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बलिया में स्वराज के सात दिन

बहुत कम लोगों को 1942 के बलिया विद्रोह के बारे में पता है जिसे निर्दयता से दबा दिया गया था।
बलिया में स्वराज के सात दिन

ऐसे समय में जब भारत ब्रिटिश शासन से आजाद होने की 68वीं सालगिरह मनाने की तैयारी कर रहा है, उत्तर प्रदेश के उस छोटे से एक गंदे शहर को याद करना काफी महत्वपूर्ण है जिसे सन् 1942 में कुछ दिनों के लिए खुद को एक आजाद राज्य घोषित करने के लिए भयंकर यातनाएं झेलनी पड़ी थीं। चिंटू पांडे के नेतृत्व में आजाद बलिया ने करीब सात दिनों तक अंग्रेजी सेना और पुलिस को कड़ी चुनौती दी, जिसके बाद अंग्रेजों के किसी तरह से क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करने के बाद किए गए अत्याचारों की एक लंबी श्रृंख्ला आज भी उन लोगों के परिजनों को याद है जिनके साथ बलात्कार हुआ, जिन्हें बूरी तरह पीटा गया और  जलाकर, गोली मारकर और प्रताड़ना देकर मार दिया गया।

एक अनुमान के मुताबिक फ्लेचर नामक एक अंग्रेज पुलिस अधिकारी के आदेश पर स्थानीय स्वतंत्रता आंदोलन के 130  नेताओं को फांसी पर लटका दिया गया था। और जिन्हें फांसी नहीं दी गई उन्हें पेड़ों पर चढ़ने के लिए मजबूर कर दिया गया जहां उन्हें संगीनों से भोंक कर मारा गया। पेड़ की ऐसी सजा से बचने में जो कामयाब हुए उन्हें वहां की जेलों में डाल दिया गया जहां पर उन्हें पैरों से लटका कर भूखा रखा गया। पैरों के बल लटकाए जाने से बचने में जो लोग कामयाब हुए उन्हें जेल के फर्श पर एक साथ बैठाकर जबरन इतनी चपातियां खिलाई गईं कि जिससे उन्हें पेचिस हो गया।

बलिया औपनिवेशिक राज की वास्तविकताओं का एक स्पष्ट अंतर्दृष्टि पेश करता है जिसमें भारतीयों जैसी कमजोर नस्लों को अपने गोरे शासकों के हाथों अकल्पनीय अत्याचारों का सामना करना पड़ा। इनमें से कई प्रताड़नाओं का परिणाम मौत हुआ, चाहे वो पेड़ से लटकाकर संगीनों से भोंका जाना हो या बर्फ की सिल्ली पर घंटों तक लेटने के लिए मजबूर कर किया गया हो। ये सभी उन प्रताड़नाओं से जरा भी अलग नहीं थे जो अत्याचार यहूदियों को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मन उत्पीड़कों के हाथों सहना पड़ा था। अंतर इतना ही है कि जर्मनी के ऑश्विच में हुई प्रताड़नाओं को सही से दस्तावेजों में दर्ज किया गया और यातनागृहों में जो हुआ, उसके लिए जो दोषी थे उन्हें न्याय के सामने हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में खड़ा किया गया। यह कार्य अगर मित्र ताकतों( जिसमें ब्रीटेन भी है ) और नाजी युग के बाद के जर्मनी द्वारा नहीं तो निश्चित तौर पर आधुनिक इजराइल राज्य के द्वारा किया गया।

बलिया जैसी जगहों पर जो अत्याचार हुआ जिन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था, अब तक पूरी तरह से दस्तावेजों में प्रलेखित नहीं किया गया है। जहां तक आयुक्त फ्लेचर का सवाल है तो आज तक कोई नहीं जानता कि उसके साथ क्या हुआ और उसे कभी भी इतने सारे निर्दोष नागरिकों की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया गया या नहीं।

औपनिवेशिक युग की अपमानजनक प्रवृत्ति भारत की स्वतंत्रता के बाद भी लंबे समय तक प्रचलन में रही : 1947 के बाद काम की तलाश में ब्रिटेन पहुंचे वे भारतीय अपने साथ हुए व्यवहार पर आज भी अपनी घबराहट को याद करते हैं। लंदन जैसे बड़े शहरों या अन्य जगहों पर रहने की जगह तलाश करना पहली समस्या थी। आप कैसे निपटेंगे उस स्थिति से जब आपको घरों के गेट पर टंगे बोर्डों पर लिखा मिले ‘कुत्ते, अश्वेतों या भारतीयों के लिए कोई जगह नहीं है’?  कभी कभी यह भेदभाव बहुत तीक्ष्ण होता था। एक भारतीय दोस्त जो 1960 के दशक में ब्रिटेन के एक स्कूल में जाया करता था, याद करता है कि कैसे लड़कों का एक समूह उस पर तंज कसता था, जो उसके पास से बिंग कॉर्स्बी का गाना, ‘मैं एक सफेद क्रिसमस का सपना देख रहा हूं’, गाते हुए गुजरते थे। वह बेचारा जो नहीं समझ पाता था कि उसका मजाक उड़ाया जा रहा था अपने माता-पिता से पूछता कि उनलोगों को कैसे पता चला कि यह मेरा सबसे पसंदीदा गाना है।

हाल के वर्षों में कुछ इतिहासकारों का ये कहना एक फैशन बन गया है कि 200 साल के औपनिवेशिक शासन का दौर वास्तव में उतना भी बूरा नहीं था और बल्कि भारत ने सज्जन व्यापारियों के भेष में आए ईस्ट इंडिया कंपनी के बदमाशों और ठगों के समूह के हांथों शुरुआती दौर में जितना खोया था उससे कहीं अधिक बाद में ब्रिटीश सरकार से पाया है। व्यवहार के आधार पर देखें तो कंपनी के द्वारा और बाद में राजमहल के जरिए की गई क्रूरता और शोषण में कोई अंतर नहीं था। एक छोटा सा उदाहरण ही पर्याप्त होना चाहिए। महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र और उत्तराधिकारी दलीप सिंह को इसाइयत अपनाने के लिए मजबूर करने वाले ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधी थे। और लाहौर राजकोष की लूट करने वाले ब्रिटिश सरकार के अधिकारी थे, जिनका नेतृत्व करने के बाद युवा दलीप सिंह को अपने हांथों से महारानी विक्टोरिया को उस कोहिनूर हीरे को सौंपने के लिए प्रोत्साहित करने वाला लार्ड डलहौजी था। आज वही कोहिनूर हीरा ब्रिटिश सम्राट के ताज का मुख्य आकर्षण है।

बलिया में  200 साल बाद आज भी यह काबिले गौर है कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं द्वारा ब्रिटिश प्रशासन के साथ कैसा व्यवहार किया गया था। ब्रिटिश अधिकारियों और उनके स्थानीय सहयोगियों को उस आंदोलन के दौरान कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया।

यह बात और भी काबिले गौर है कि इस दौरान वहां हिंदु मुस्लिम एकता दृढ़ता से कायम रही। यह बात और है कि जब वे वापस बलिया लौटे तो अंग्रेजों ने उनपर हर किस्म का जुल्म ढाया। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि शहर में राष्ट्रीय झंडा फहराया जाए और जो भी ऐसा करने की कोशिश करता वे उसे गोली मार देते। इस सबके बीच एक मुस्लिम युवक निकला जो झंडा फहराने की कोशिश करते हुए मारा गया। बलिया में आज भी ये बड़े फख्र की बात है कि झंडा जमीन पर गिरने से पहले आजादी के दिवानों ने उसे थाम लिया। एक के बाद एक 11 लोग ब्रितानी हुकूमत के सिपाहियों द्वारा मार डाले गए।

उल्लेखनीय है कि बलिया के नागरिकों की बहादुरी की ये मिसाल, जिसमें हिंदु मुस्लिम दोनों शामिल थे, ब्रिटिश मीडिया में कभी नहीं छपी। वह दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था जब विंस्टन चर्चिल प्रधानमंत्री थे। जब युद्ध समाप्ति की ओर था उन्होंने एलान किया कि ब्रिटेन भारतीय साम्राज्य को कभी नहीं छोड़ेगा। लेकिन चर्चिल यह भांपने में नाकाम रहे कि बलिया उस आग को हवा दे सकता है जो पांच साल बाद भारत और भारत के बाहर औपनिवेशिक राज को खत्म कर सकती है। विडंबना देखिए आज लंदन में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने चर्चिल और गांधी की मूर्तियां एक साथ खड़ी हैं।  

(लेखक श्याम भाटिया हाल तक एशियन अफेयर्स पत्रिका के संपादक रहे हैं)       

 

 

 

 

 

 

 

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