भारतीय सेना के जवानों के लिए सियाचिन में ड्यूटी करना सबसे कठिन टास्क होता है। मगर समुद्र तल से 22,000 फ़ीट की ऊंचाई और -40 डिग्री सेल्सियस के तापमान में देश की रक्षा करने वाले जवान यहां डटे रहते हैं। सियाचिन में तैनात जवानों के लिए सिर्फ ड्यूटी ही नहीं, वरन सांस लेना, चलना फिरना और खाना-पीना जैसे बुनियादी कार्य करना भी बहुत कठिन होता है।
सियाचिन में तैनात जवानों को जंहा हर समय बदलते मौसम से जूझना पड़ता है। वहीं हिमस्खलन जैसी घटनाओं के दौरान जवानों को बेहद सतर्क रहना पड़ता है। जवानों को हर वक़्त अपनी जान जोखिम में डालकर देश की रक्षा करनी पड़ती है। यदि इस प्रकार की कोई घटना घटती है तो ऐसे में जवानों को खोज और बचाव कार्यों के दौरान कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
लद्दाख के अधिकांश युवा सियाचिन में भारतीय सेना के साथ पोर्टर्स (गाइड और स्काउट्स) के रूप में काम करते हैं। ये लोग मुश्किल हालातों में जवानों की सहायता के हर समय मौजूद रहते हैं। जवानों को किसी भी चीज़ की आवश्यकता होती है तो ये लोग निस्वार्थ भाव से उनकी सहायता के लिए सबसे आगे खड़े रहते हैं, मगर दुर्भाग्य से इस दौरान कई लोग अपनी जान तक गंवा बैठते हैं।
31 साल के स्टैंज़िन पद्मा भी इन्हीं में से एक हैं। पेशे से गाइड स्टैंज़िन पिछले कई वर्षों से मश्किल हालातों में भारतीय जवानों की सहायता करते आ रहे हैं। स्टैंज़िन अपनी सूझ बूझ से भारतीय सेना के 2 जवानों की जान बचा चुके हैं इस दौरान वो कई मृत सैनिकों और साथी पोर्टरों के शवों को भी वापस लेकर आए थे। केंद्रीय गृह मंत्रालय साल 2014 में स्टैंज़िन को इस काम के लिए 'जीवन रक्षा पदक' से भी सम्मानित कर चुका है।
लद्दाख के नुब्रा वैली स्थित में फुक्कपोशी गांव निवासी स्टैंज़िन सामान्य किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। 14 वर्ष पहले लेह में 'जवाहर नवोदय विद्यालय' से हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्टैंज़िन ने पहली बार 2006 में सियाचिन में भारतीय सेना के लिए कुली का काम किया। इसके बाद कुछ साल तक मार्खा वैली और ज़ांस्कर में टूरिस्ट गाइड के रूप में भी काम किया।
द बेटर इंडिया से बातचीत में स्टैंज़िन ने कहा, मेरे माता-पिता दोनों किसान थे, मगर पिता कभी कभार सियाचिन में कुली का काम भी कर लिया करते थे। जब मैं 10वीं था तब मेरा परिवार वित्तीय संकट से जूझ रहा था। इसलिए मैंने सियाचिन में कुली के रूप में काम करने का निर्णय लिया। मुझे ये काम लगा क्योंकि इसके ज़रिए मैं भी थोड़ा बहुत देश के लिए अपना योगदान दे पा रहा था। साल 2008 से लेकर 2016 तक मैंने नियमित तौर पर भारतीय सेना के साथ काम किया।
भारतीय सेना के एक वरिष्ठ अफसर ने कहा, ये लोग निस्वार्थ भाव से देश की सेवा कर रहे हैं। ये पर्वतारोहण में पूरी तरह से प्रशिक्षित होते हैं और जहां हमारे जवान नहीं पहुंच पाते ये वहां पर सहायता के लिए सबसे आगे खड़े होते हैं। यदि जवानों को किसी मेडिकल इमरजेंसी की ज़रूरत पड़ती है, तो ये सैनिकों की सहायता और निकासी करने वाले पहले लोग होते हैं।