माना जाता है कि साल 2020 में भारत दुनिया का सबसे युवा मुल्क होगा। जाहिर है कि सियासत भी युवा ही होनी चाहिए। सत्ता और युवाओं के मौजूदा टकराव ने राजनीतिज्ञों को इस बात पर गौर करने का मौका दिया है। मगर युवा का मतलब है आक्रामक, विद्रोही, गैरपारंपरिक, जिसके लिए भारतीय राजनीतिक माहौल फिलहाल तैयार नहीं दिखता। फिर भी 2016 की भारतीय राजनीति उसी युवा में निवेश करना चाहती है जो 2020 में हिंदुस्तान की कमान संभालने वाला है। क्याेंकि वही उभरता हुआ बहुसंख्यक वोटर है। देशद्रोह के आरोप में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया, उमर खालिद और अनिर्बान की गिरफ्तारी ने छात्र रोष की चिंगारी को हवा दी जो पूरे देश के नौजवानों को सड़कों पर ले आई। बीते वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित आलोचना करने पर आईआईटी, मद्रास के एक छात्र संगठन 'अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल’ की मान्यता रद्द करना, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति का विवाद, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में तीन दलित छात्रों का निष्कासन और रोहित वेमूला की आत्महत्या, फिर यूजीसी ऑक्यूपाई विवाद जिसमें खाकी ने दिल्ली की सड़कों पर लड़कियों तक को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। जेएनयू की घटना ने एक काम किया कि इसने भारतीय जनता पार्टी की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के अलावा तमाम बड़ी राजनीतिक पार्टियों के छात्र संगठनों को सरकार के खिलाफ लामबंद कर दिया। छात्र संगठनों के बहाने कुछ राजनीतिक पार्टियां भी पुनर्जीवित हो गईं।
कांग्रेस पार्टी के छात्र संगठन नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोजी एम. जॉन कहते हैं कि मुद्दे आएंगे तो युवा राजनीति में हिस्सा लेंगे। इस समय युवा सरकार की गले की फांस बन गए हैं। प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को ऑक्सफोर्ड बना देंगे लेकिन बीते बजट में से शिक्षा का 24 फीसदी बजट कम कर दिया गया। स्कॉलरशिप्स बंद हो रही हैं, रोजगार नहीं है, स्किल डेवलपमेंट का कोई खाका नहीं, ऐसे में सवाल पूछने की आजादी खत्म की जा रही है। हम सड़कों पर नहीं उतरेंगे तो क्या करेंगे? यह तो मात्र ट्रेलर है, वज्रपात होना अभी बाकी है। जॉन के अनुसार सरकार डायलॉग और इमोशन से नहीं चलती। नौजवानों को समस्याओं का तार्किक हल चाहिए।
भारत में मतदान करने योग्य कुल 81.4 करोड़ आबादी में से 37.8 करोड़ आबादी 18 से 35 वर्ष की युवा आबादी है यानी एक बड़ा वोटबैंक। यही वजह है कि जेएनयू की घटना के तुरंत बाद वहां तमाम वामपंथी नेताओं के अलावा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी पहुंचे। संसद में भी बहस की कमान युवा नेताओं के हाथों में रही। माञ्चर्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के राष्ट्रीय अध्यक्ष वीपी सानू बताते हैं कि देश का 65 फीसदी 40 वर्षीय युवा ऊर्जा से भरा और टेक्नोसेवी है। राजनीतिक पार्टियों को उसकी जरूरत है। जेएनयू में पीएचडी स्कॉलर ताराशंकर के अनुसार यूनिवर्सिटी में 25 वर्ष से ऊपर के ही छात्र होते हैं। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर अच्छी समझ रखते हैं। इसलिए सरकारें जनता को मूर्ख बना सकती हैं लेकिन छात्रों और अकादमिक लोगों को नहीं।
बेशक धर्म (मंदिर मुद्दा) और आरक्षण के नाम पर नौजवान को बांट दिया गया। जैसे-जैसे लेक्रट पार्टियों में टूट बढ़ी छात्र संगठन कमजोर होते गए। 90 के दशक की उदारीकरण की नीति ने छात्र राजनीति को और कमजोर किया। लेकिन इन दिनों मुखर युवा के तेवर बता रहे हैं कि अगर सरकार ने इनकी समस्याएं हल नहीं कीं तो सत्ता और नौजवानों के बीच लड़ाई रुकने वाली नहीं।
सरकार के एक खेमे का कहना है कि विश्वविद्यालय राजनीति का अड्डा नहीं होने चाहिए। देश के आधे से ज्यादा विश्वविद्यालयों में आज भी छात्रसंघ चुनाव नहीं करवाए जाते। दिल्ली, केरल, असम, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पंजाब, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा में तो चुनाव हो रहे हैं जबकि हिमाचल प्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटका, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु में मुद्दत से नहीं हुए। जबकि वर्ष 2005 में लिंगदोह कमेटी ने छात्रसंघ चुनाव करवाने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की तय की थी। छात्र संघ लगातार इसकी मांग भी कर रहे हैं। जेएनयू में दस वर्ष गुजार चुके सीपीएम की केंद्रीय कमेटी के सदस्य वीजू कृष्णन कहते हैं, जब राजनीति आपका भविष्य तय करती है तो आप तय करें कि राजनीति क्या होनी चाहिए। छात्रसंघ ने हमेशा महंगाई, फीस वृद्धि, भ्रष्टाचार, बाबरी मस्जिद, सिख दंगों पर खुलकर अपना पक्ष रखा है। इमरजेंसी के बाद जेएनयू छात्रों ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक को विश्वविद्यालय में आने से रोका था। इसलिए सरकार चाहे किसी की हो छात्रों का काम सवाल खड़े करना है। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में रोहित वेमूला के सीनियर सईद वली उला खालिद के अनुसार यूनिवर्सिटी नई बहस की फैक्ट्री होती है। वहां दस तरह के वाद हो सकते हैं, वाद छात्रों को जानकार बनाते हैं। नई बहस की शुरुआत होती है। वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी छात्रसभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील सिंह साजन के अनुसार साफ-स्वस्थ राजनीति के लिए विश्वविद्यालयों में राजनीतिक माहौल होना ही चाहिए। इससे गांव, गरीब, किसान, दलित, आदिवासी, मुसलमान परिवारों के छात्रों को भी मुख्यधारा की राजनीति में आने का मौका मिलता है।
जिस जेएनयू के चलते विद्रोह की आवाजें विदेशों तक गूंजी वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समेत राजनीतिक मुद्दों पर तीखी बहस होना आम बात है। यह वही विश्वविद्यालय है जहां से मौजूदा विदेश सचिव, वाणिज्य और उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमण, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, सीताराम येचुरी, प्रकाश कारात और डीपी त्रिपाठी समेत कई नेता, आईएस और पत्रकार पढक़र निकले हैं। हरियाणा से सांसद, पूर्व जेएनयू छात्र, पूर्व एनएसयूआई अध्यक्ष अशोक तंवर कहते हैं, 'युवा राजनीति की दशा और दिशा कैसे तय करता है यह सड़कों और संसद में दिख रहा है। जेएनयू हमेशा भाजपा की आंख की किरकिरी रहा है। जेएनयू के छात्र-शिक्षक कुछ भी हो सकते हैं लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकते।’ एनएसयूआई के उपाध्यक्ष कुमार राजा के अनुसार, 'संवैधानिक दायरे में बोलने की आजादी का अधिकार कोई नहीं छीन सकता।’
विमर्श, नारे, बहस, असंतुष्टि, असहमति, प्रदर्शन और जो भी एक क्रांति या विद्रोह का तेवर दे सके यह उसी का दौर है। क्रांति वैसी क्रांति नहीं है जो किसी को भयभीत करे, न विद्रोह ऐसा है कि कायनात बदल जाए। पर हां असहमति के मुखर दौर की चर्चा जरूर की जानी चाहिए। इस दौर की खास बात यह है कि युवा रगों में लहू की जगह (कु) तर्क दौड़ने लगे हैं। बहस के ताप से विश्वविद्यालयों के गलियारों की फर्श दरक रही है, कक्षा की कुर्सियों के हत्थे अपनी बारी के इंतजार में मसले जा रहे हैं, मेज बेवजह मुक्के सह रही हैं और हर वक्त मुट्ठियां हवा में लहराने को बेताब हैं। भारत भर के विश्वविद्यालयों में विचारों का ज्वार आ गया है और लग रहा है कि अब बड़े-बड़े नेताओं को सेवानिवृत्ति के बारे में सोचना होगा।