प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज केदारनाथ की इस पवित्र भूमि पर आदिशंकराचार्य की 12 फूट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया है। आदि शंकराचार्य को सनातन धर्म का पहला धर्म सुधारक भी कहा जाता है। न्यूज 18 की रिपोर्ट के मुताबिक 32 वर्षीय के सांसारिक जीवन में आदि शंकराचार्य ने दक्षिण से लेकर उत्तर तक सैकड़ों धर्मसभाएं कर वेद ज्ञान का प्रसार किया। कई लोग आदि शंकराचार्य के जीवन से जुड़ी कई कहानियों के बारे में जानने के इच्छुक होंगे। आइए जानते हैं कि कौन हैं आदिशंकराचार्य-
शंकराचार्य का जन्म
आदिशंकराचार्य का जन्म केरल के एक गांव कलादी में सन् 788 में हुआ था। उनका मात्र 32 साल की उम्र में वर्ष 820 में देवलोक गमन हो गया था। आदिशंकराचार्य के बारे में एक छोटी सी कथा बहुत ही प्रचलित है। कहा जाता है कि आदिशंकराचार्य के माता-पिता काफी समय तक निःसंतान थे। कड़ी तपस्या के बाद उनको संतान सुख प्राप्ति हुई थी। कथा के अनुसार आदि शंकराचार्य की मां अर्याम्बा को सपने में भगवान शिव के दर्शन हुए और उन्होंने उनसे कहा था कि वह उनके पहले पुत्र के रूप में खुद अवतरित होंगे।
कलादी से ओमकारेश्वर तक का सफर
आदि शंकराचार्य के सफर की शुरुआत उनके गांव कलादी से शुरू होकर सबसे पहले ओमकारेश्वर तक जाती है। यहीं नर्मदा किनारे उन्हें गुरु गोविंद भागवतपड़ा का सानिध्य मिला था। गुरु गोविंद ने ही यहां पर शंकाराचार्य को वेद सूत्र और ब्राह्मण के बारे ज्ञान दिया। गुरु गोविंद ने ही शंकराचार्य को वेद के ज्ञान को फैलाने का आदेश दिया, जिसके बाद वह वाराणसी आए।
बद्रीनाथ में वेद के सूत्रों की रचना
शंकराचार्य वाराणसी से एक दुर्गम यात्रा कर बद्रीनाथ पहुंचे, जहां उन्होंने वेद के कई सूत्रों की रचना की। उपनिषद लिखे गए। बद्रीनाथ से ही शंकराचार्य पूरे भारत में धर्म का ज्ञान फैलाने के लिए निकल गए। इसके बाद उन्होंने देश के कोने-कोने में धर्म ज्ञान पर बहस में भाग लिया।
केदारनाथ और शंकराचार्य
शंकराचार्य देश के कोने-कोने की यात्रा करने के बाद अंत में केदारनाथ पहुंचे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने गोकर्ण, मूकांबिका, श्रृंगागिरी, कलाडी, द्वारिका सहित कई जगहों की यात्रा की।
सनातन धर्म के पुनर्स्थापक
शंकराचार्य को वेद और उपनिषदों के सिद्धांतों की पुनर्स्थापना करने और अद्वैत ब्रह्म के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। खासकर देश में सनातन धर्म के व्यापक प्रसार के लिए उनके योगदान को याद किया जाता है। बौद्ध धर्म के मतावलंबियों की तादाद बढ़ते देखकर सातवीं-आठवीं शताब्दी के दौरान आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनर्स्थापना में बड़ा योगदान दिया है। इसके लिए ही उन्होंने देश के चारों कोनों में चार पीठों या मठों की स्थापना की, जिनमें दक्षिण - शृंगेरी, (रामेश्वरम्) तमिलनाडु, उत्तर - ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) उत्तराखंड, पूर्व - गोवर्धन (जगन्नाथ पुरी) ओडिशा, पश्चिम - शारदा मठ (द्वारका), गुजरात शामिल है।
कैसे बने संन्यासी
माना जाता है कि शंकराचार्य के मान में 8 साल की उम्र में ही वैराग्य की भावना जाग्रृत हो गई थी, लेकिन इसके लिए उनकी मां तैयार नहीं हुई। लेकिन एक घटना के बाद उनकी जिंदगी बदल गई। एक बार एक त्योहार के दिन वे नदी में स्नान कर रहे थे, तभी मगरमच्छ ने उन्हें नगल लिया। इसके बाद उनकी मां अपने बेटे को बचाने के लिए प्रार्थना करने लगी। तभी शंकराचार्य बोले कि मां यदि तू मुझे भगवान शिव को अर्पित कर दे तो मेरे प्राण बच सकते हैं। इसके बाद शंकराचार्य ने अपनी मां को वचन दिया कि वह कहीं भी रहें, लेकिन मां के अंतिम समय में उसके पास ही रहेंगे।