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धारा 377 मामला: पांच जजों की पीठ को सौंपी याचिका

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत स्वेच्छा से दो वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध की श्रेणी में रखने संबंधी शीर्ष अदालत के फैसले पर फिर से गौर करने के लिए दायर सुधारात्मक याचिका को आज उच्चतम न्यायालय ने पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दी।
धारा 377 मामला: पांच जजों की पीठ को सौंपी याचिका

प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर, न्यायमूर्ति ए आर दवे और न्यायमूर्ति जे एस खेहड़ की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि चूंकि इस मामले में संविधान से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं, इसलिए बेहतर होगा कि इसे पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया जाए। पीठ ने कहा कि पांच न्यायाधीशों की पीठ भविष्य में गठित की जाएगी। पीठ को बताया गया कि शीर्ष अदालत के 11 दिसंबर, 2013 के फैसले और पुनर्विचार याचिका पर फिर से गौर करने के लिए आठ सुधारात्मक याचिकायें दायर की गई हैं। इस फैसले में ही न्यायालय ने भारतीय दंड सहिता की धारा 377 के तहत (अप्राकृतिक यौन अपराध) को अपराध की श्रेणी से बाहर करने संबंधी दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय निरस्त कर दिया था। पीठ को सूचित किया गया कि चर्चेज ऑफ नॉर्दर्न इंडिया और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने के खिलाफ हैं।

 

इस मामले की सुनवाई शुरू होते ही भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने के हिमायती वकीलों में से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि यह बहुत बड़े सांविधानिक मुद्दे से संबंधित है। सिब्बल ने कहा कि यह मसला नितांत ही निजी और जीवन के बहुत ही मूल्यवान हिस्से से और आपकी चाहरदीवारी के भीतर यौनाचार के आपके अधिकार से संबंधित है, जिसे असंवैधानिक ठहराया गया है। उन्होंने कहा कि इस फैसले से आपने वर्तमान और भावी पीढ़ी को गरिमा और कलंक तक सीमित कर दिया है। उन्होंने कहा कि मानवीय यौनाचार को कलंकित नहीं किया जाना चाहिए। उनकी संक्षिप्त दलीलों को सुन पीठ ने कहा कि इतने महत्वपूर्ण मामले पर पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा विचार किए जाने की आवश्यकता है।

 

पीठ को सूचित किया गया कि उच्च न्यायालय के फैसले को केन्द्र ने चुनौती दी थी और उसने इस मसले को शीर्ष अदालत पर छोड़ दिया था। हालांकि जब उच्च न्यायालय का निर्णय शीर्ष अदालत ने निरस्त किया तो केन्द्र ने पुनर्विचार याचिका दायर की जिसे खारिज कर दिया गया था। पीठ शीर्ष अदालत के 11 दिसंबर, 2013 के फैसले के खिलाफ समलैंगिक अधिकारों के हिमायती कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन द्वारा दायर सुधारात्मक याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

 

 

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