सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि विरोध या असहमति को दबाने के लिए आतंकवाद विरोधी कानून सहित आपराधिक कानूनों का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। अमेरिकन बार एसोसिएशन, सोसाइटी ऑफ इंडियन लॉ फर्म्स और चार्टर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ आर्बिट्रेटर्स द्वारा आयोजित सम्मेलन में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सोमवार को यह बात कही थी।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि भारत का उच्चतम न्यायालय 'बहुसंख्यकवाद निरोधी संस्था' की भूमिका निभाता है और 'सामाजिक, आर्थिक रूप से अल्पसंख्यक लोगों के अधिकारों की रक्षा करना' शीर्ष अदालत का कर्तव्य है।
उन्होंने आगे कहा इस काम के लिए सुप्रीम कोर्ट को एक सतर्क प्रहरी की भूमिका भी निभानी होती है और संवैधानिक अंत:करण की आवाज को सुनना होता है, यही भूमिका न्यायालय को 21वीं सदी की चुनौतियों से निपटने के लिए प्रेरित करती है, जिसमें महामारी से लेकर बढ़ती असहिष्णुता जैसी चुनौती शामिल है जो दुनिया में देखने को मिलती है। न्यायमूर्ति ने कहा कि कुछ लोग इन हस्तक्षेपों को "न्यायिक सक्रियता" या न्यायिक सीमा पार करने की संज्ञा देते हैं।
उन्होंने कोविड महामारी के दौरान जेलों की भीड़भाड़ कम करने पर शीर्ष अदालत के आदेशों का उल्लेख किया और कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि जेलों में भीड़भाड़ कम हो क्योंकि वे वायरस के लिए हॉटस्पॉट बनने के लिए अतिसंवेदनशील हैं, लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण यह पता लगाना है कि आखिर जेलों में भीड़भाड़ हुई ही क्यों।
अर्नब गोस्वामी मामले में अपने फैसले का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा "आतंकवाद विरोधी कानून सहित आपराधिक कानून का दुरुपयोग असहमति को दबाने या नागरिकों के उत्पीड़न के लिए नहीं किया जाना चाहिए।"
उन्होंने कहा कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका और भारत की आबादी के दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले पहलुओं में इसकी भागीदारी को कम करके नहीं आंका जा सकता है। इस जिम्मेदारी से पूरी तरह अवगत होने के बावजूद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश शक्तियों के विभाजन को बनाए रखने को लेकर एकदम सतर्क हैं।
उन्होंने कहा कि न्यायालय ने कई ऐसे मामलों में हस्तक्षेप किया जिसने भारत के इतिहास की दिशा ही बदल दी फिर चाहे नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के संरक्षण की बात हो या सरकार को संविधान के तहत वचनबद्धता के रूप में सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को लागू करने का निर्देश देना हो।