उन्होंने असहिष्णुता के माहौल को लेकर केंद्र पर हमला कर रहे बुद्धिजीवियों पर निशाना साधते हुए कहा कि देश के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत से निराश है और चुनाव की असफलता का अब दूसरे तरीकों से बदला लिया जा रहा है।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष लोकेश चंद्र, लेखक एस.एल. भैयरप्पा, जेएनयू के पूर्व प्रति कुलपति कपिल कपूर, यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज के प्रोफेसर एमेरिटस और आईसीएचआर के सदस्य दिलीप के चक्रवर्ती और आईआईएससी के के. गोपीनाथ उन 36 बुद्धिजीवियों में शामिल हैं जिन्होंने एक बयान में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन किया है और विरोधियों को निशाने पर लिया है।
उन्होंने कहा, भारत में पिछले कुछ हफ्तों में रोचक स्थिति रही है। देश के बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने समाज में कथित रूप से बढ़ती असहिष्णुता पर आक्रोश जताया है। इनमें सबसे उपर भारतीय सभ्यता के आम ध्वजवाहक - विभिन्न रंग के कांग्रेस सदस्य, मार्क्सवादी, लेनिनवादी और यहां तक कि कुछ माओवादी शामिल हैं। इन लोगों ने आरोप लगाया, निशाना साफ है और स्पष्ट किया जा चुका है, निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जिन्होंने उन्हें निराशा में डालते हुए संसद में अपनी पार्टी के लिए स्पष्ट बहुमत हासिल किया। चुनाव में मिली नाकामी का अब दूसरे तरीकों से बदला लिया जा रहा है, इसमें मदद मिलती है अगर मीडिया (या उसका वर्ग) चीयरलीडर के तौर पर काम करे।
उन्होंने मोदी के शपथ लेने के साथ ही गिरिजाघरों पर हुए हमलों को लेकर सरकार की आलोचना की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ईसाइयों के धर्मस्थलों पर हमलों के आरोपों में शुरूआती छद्म द्वंद्व देखा गया था। लेखकों, कलाकारों ने कहा कि केंद्र सरकार को दादरी हत्याकांड जैसी घटनाओं के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। तर्कवादी एन दाभोलकर और कन्नड़ विद्वान एनएन कलबुर्गी की हत्याएं कांग्रेस शासित राज्यों में हुईं। बुद्धिजीवियों ने कहा कि मोदी सरकार पर निशाना साधने वाले बुद्धिजीवी भूल रहे हैं कि कांग्रेस के शासनकाल में 1984 के सिख विरोधी दंगे के पीड़ितों और वाम गठबंधन के शासनकाल में पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में किसानों की हत्याओं को लेकर कोई न्याय नहीं हुआ।