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हिंदी समाज को अच्छी तरह समझते थे विनोद मेहता

विनोद मेहता की कई बातें जो उन्हें अन्य संपादकों से अलग करती थीं, उनमें सबसे बड़ी यह है कि वे लोकतंत्र में सिर्फ यकीन ही नहीं करते थे, उसे पत्रकारिता में भी पूरी तरह अपनाया हुआ था। संपादक के नाम पत्र कॉलम में अपने खिलाफ लिखी चिट्ठियों को भी वे जिस तरह तवज्जो देते थे, उसकी मिसाल शायद ही अन्यत्र मिले।
हिंदी समाज को अच्छी तरह समझते थे विनोद मेहता

यह आम अनुभव है कि अपने या अपनी किसी बात के खिलाफ आए पत्रों को संपादक तरजीह नहीं देते। (इस बारे में ज्यादा कुछ कहने की शायद जरूरत नहीं है।) लेकिन विनोद जी ऐसे पत्रों को न सिर्फ पूरा पढ़ते थे, उसे छापते थे और उस पर अलग से कोई टिप्पणी करने से बचते थे। खास बात यह थी कि ऐसे पत्र आने का उन्हें पूरा अंदाजा भी होता था। एक तरह से, वे जो कंटेंट परोसते थे, उस पर होने वाली प्रतिक्रिया का भी उन्हें पूरा अंदाजा था। हिंदी की कई स्टोरीज को अंग्रेजी आउटलुक में भी छापने की एक वजह यह भी थी।

हिंदी में आउटलुक साप्ताहिक को लॉन्च किए जाने से पहले उन्हें किसी हिंदी पत्रिका में जाने वाली सामग्रियों के जेनरेशन का सीधा अनुभव नहीं था। हिंदी पत्रकारिता में वे रमे हुए नहीं थे लेकिन हिंदी समाज का उन्हें पूरा अंदाजा था। इसलिए अगले सप्ताह जाने वाली सामग्रियों की प्लानिंग के वक्त वे तब खास तौर से इस बात को लेकर जरूर सतर्क करते थे जब अंग्रेजी की कोई सामग्री हिंदी में जाने वाली हो। यही नहीं, हिंदी आउटलुक को उन्होंने अनुदित पत्रिका बनने से बचाए रखा तो उसकी बड़ी वजह मुझे यही लगती है कि वे दोनों पाठक वर्गों के अंतर को ठीक ढंग से समझते थे। फिर भी, कंटेंट को लेकर वे सतर्क रहते थे। मुझे तो यह भी लगता है कि कंटेंट, खास तौर से वैल्यू एडिशन वगैरह को लेकर हिंदी पत्रकारिता, एक तरह से अंग्रेजी पत्रकारिता में भी, जो शोर हाल के वर्षों में होने लगा है, वह विनोद जी पायनियर के समय से ही कर रहे थे। उनके समय के पायनियर की इस वजह से भी कद्र थी। उसके विज्ञापन याद रखने लायक हैं जिनमें कहा ही जाता था कि हम नं. 2 हैं- अन्य अखबार आलू की तरह हैं जो हर जगह मिलता है, हम चिप्स की तरह हैं जिसे आप आराम से इंज्वॉय कर सकते हैं; अन्य अखबार संतरे की तरह हैं, हम जूस की तरह-रस निचोडक़र पेश किए गए। एक अन्य विज्ञापन में कहा जाता था कि कोई मंत्री विदेश गया है तो यह खबर किसी भी अखबार में छप सकती है लेकिन उस मंत्री ने अगर वहां कुछ खास किया है तो इन डेप्थ जानकारी सिर्फ पायनियर में ही मिलेगी। विज्ञापन यह बताते थे कि सभी अखबारों में सबकुछ हो सकता है जिनमें से आपको अपने लिए छांटना पड़ सकता है, हम तो सबकुछ छांट-छानकर आपको परोसते हैं। ऐसा स्तर विनोद जी ने आउटलुक समूह में भी बनाए रखा। वे अंग्रेजी में ही नहीं, हिंदी में भी यह स्तर बनाए रखने पर जोर देते थे। वे पाठकों के सामने सभी पक्ष एकसाथ रखने पर जोर देते थे ताकि बात हर कोण से उसकी जानकारी में आ जाए। टीवी बहसों में भी उनकी अलग लाइन की वजह यही रही है कि वे किसी भी वक्त सिर्फ एक ही तरीके से नहीं सोचते थे-वे आंख-कान और दिमाग खुला रखते थे।

हर संपादक कंटेंट को लेकर सतर्क रहता ही है, यह उसका काम है लेकिन विनोद जी के साथ इसकी प्लानिंग करना एक अलग अनुभव था। वे प्लानिंग मीटिंग में स्टोरी आइडिया सुनने के बाद जब बोलते थे तो स्टोरी अपने आप दूसरे लेवल पर चली जाती थी। उनकी यह खासियत ही उन्हें अन्य संपादकों से अलग करती थी: पहला, वे आराम से लेकिन संक्षेप में, सुनते थे और फिर अपना आइडिया संक्षेप में रख देते थे; दूसरा, अपने आइडिया को वे लादते कभी नहीं थे, उसे हिंदी की पत्रिका और हिंदी पाठकों के मन-मिजाज के अनुसार ट्यून करने की पूरी इजाजत थी।

मैं तो उन्हें प्रोफेशनल से भी आगे बढ़कर काम के प्रति समर्पित कहूंगा। एक दिन हम सुबह दफ्तर आए तो हमें पता लगा कि उनके घर में किन्हीं का देहांत हो गया है। अपने-अपने अनुभवों के आधार पर हमने सोचा कि एक बजे के आसपास उनके घर चला जाए। लगभग 12:30 बजे हम जाने को तैयार हो रहे थे तो विनोद जी दफ्तर आ रहे थे। वे श्मशान घाट से सीधे दफ्तर पहुंच गए। लेकिन ऐसा भी नहीं कि वे अपने सहयोगियों से भी ऐसी ही उम्मीद करते हों। किसी सहयोगी के यहां किसी दुखद सूचना पर वे कम-से-कम फोन पर तो जरूर ही बात करना नहीं भूलते थे।

उनके इसी मानवीय पक्ष को लेकर एक बात और। उनके कुत्ते 'एडिटर’ और आवारा कुत्तों के प्रति उनके प्रेम की खूब चर्चा होती रही है। लेकिन आउटलुक दफ्तर के बाहर जूते पॉलिश करने वाले बच्चों के प्रति उनके लगाव के बारे में उनके सहयोगियों से पूछा जा सकता है। वे भले ही चमकते जूते के साथ गाड़ी से उतरें, कई बार किसी बच्चे से वे अपने जूते पॉलिश कराते, सिर्फ इसलिए कि उसकी मदद की जा सके।

(लेखक हिंदी आउटलुक साप्ताहिक में कार्यकारी संपादक रहे हैं।)

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