Advertisement

शहरनामा/मैकलुस्कीगंज: एंग्लो इंडियन परिवारों की विरासत वाला शहर

मिनी लंदन की दास्तां झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 65 किलोमीटर दूर, घने जंगल, पहाड़ और पहाड़ी नदी के...
शहरनामा/मैकलुस्कीगंज: एंग्लो इंडियन परिवारों की विरासत वाला शहर

मिनी लंदन की दास्तां

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 65 किलोमीटर दूर, घने जंगल, पहाड़ और पहाड़ी नदी के बीच से गुजरते किसी कस्बे में पहुंच जाएं और पश्चिमी शैली के बंगले दिखने लगें, तो समझ लीजिए मैकलुस्कीगंज आ गया। वहां चामा, रामदागादो, केदल, दुली, कोनका, मायापुर जैसे आदिवासी गांवों के बीच ब्रिटिश काल के खूबसूरत बंगले देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। बेशक, अब अंग्रेज यहां न के बराबर हैं, सात-आठ दशक पुराना मैकलुस्कीगंज भी कहीं खो गया है लेकिन फिर भी यहां की मिट्टी में कुछ है, जो लोगों को खींचता है।

वह प्रेम कहानी जिससे बसा गांव

मैकलुस्कीगंज का इतिहास बड़ा दिलचस्प है। एक स्कॉटिश युवा को एक ब्राह्मण युवती में प्रेम हुआ और तमाम विरोधों के बावजूद दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद अर्नेस्ट टिमोथी मैकक्‍लस्‍की को एंग्लो इंडियन समुदाय की चिंता हुई और कई प्रयासों के बाद 1935 में रातु महाराज से दस हजार एकड़ जमीन लीज पर लेकर उन्होंने इस अनोखे गांव की नींव रख दी। यही गांव मैकलुस्कीगंज हो गया और फिर उन्हीं के नाम पर यहां के रेलवे स्टेशन लपरा का नाम बदलकर मैकलुस्कीगंज रखा गया।

 उपन्यास कथा

बाद के वर्षों में यह कस्बा इतना प्रसिद्ध हुआ कि बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा ने इसकी पृष्ठभूमि पर एक लोकप्रिय उपन्यास रचा। विकास कुमार झा ने इसी कस्‍बे पर मैकलुस्‍कीगंज के नाम से उपन्‍यास की रचना और 36 चौरंगी लेन की स्क्रिप्ट भी यहीं लिखी गई। एक वक्त था जब अभिनेत्री अपर्णा सेन का बंगला भी यहीं था। लेकिन समय बदला और मैकलुस्कीगंज से कई परिवार इंग्लैंड चले गए। सीमित परिवारों और ढेर से खंडहर में तब्दील होते बंगले मैकलुस्कीगंज की चमक फीकी करते, उससे पहले ही कुछ स्थानीय लोगों के प्रयास ने इसे ‘घोस्ट टाउन’ के रूप में चर्चित कर दिया और पर्यटकों की जो रौनक खो गई थी, वह फिर होने लगी।

बिखरते सपने

एंग्लो इंडियन समुदाय के लिए एकमात्र गांव होना ही इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण रहा और यही इसके लिए अभिशाप भी बन गया। 1930 के दशक में करीब चार सौ एंग्लो इंडियन परिवार अपनी पाश्चात्य सभ्यता यानी खान-पान, पहनावा, संगीत, शानो-शौकत के लिए हमेशा चर्चा का केंद्र रहे। कई-कई एकड़ के प्लॉट में छोटे-बड़े बंगले बनाकर वे बाकी दुनिया से बेखबर जिंदगी का लुत्फ उठाते रहे। लोग उन पर अखबारों में फीचर तो लिखते लेकिन किसी का ध्यान इस पर नहीं गया कि उन्हें भी मूलभूत सुविधाएं यानी अस्पताल, स्कूल और आय के स्रोत की जरूरत पड़ेगी। नई पीढ़ी ने बाहर का रुख कर लिया और 1965 आते-आते यहां गिने-चुने परिवार रह गए। अब तो उनकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। लेकिन जो परिवार यहां बच गए हैं, उनके घर की दीवारों पर टंगी तस्वीरें उनके समृद्ध इतिहास की गवाही देती हैं। लेकिन सिर्फ समृद्ध इतिहास के सहारे जीवन नहीं चला करता। इतना जरूर है कि कच्ची सड़के अब पक्की हो गई हैं। इन पक्की सड़कों से लोग पहुंचते हैं और रहन-सहन, भाषा सबमें बदल गए एंग्लो इंडियन परिवारों से बात करते हैं। कभी अंग्रेज रहे ये परिवार अब बोलचाल और संस्कृति में लगभग देसी हो गए हैं। पर्यटक जब लौटते हैं, तो असाधरण कस्बे को साधारण गांव में तब्दील होते देख मिनी लंदन की नई-पुरानी यादें उनके साथ होती हैं।

स्कूल खुला तो कस्बा खिला

एक वक्त था, जब लगने लगा था कि मैकलुस्कीगंज का अस्तित्व मिटने को है। लोग अपने इस खूबसूरत सपनों के कस्बे को छोड़कर जाने लगे। नक्सल समस्या के कारण पर्यटक वैसे ही आना कम हो चुके थे। सन्नाटा यहां पूरी तरह इस पर कब्जा जमाता, उससे पहले 1997 में बिहार के मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक ऍलफ्रिड डी रोजॅरियो ने डॉन बॉस्को स्कूल की एक शाखा यहां खोल दी। ऍलफ्रिड डी रोजॅरियो ने एंग्लो इंडियन परिवारों को अपने-अपने बंगलों में छात्रों और छात्राओं को रखने का प्रस्ताव दिया। प्रस्ताव लोगों को भा गया और कई परिवारों ने अपने बंगलों को हॉस्टल में तब्दील कर दिया। साल भर में ही यहां करीब तीन सौ से अधिक बाहरी बच्चे रहकर पढ़ने लगे। बेरोजगारी के बादल छंटने लगे। एंग्लो इंडियन परिवारों को आय का एक आधार मिला, रोजगार के अवसर पैदा हुए और देखते ही देखते पुराने बंगलों की सजावट वाले इस इलाके में पलाश, महुआ, लीची के जंगलों के अलावा दूसरा आकर्षण भी पैदा हो गया।

प्रकृति का आनंद

अगर किसी को एंग्लो इंडियन के इतिहास में रुचि न हो, उस समुदाय के प्रति उत्सुकता न हो, तो भी यह इलाका ऐसा है कि एक बार यहां आकर जंगलों को देखना, शहरों में गुम हो गई हरियाली को देखना बुरा सौदा नहीं है। विरासती मकानों के अलावा भी यहां बहुत कुछ है, जो आपका मन मोह लेंगे। डेगा डेगी ऐसी ही जगह है, जहां जंगल के बीच बहती चट्टी नदी की रेत पर साल के पहले और अंतिम दिन काफी भीड़ जुटती है। नदी चट्टान को कैसे काटती है, इसका दिलकश नमूना देखना है, तो कुंवारपतरा में स्वागत है। कुछ एडवेंचर का मूड हो, तो नकटा चले आइए। दामोदर नदी और चट्टी नदी के संगम में एक जगह ऐसी भी है, जहां ठंडे और गर्म पानी का एहसास मिलता है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad