सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा ने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों की व्याख्या के लिए गठित संविधान पीठ से उन्हें हटाने के लिए सोशल मीडिया और खबरों में चलाए जा रहे अभियान पर मंगलवार को नाराजगी जाहिर की। उन्होंने कहा कि यह किसी जज विशेष के खिलाफ नहीं बल्कि संस्थान की छवि खराब करने की कोशिश है।
जस्टिस अरुण मिश्रा भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों की व्याख्या के लिए गठित पांच सदस्यीय संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं। किसानों के संगठन समेत कुछ पक्षकारों ने न्यायिक नैतिकता के आधार पर जस्टिस मिश्रा से सुनवाई से हटने का अनुरोध करते हुए कहा है कि संविधान पीठ उस निर्णय के सही होने के प्रश्न पर विचार कर रही है जिसके लेखक वह खुद हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल छह मार्च को कहा था कि समान सदस्यों वाली उसकी दो अलग-अलग पीठ के भूमि अधिग्रहण से संबंधित दो अलग-अलग निर्णयों के सही होने के सवाल पर वृहद पीठ विचार करेगी।
जस्टिस मिश्रा ने कहा-किसी भी चीज से प्रभावित नहीं होता
जस्टिस मिश्र ने मंगलवार को इस प्रकरण की सुनवाई के दौरान कहा, 'अगर इस संस्थान की ईमानदारी दांव पर होगी तो मैं त्याग करने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा। मैं पूर्वाग्रही नहीं हूं और इस धरती पर किसी भी चीज से प्रभावित नहीं होता हूं। यदि मैं इस बात से संतुष्ट होऊंगा कि मैं पूर्वाग्रह से प्रभावित हूं तो मैं खुद ही इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लूंगा।' उन्होंने पक्षकारों से कहा कि वह उन्हें इस बारे में संतुष्ट करें कि उन्हें इस प्रकरण की सुनवाई से खुद को क्यों अलग करना चाहिए।
पक्षकारों ने कहा- हो सकता है पक्षपात का तत्व
इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही कुछ पक्षकारों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि पांच सदस्यीय संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायाधीश ने उस फैसले पर हस्ताक्षर किए थे जिसके सही होने के मुद्दे पर यह पीठ विचार कर रही है, इसमें पक्षपात का तत्व हो सकता है।
संविधान पीठ के दूसरे सदस्यों में जस्टिस इन्दिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत सरन, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति एस रवीन्द्र भट्ट शामिल हैं।
क्या था फैसला?
जस्टिस मिश्र वह फैसला सुनाने वाली पीठ के सदस्य थे जिसने कहा था कि सरकारी एजेंसियों द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण भू स्वामी द्वारा मुआवजे की राशि स्वीकार करने में पांच साल तक का विलंब होने के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।