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के ज्वॉइंट ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेटरी श्रीनिवास कहते हैं, 'युवाओं की सोच बदली है यह सच है। इसे राष्ट्रवादी या गैर राष्ट्रवादी जैसे खांचें में नहीं बांटा जा सकता। विश्वविद्यालय तो शुरू से विचारों की चर्चा के केंद्र रहे हैं। इस बार यह बहस उन युवाओं तक पहुंच गई है जो विश्वविद्याय से बाहर हैं और देश से खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर रहे हैं।’ हाल ही में भारत में दो-तीन घटनाओं के बाद विश्वविद्यालय के छात्र मुखर होकर सामने आए हैं। बुद्धिजीवी मानने लगे हैं कि 'कैंपस कल्चर’ बदल गया है। इलाहबाद में संभवत: पहली बार अध्यक्ष पद पर एक लड़की ने कब्जा जमाया है। सालों बाद वामपंथ का गढ़ कहे जाने वाले विश्वविद्यालय में एक सीट पर भगवा परचम लहराया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्टूडेंट यूनियन में जवॉइंट सेक्रेटरी के पद पर जीतने वाले सौरभ कुमार शर्मा मुद्दों पर बहस से विमर्श को राजनीति का नया फलक मानते हैं। वह कहते हैं, 'सन 2012 में जब मैं इस कैंपस में आया था तो मेरे माथे पर तिलक था और मुझे हेय दृष्टि से देखा जाता था पर अब हालात बदले हैं। पहचान कैसे बनाई जाती है यह मैंने इस परिसर में रह कर ही सीखा है। वाद-विवाद, संवाद और बहस ही आने वाले दिनों के नेता तैयार करेंगे।’ वह आने वाले दिनों के लिए बहुत आशान्वित हैं और मानते हैं कि ऐसे ही किसी विश्वविद्यालय से आने वाले दिनों का बड़ा नेता मिलेगा।
दरअसल, भारत में नेता होने को चुनाव के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाता है। सामाजिक न्याय या व्यवस्था के लिए भी आम जनता को लगता है कि अच्छा नेता होना जरूरी है। भारत जैसे देश में जब लगभग हर साल कभी किसी भी प्रदेश में पंचायत-नगरीय निकाय से लेकर लोकसभा चुनाव तक का लोकतंत्र उत्सव मनता रहता हो वहां लोगों के मन में नेताओं के प्रति सहज आकर्षण को समझा जा सकता है। चुनावी जुमलेबाजी और नारे लोगों को चुटकुलों से ज्यादा मजा देते हैं। व्हॉट्स ऐप और फेसबुक पर पोस्ट लगाने के लिए संता-बंता के बाद नेताओं का ही नंबर आता है। फिर भी बहुत से युवा नेता बनने को बेताब रहता है। छात्र राजनीति से परिवारवाद की संभावनाएं कम हो जाती हैं। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में चुनाव होने से यह तो तय रहता है कि किसान का बेटा भी चुनाव में खड़ा हो सकता है। नेतापुत्रों की जगह नैसर्गिक नेता आने का रास्ता खुल जाता है। मनी और मसल्स (पैसा और बाहुबल) लोकतंत्र के लिए हमेशा से खतरा माना जाता है। ऐसे में यदि एक नए ईको सिस्टम का विकल्प मिलता है तो यह राजनीति को नई दिशा देगा। भारत के विश्वविद्यालय भले ही दुनिया के श्रेष्ठ सौ विश्वविद्यालयों में जगह न पाते हों पर हर विश्वविद्यालय में श्रेष्ठ नेता जरूर हैं। बनारस, इलाहबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों को नेता बनने की नर्सरी से रूप में जाना जाता है। जेएनयू से पीएचडी कर चुके और अध्ययन के दिनों में विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के राष्ट्रीय संयोजक रह चुके शिव शक्ति बञ्चशी अब भारतीय जनता पार्टी के पत्रिका एवं प्रकाशन विभाग में हैं। वह भी मानते हैं कि कैंपस की राजनीति सीखने के लिहाज से सबसे अच्छा मंच है। वह कहते हैं, 'मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले दिनों में विश्वविद्यालय के छात्र राजनीति के राष्ट्रीय परिदृश्य पर होंगे।’ इसमें वह बहुत हद तक मीडिया का योगदान भी मानते हैं। वह कहते हैं, 'यदि छात्र नेता को टेलीविजन पर अपनी बात रखने का अवसर अभी से मिल रहा है तो सोचिए वह कितना मंज और निखर कर आएगा। यही अभ्यास अच्छे नेता के लिए जरूरी है। अपनी बात को दृढ़ता से रखने वाला ही आम लोगों के मन में जगह बना लेता है। यहीं छात्र सीख सके हैं कि विचारधारा किस हद तक जरूरी है और बाहरी दुनिया में इसके साथ और क्या शामिल किया जाना चाहिए। अब तकनीक भी बड़े रूप में उभर कर आई है। और छोटे मंच पर आप विशाल परिदृश्य को इस्तेमाल करना सीख सकते हैं।’ हालांकि वह यह भी मानते हैं कि विश्वविद्यालय एक तरह का सपोर्ट सिस्टम है जो कैंपस के बाहर राजनीति में सहयोगी हो सकते हैं, सफलता की गारंटी नहीं। राजनीति का पौधा असहमति और विरोध की गुंजाइश की खाद के बीच ही पनपता है। यह अलग बात है कि फिलहाल यह खाद पौधे को पनपने देने के बजाय सड़ा रहा है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के 128 सालों में पहली बार महिला अध्यक्ष चुनी गई है। उनका नाम है ऋचा सिंह। ऋचा इसे युवाओं की नई जीत मानती हैं। वह कहती हैं, 'आज के युवा खासकर शिक्षित वर्ग के युवा की पसंद-नापसंद एकदम साफ है, वह मुखर होकर मुद्दों पर समर्थन या विरोध कर रहा है। व्यवस्था में बदलाव चाहिए तो युवा जानता है कि उसे व्यवस्था में आना पड़ेगा।’ वह मानती हैं कि 2019 के चुनाव महिलाओं और दलितों के मुद्दे पर होंगे। महात्मा गंाधी काशी विद्यापीठ के छात्रसंघ की अध्यक्ष आयुषी श्रीमाली विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र और छात्राओं में समसामायिक विषयों पर चर्चाओं के साथ ही राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर वाद-विवाद देखने को खूब मिल रहे हैं। सोशल मीडिया का युग है और युवाओं को बिना आगे लाए किसी भी राजनीतिक दल की दाल नहीं गलेगी। अब यह तो साफ है कि यह लड़ाई सिर्फ विचारधारा की नहीं है। राष्ट्रीय मीडिया के प्रचार प्रमुख श्रीरंग कुलकर्णी कहते हैं, 'यह आप लोगों को लग रहा है कि यह विचारधारा का मामला है या राजनीतिक है। चूंकि अब मीडिया में खुल कर चर्चा हो रही है सो आम युवा भी इससे जुड़ गया है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद साल भर काम करता है और हमें युवाओं का संपूर्ण विकास करना है सो पूरे शैक्षणिक सत्र की गतिविधियां हैं। यह बहस विश्वविद्यालय से उठी है तो बातें ज्यादा हो रही हैं।’ छात्र राजनीति के गढ़ रह चुके बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहबाद विश्वविद्यालय के बारे में बताते हुए पत्रकार, साहित्यकार अच्युतानंद मिश्र कहते हैं, 'हेमवंती नंदन बहुगुणा, नारायण दîा तिवारी बड़े छात्र नेताओं में से थे। वे न सिर्फ अन्य गतिविधियों में भाग लेते थे बल्कि पढ़ाई में भी अव्वल थे। भारत में आजादी के आंदोलन के समय से छात्र राजनीतिक गतिविधियों में शामिल रहे हैं। यह अलग बात है कि बीएचयू के संस्थापक मदन मोहन मालवीय छात्रों के राजनीति में आने के पक्षधर नहीं थे। वह मानते थे छात्रों का काम शिक्षा ग्रहण करना है। लेकिन गांधी के विचार उनसे अलग थे। इसलिए भारत में मुझे लगता है फिर स्वस्थ राजनीति की बयार बहेगी।
युवाओं की बौद्धिक समझ विकसित होना जरूरी
