प्रत्यारोप में बदल जाते हैं। परिषद् इसके लिए जहाँ पूर्व के वामपन्थी प्रशासन के अदूरदर्शी रवैए और लेफ्ट लेड स्टूडेंट्स यूनियन के कोर्ट में जाने की ज़ल्दी को ज़िम्मेदार ठहरा रही है तो लेफ्ट का कहना है कि परिषद् की पैरेंट पार्टी की सरकार होने के बावजूद इतने बड़े छात्र विरोधी कदम पर उसने कुछ नहीं किया। अपनी सरकार रहते सीट कट होना परिषद् के विरुद्ध जा सकता है मग़र इससे प्रभावित एक हज़ार छात्र अब निर्वाचक मंडल में शामिल नहीं हैं लिहाज़ा आक्रोश वोट में तब्दील होगा ऐसा नहीं लगता।
आइसा सहित किसी वामपन्थी संगठन ने सीट कट पर परिषद् को उस आक्रामक तरीक़े से नहीं घेरा जैसे उससे उम्मीद की जाती है। इन पार्टियों को अगले साल टर्मिनेट हो रहे एमए/एमएससी के छात्रों के वोटों से बड़ी उम्मीदें हैं जो अगले साल निकाले जाने से बुरी तरह से डरे हुए दिख रहे हैं। इन पार्टियों और उनके मुद्दों से अलग बापसा उम्मीदवार बहुजन एकता के आधार पर जीत के दावे कर रहे हैं। पार्टी सीट कट और शट डाउन जेएनयू से अलग ऊना और भीम आर्मी के आंदोलनों से उत्साहित है और बीजेपी पर देश के वंचित तबके के अहित का आरोप लगा कर मुखर है।
बापसा का यह तीसरा चुनाव है और यह लेफ्ट पार्टियों में भी सवर्ण नेताओं के वर्चस्व के विरुद्ध मजबूत आधार बनाती रही है। यहाँ तक कि कन्हैया कुमार के नेतृत्व में चले 'स्टैंड विद जेएनयू' को उनकी भूमिहार-ब्राह्मण जाति से जोड़कर 'स्टैंड विद जनेऊ' का नारा देकर खारिज किया। मोहम्मद फारुख जैसे जो निर्दलीय प्रत्याशी हैं उनका सम्बन्ध यहां की पार्टियों से रहे हैं जो चुनावी गणित में अपने दलों से उम्मीदवार न बनाए जाने के बाद मैदान में उतरे हैं। ये अपनी-अपनी पहले की पार्टियों की कथनी और करनी में फ़र्क पर बोल रहे हैं जो आमतौर पर बेटिकट हुआ कोई उम्मीदवार बोलता है।
बनता–बिगड़ता वर्चस्व
बंगाली भद्रलोक के नेतृत्व में चलने वाले एसएफआई जैसे दल के वर्चस्व को नब्बे के दशक में आइसा ने तोड़ा। शुरु में इसे यूपी-बिहार के हिंदी बोलने वाले लोगों की पार्टी कह कर ख़ारिज किया जाता रहा मगर जल्द ही यह कैम्पस की वाम राजनीति में केंद्रीय भूमिका में आ गई। कैडर के हिसाब से आज यह कैम्पस की सबसे बड़ी पार्टी है जिसे अन्य वामपन्थी दलों के लिए दरकिनार करना मुश्क़िल है। हर बार की तरह इस बार भी लेफ्ट यूनिटी के नाम पर बने गठबन्धनों में यह बड़े भाई की भूमिका में है। कैम्पस के लिए परिषद् को अब भी वैसा ही अछूत प्रचारित किया गया है जैसी 1998 में सत्ता में आने से पहले बीजेपी थी। ऐसा लगता है कि यहां समय नहीं गुजरा है, या गुजरा भी है तो बहुत धीरे। कैम्पस की आमराय अब तक नहीं बदली। जो लोग अपने राज्यों में बीजेपी कांग्रेस को वोट देते हैं वे यहाँ एकमुश्त लेफ्ट को वोट देते हैं।
मंडल का असर
देश बदलने के साथ यहाँ कुछ भी नहीं बदला ऐसा नहीं है। तमाम मुद्दों ने यहाँ की पारम्परिक राजनीति पर असर डाला है। मण्डल का स्पष्ट असर है कि यूनाइटेड ओबीसी फोरम जैसा सशक्त दवाव समूह काम कर रहा है जो परदे के पीछे मतों की अच्छी-ख़ासी बार्गेनिंग कर लेता है। यहीं कारण है कि आइसा उम्मीदवार गीता ने ख़ुद को सैनी (ओबीसी) की बेटी कहा तो निधि ने भाषण की शुरुआत मंडल आयोग के विरोध में रहे लेफ्ट पर निशाना लगाने से की। बापसा जो पिछले चुनावों में सेंट्रल पैनल की सभी सीटों की उपविजेता रही उसके उभार ने भी बहुत कुछ बदला है। एआईएसएफ की अपराजिता ने ख़ुद को तमिलनाडु के एक दलित की बेटी कहना उचित समझा।
भावी मैंडेट के लिए दिलचस्पी
शाम पाँच बजे मतदान का बक्सा बन्द होगा और देर रात गिनती के लिए खोला जाएगा। मतदान का अब भी ईवीएम के बजाए मतपत्रों से होना और बाहरी लोगों की बजाए यहीं के लोगों की चुनाव समिति के अधीन बिना बाहरी पुलिस-फोर्स के होने वाले चुनाव यहाँ के चुनाव देश के लिए एक आदर्श हैं। राजनीति के लिहाज़ से बेहद तनावपूर्ण 9 फरवरी की घटना के समय भी दो पक्षों ने आपा नहीं खोया, एक थप्पड़ भी किसी ने किसी के ऊपर नहीं उठाया। सबको सुनने और कहने के राजनीतिक धैर्य के लिहाज़ से चुनाव तो यहाँ के लिए बहुत छोटी चीज है।
बहरहाल परसों शाम जिसे जनादेश मिलेगा उसके ऊपर इस यूनिक कैरेक्ट को साल भर के लिए और आगे ले जाने की जिम्मेदारी देगा। परिषद् के पास खोने को कुछ नहीं है। एनएसयूआई का नाम मतगणना करने वाले पदाधिकारियों के अलावे कोई नहीं लेगा। दिनों दिन बदल रही परिस्थिति में आइसा सहित लेफ्ट का बहुत कुछ दांव पर है। बापसा को लेकर वहीं पूर्वाग्रह है जो कभी आइसा के लिए था कि ये हिंदीभाषी देहाती लोगों की पार्टी है। बापसा की जीत होती है तो उसे बसपा की तरह ही बदलना होगा। बहुजन की जगह सर्वजन की बात करनी होगी। उसकी जीत हिंदी पट्टी में दलित राजनीति के लिए बसपा की शवसाधना से प्राप्त एक संजीवनी अंकुर सा होगा जो मायावती का विकल्प भी हो सकता है। इस खास चुनाव के भावी मैंडेट के लिए दिलचस्पी बनी रहेगी...
(लेखक जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं)