उपराष्ट्रपति ने कहा कि ऐसा तीन स्रोतों से हो रहा है। पहला, तात्कालिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जन प्रतिनिधियों द्वारा दिए जाने वाले सेलेक्टिव बयान, दूसरा, खुद सर्वोच्च अदालत के ऐसे निर्देश जो कि दृढ़ता और असमंजस के बीच लड़खड़ाते दिखते हैं और तीसरा स्रोत, एक ऐसे समाज में, जिसका चरित्र व्यापक रूप से धार्मिक चैतन्यता का है, इसके औचित्य पर सवाल खड़े करने की समाजशास्त्रीय सोच से संबंधित है।
शुक्रवार को दिल्ली में माधव गोडबोले की पुस्तक सेक्युलरिज्मः इंडिया एट ए क्रॉसरोड के विमोचन के अवसर पर उपराष्ट्रपति ने कहा कि इन तीनों सवालों का जवाब शायद उलटे क्रम में दिया जाना चाहिए। हामिद अंसारी ने कहा कि हकीकत यह है कि हमारा समाज व्यापक विविधता से भरा है। 1.3 अरब की आबादी में 4635 से अधिक समुदाय रहते हैं जिनमें 78 फीसदी ऐसे हैं जो न सिर्फ भाषाई और सांस्कृतिक रूप से बल्कि सामाजिक रूप से भी विभिन्न वर्गों में बटे हैं। इसमें 19.4 फीसदी धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हैं। इस क्रम में उपराष्ट्रपति ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि पंडित नेहरू ने एंड्रे मेलरॉक्स से बातचीत में एक धार्मिक देश में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण करने की कठिनाइयों का जिक्र किया था।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारत सरकार ने खुद को लोकतांत्रिक राष्ट्र का ढांचा दिया जिसके जरिये न्याय, आजादी, समानता और बंधुत्व का लक्ष्य हासिल किया जाना था। तब ऐसी राह को चुनने की चुनौती थी जो इतनी अधिक विविधता के बीच वास्तविक बराबरी ला सके। इस चुनौती का समाधान एक अनूठे भारतीय तरीके के रूप में निकला। यह तरीका दो विचार को मिलाकर तैयार हुआ। पहला, सभी धर्मों को बराबरी और दूसरा राजनीति को धर्म से अलग रखने की सोच। उपराष्ट्रपति ने कहा कि समय के साथ इसके कुछ उलझाव भी दृष्टिगोचर हुए। यह तथ्य कि उपरोक्त दोनों ही सिद्धांतों की जड़ भारतीय विचार में थी, उसे बढ़ावा दिया जाना था जबकि एक तरफ तो स्वीकृति की प्रक्रिया चली जबकि दूसरी ओर उसे अमली जामा पहनाने से बाधित करने के लिए जगह बनाई गई। हामिद अंसारी ने माधव गोडबोले की किताब का जिक्र करते हुए कहा कि इसका एक अच्छा खासा हिस्सा इन सिद्धांतों से भटकाव के पुख्ता उदाहरणों को समर्पित है। ऐसे में किताब में लेखक द्वारा यह लिखा जाना कि ‘किसी देश को धर्मनिरपेक्ष होने के लिए सिर्फ यह जरूरी नहीं है कि संविधान धर्मनिरपेक्ष हो या यहां कि सरकार सभी धर्मों को एक बराबर माने या सभी से बराबर की दूरी रखे, या किसी खास धर्म को राष्ट्र धर्म का दर्जा न दे। इन सभी बातों के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि उस देश का समाज भी धर्मनिरपेक्ष हो और उसके नागरिक भी धर्मनिरपेक्ष हों’ बेहद अहम है। लेखक का यह लिखना भी महत्वपूर्ण है कि धर्मनिरपेक्षता को जीवनशैली होना चाहिए और इसे स्थापित करने के लिए एक व्यवस्था बनाई जानी चाहिए जो धर्मनिरपेक्षता को संविधान के सिद्धांत से निकाल कर सरकारी और निजी जीवन को अंग बनाए। यदि धर्मनिरपेक्षता को भारत में जीवन का अंग बनाना है तो अभी बड़ा काम किया जाना जरूरी है। ऐसा तभी हो सकता है जब इसके लिए वास्तविक राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक कमिटमेंट हो। उपराष्ट्रपति ने कहा कि ऐसा होना अभी बाकी है और उन्हें आशा है कि यह किताब नागरिकों को यह चुनौती स्वीकार करने में मदद करेगी।