राजनीति का स्वरूप एक अंतराल के बाद बदलता रहता है और मेरी समझ से यह जरूरी भी है। अभी अगर किसी को यह बदलाव स्पष्ट नजर आ रहा है तो इसके पीछे वह प्रचार माध्यम हैं जो पल-पल की खबरें हम तक पहुंचा रहे हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की अगर बात करें तो यह केवल राजनीतिक संगठन नहीं है। इसका उद्देश्य युवाओं में बौद्धिक समझ विकसित करना भी है। तो यह कहना गलत होगा कि हम सिर्फ विश्वविद्यालों के प्रांगण में राजनीति की बात करते हैं। पर हां अभी जो माहौल बना है उससे नए नेतृत्व के द्वार खुलते हैं। हम हमेशा से ही छात्र राजनीति के पक्षधर रहे हैं। उसमें भी खुले चुनाव का समर्थन करते रहे हैं। इससे वह व्यक्ति भी आ पाएगा जिसकी पृष्ठभूमि राजनीतिक नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि सही विमर्श से युवा जुड़ें। यह कहना तो जल्दी होगी कि आगामी चुनाव में इसका क्या असर होगा पर इस तरह की देशव्यापी बहस से युवाओं में सामाजिक नेतृत्व का विकास तो होगा ही। सामाजिक नेतृत्व भी यदि युवाओं में आ जाए तो देश सही रास्ते पर चल पड़ेगा। सभी चाहते हैं देश को अच्छे नेता मिलें। अच्छे नेता तब मिलेंगे जब युवा प्रबंधन, कारपोरेट, पर्यावरण, वित्त नीतियां, महिला सुरक्षा-अधिकारों के बारे में जानकारी रखेंगे। अभी एक अच्छा डिसकोर्स शुरू हुआ है, जिसमें निरंतरता रखनी होगी।
सुनील आंबेकर, राष्ट्रीय संयोजक सचिव, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद
भाजपा धर्म के आधार पर छात्रों को बांट रही है
सन 1970 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम)के छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) का गठन हुआ। मेरा मानना है कि छात्र मूलरूप से विद्रोही होता है। जहां तक छात्र राजनीति की बात है तो बिना कैंपस के छात्र राजनीति नहीं हो सकती है। हम यह नहीं होने देंगे कि नई शिक्षा नीति के नाम पर दीनानाथ बत्रा सिलेबस में सांप्रदायिकता का कंटेंट डालें या शिक्षा के बजट में कटौती हो। हम उसके लिए छात्रों को लामबंद कर रहे हैं। बेशक भाजपा धर्म के आधार पर छात्रों को बांट रही है लेकिन छात्रों का विद्रोह यहीं तक थमने वाला नहीं। हम जानते हैं कि जेएनयू के बाद अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों की बारी है। एसएफआई आने वाले दिनों के लिए छात्रों को संगठित कर रही है। रोजगार नहीं मिलेगा, आर्थिक सुधार नहीं होंगे, सामाजिक न्याय नहीं होगा तो युवा सड़कों पर आएंगे। अब भी जो छात्रों का जनसैलाब देख रहे हैं उसके लिए छात्रों को आमंत्रित नहीं किया गया है। अपने हकों के लिए सड़कों पर युवा उमड़ते चले गए। मौजूदा सरकार की दिक्कत यह है कि युवा सवाल पूछता है। हमारे सवालों का सरकार के पास न तो जवाब है, न वह देना चाहती है।
विक्रम सिंह, एसएफआई के राष्ट्रीय महासचिव
नौजवान ही इस सरकार को झकझोर सकते हैं
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) की स्थापना 1936 में हुई थी। हमारे देशभर में नौ लाख पंजीकृत सदस्य हैं। मौजूदा घटनाक्रम से छात्र संगठनों में सक्रियता बढ़ी है। नौजवान और छात्र ही हैं जो इस सरकार को झकजोर सकते हैं। सरकार से अपने सवालों का जवाब ले सकते हैं। हम संघर्ष की विरासत और गंगी-जमुनी तहजीब मिटने नहीं देंगे। इस मुद्दे पर मुख्यधारा की अन्य लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टियों से बातचीत जारी है। वे हमारे साथ हैं। आगामी दिनों में हर दिन किसी न किसी कैंपस में प्रदर्शन है। हम पूरे देश में घूमकर छात्रों और नौजवानों को इस सरकार की वादाखिलाफी बताएंगे। मैंने कभी नहीं देखा कि 60 सालों में किसी पार्टी के मैनीफेस्टो में नौजवानों के लिए कुछ खास हो। आखिर नौजवानों को शिक्षा और रोजगार ही तो चाहिए, यही दो चीजें सरकारें दे नहीं रही हैं। नौजवान ऐसी दो धारी तलवार है जिसे हर राजनीतिक पार्टियां भुनाना तो चाहती हैं लेकिन नौजवानों के साथ दगा करेंगी तो वे पलट कर वार भी करेंगे। देशभर में छात्रों को लामबंद करने के लिए हमारी रणनीति तैयार है।
विश्वजीत, राष्ट्रीय महासचिव, एआईएसएफ
लखनऊ से इनपुट अमितांशु पाठक, भोपाल से राजेश सिरोठिया