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मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 318 किलोमीटर दूर स्थित खरगोन अपनी कपास और मिर्च की खेती के लिए जाना जाता है। आम तौर पर गर्म रहने वाले निमाड़ क्षेत्र के इस जिले के अधिकतर किसान कपास एवं मिर्च की नगदी फसल का उत्पादन ही करते हैं। मगर जिला मुख्यालय से करीब 18 किलोमीटर दूर स्थित इदारतपुरा नामक गाँव के किसान राजेश पाटीदार बीते पांच सालों से अमरुद की एक उन्नत किस्म ‘वीएनआर अमरुद’ (P. Guajava) की खेती करके न सिर्फ पारंपरिक खेती के चक्र को तोड़ रहे हैं बल्कि उसके साथ ही अत्यधिक मुनाफा भी कम रहे हैं।
क्या होता है वीएनआर अमरुद?
वीएनआर अमरुद जिसे मध्यप्रदेश एवं छतीसगढ़ के कुछ हिस्सों में वीएनआर बिही भी कहा जाता है, अमरूद की एक उन्नत किस्म है। इसका नाम वीएनआर नर्सरी के नाम पर रखा गया है। यह बागवानी क्षेत्र में अनुसंधान कार्य करने वाली एक संस्था है। इस अमरुद को इसी संस्था द्वारा विकसित किया गया है। इसकी ख़ास बात यह है कि इसमें गूदे की मात्रा ज़्यादा होती है एवं बीज कम होते हैं।
आउटलुक से बात करते हुए राजेश पाटीदार कहते हैं, “रतलाम और मंदसौर के मेरे परिचित किसान इसकी खेती पहले से कर रहे थे। उन्होंने मुझे इस बारे में बताया जिससे मैं इसकी खेती करने के लिए प्रेरित हुआ। सन 2017 की जनवरी में मैंने 2100 पौधे लगाए थे जिन्होंने अगले साल फल देना शुरू किया था। जून 2018 में इससे क़रीब 80 से 90 हज़ार की आय हुई थी।” आरंभिक दिनों में हुए खर्च के बारे में बात करते हुए राजेश कहते हैं कि पहली बार उन्होंने इसकी खेती 4 एकड़ में की थी जिसमें करीब 8 लाख का खर्च आया था। उनके अनुसार सरकार की ओर से आर्थिक सहायता के रूप में महात्मा गाँधी राष्ट्रिय रोज़गार गारंटी अधिनियम के अंतर्गत उद्यानकी विभाग द्वारा उन्हें 4 लाख 71 हज़ार की सहायता राशि प्राप्त हुई थी।
पारंपरिक खेती से ज़्यादा फायदेमंद है यह खेती
राजेश के अनुसार पारंपरिक खेती जैसे कपास और मिर्च के विपरीत इस अमरुद की खेती करना मुनाफे का सौदा है। वह कहते हैं कि इस खेती में एक एकड़ में 100 से 150 क्विंटल तक माल आता है। पाटीदार आगे कहते हैं, “मिर्च और कपास साल में एक बार ही उगने वाली फसल है। सीज़न के बाद खेत भी ऐसे ही पड़ा रहता है। बहुत बार कीड़े एवं अन्य कारणों से कपास के पौधे पूरी तरह से बढ़ नहीं पाते हैं जिससे किसान को घाटा होता है जबकि इस अमरुद की फसल साल भर चलती है।”
आउटलुक से राजेश बताते हैं कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी पारंपरिक फसलों के बरक्स अमरुद की खेती फायदेमंद ही सिद्ध होती है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह बताते हैं कि अतिवर्षा की स्थिति में भी यदि विकसित हो चुके पेड़ों पर आए फूल गिर जाते हैं तो थोड़े ही समय में पेड़ वापस फूल उत्पादित कर देता है। पाटीदार के अनुसार हर पौधा 2 फसल में दो हज़ार से पच्चीस सौ तक के फल देता है एवं एक पौधा पंद्रह से बीस साल चलता है।
अपने व्यापार को शुरू करने के 2 साल बाद ही राजेश को कोरोना जैसी महामारी का सामना करना पड़ा। कोरोना के दौरान आई मंदी का ज़िक्र करते हुए वे बताते हैं, “17 मार्च 2020 में मैंने नब्बे रूपए किलो के दाम पर अपना माल बेचा था। मगर बाद में लॉकडाउन की घोषणा के चलते माल बाज़ार (दिल्ली) तक नहीं पहुँच पाया था जिससे मुझे 10 से 15 लाख तक का नुकसान हुआ था।”
देसी अमरुद से बेहतर परिणाम
हमने राजेश से यह भी जानने की कोशिश की कि अमरुद की इस किस्म की खेती आम अमरुद (L-49, White Guava) की खेती से कैसे अलग है? हमारे सवाल के जवाब में वो कहते हैं कि इसकी खेती आम अमरुद की खेती से बहुत अलग है। पाटीदार के अनुसार, “देसी अमरुद साल में एक ही बार आता है जबकि यह बारह महीना चलने वाली फसल है। उसकी टिफ़िन क्वालिटी इसके मुकाबले बेहद कम होती है। यानि देसी अमरुद 3 से 4 दिनों में ख़राब हो जाता है जबकि यह 15 दिनों के बाद भी सड़ता नहीं है जिसके कारण यह ट्रांसपोर्ट के माध्यम से दूर के बाज़ार में बेंचने के लिए भी उपयुक्त है।” राजेश का कहना है कि भाव के आधार पर भी यह किस्म किसान के लिए फायदेमंद है। देसी अमरुद बाज़ार में 15 से 20 रूपए के भाव में बिकता है जिससे बहुत बार लागत के अनुपात में भाव कम मिलता है जबकि इस अमरुद की कीमत सीज़न में भी 50 रूपए से अधिक ही मिलती है।
गरीबी में बीता बचपन
राजेश आज गाँव में बने अपने पक्के मकान में रहते हैं मगर वह बताते हैं कि उनका बचपन संघर्षों भरा रहा है। वे कहते हैं कि उनका जन्म एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। माता-पिता खेतिहर मजदूर थे एवं ज़मीन के नाम पर केवल उनकी पैत्रक ज़मीन भर थी। राजेश के शब्दों में, “मैंने कक्षा-12 तक पढ़ाई की है। हमारे पास 2 से ढाई एकड़ ज़मीन थी शुरुआत में मैंने उसी में कपास की खेती करनी शुरू की। साल 2000 से लेकर 2017 तक मैंने पारंपरिक खेती की है उसके बाद बागवानी करना शुरू किया।”
बंजर ज़मीन को बनाया उपजाऊ
राजेश द्वारा अमरुद की खेती करना बहुत मायनों में ख़ास है। उनके खेत की ओर जाने के लिए हम पहाड़ चढ़ रहे थे। खरगोन के ज़्यादातर हिस्सों की तरह यह हिस्सा भी मानसून गुज़र जाने के बाद पथरीली चट्टानों का पहाड़ भर रह जाता है। ऐसे में इस तरह की ज़मीन पर खेती करने का निर्णय लेना एवं उसे सफलता पूर्वक करना आश्चर्यचकित करता है। राजेश बताते हैं, “यह पहाड़ी इलाका है। यहाँ कुआँ खोदने पर भी पानी नहीं मिलेगा इसलिए मैंने यहाँ से करीब 9 किलोमीटर दूर से पाईपलाइन के माध्यम से कैनाल से यहाँ तक पानी लाया है। इसमें मुझे 70 लाख का खर्च आया है। अब बारिश के पानी को बचाने के लिए भी मैंने तालाब का निर्माण करवाया है ताकि गर्मी के दिनों में भी खेती चलती रहे।”
खेती में नवाचार के हैं पक्षधर
राजेश अपने क्षेत्र में निरंतर कृषि प्रयोगों के लिए भी जाने जाते हैं। अमरुद की सफलता पूर्वक खेती करते रहने के बाद भी वह अन्य नवीन फसलों के लिए प्रयोग करते रहते हैं। उन्होंने हमें अपने अमरुद के खेत में ही प्रयोग के रूप में लगाए अंजीर के पौधे भी दिखाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेव के पेड़ भी अपने खेत में लगाए थे जिसका सकारात्मक परिणाम उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार केले, आम एवं अन्य फलों की नवीन किस्मों को भी वह बतौर प्रयोग अपने खेत में लगाते हैं। पाटीदार के अनुसार, “किसान को बाज़ार के अनुसार प्रयोग करते रहना पड़ेगा। यदि एक फसल का उत्पादन आवश्यकता से अधिक होगा तो उसका भाव बाज़ार में गिर जाएगा ऐसे में नवीन प्रयोग ही मुनाफ़ा कमाने का रास्ता खोल सकते हैं।”
21 सौ पौधों से शुरू हुआ राजेश का सफ़र आज 13 हज़ार पौधों तक पहुँच गया है। फसल उत्पादन के अतिरिक्त वे क्राफ्टिंग के ज़रिए भी अगली फसल के लिए पौधे बना रहे हैं। इन पौधों को वे कम दाम पर अन्य किसानों को भी देते हैं ताकि वे भी इसकी खेती कर पाएँ। राजेश से प्रेरणा लेकर इस गाँव के 25 किसान आज वीएनआर अमरुद की खेती कर रहे हैं।