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क्यों बढ़ रही है भारत में कोचिंग इंडस्ट्री, क्या है इसका विकल्प

चीन सरकार ने पिछले दिनों एक नीति जारी की। स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले प्रमुख विषयों के लिए फॉर प्रॉफिट...
क्यों बढ़ रही है भारत में कोचिंग इंडस्ट्री, क्या है इसका विकल्प

चीन सरकार ने पिछले दिनों एक नीति जारी की। स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले प्रमुख विषयों के लिए फॉर प्रॉफिट ट्यूटोरियल पर रोक लगा दी गई है। यानी मुनाफा कमाने के इरादे से कोई ट्यूशन नहीं पढ़ा सकता है। चीन सरकार का कहना है कि इसका मकसद परिवारों पर आर्थिक दबाव कम करना है, क्योंकि बेहद मुनाफे वाले इस सेक्टर में लूट मची हुई थी। सरकार का यह कदम ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों संस्थानों के लिए है। ट्यूटोरियल लाइव स्ट्रीमिंग नहीं कर सकते। इस सेक्टर की कंपनियों के लिए विलय-अधिग्रहण, विदेशी निवेश, आइपीओ पर भी मनाही है। इससे वहां 120 अरब डॉलर (नौ लाख करोड़ रुपये) के ट्यूटोरियल सेक्टर के लिए रास्ते बंद होते नजर आ रहे हैं।

बीते एक दशक में चीन में एजुकेशन टेक्नोलॉजी (एजुटेक) इंडस्ट्री तेजी से बढ़ी है। वहां यूनिवर्सिटी दाखिले के लिए ‘गाओकाओ’ प्रवेश परीक्षा होती है। यही परीक्षा इस इंडस्ट्री के फलने-फूलने का आधार है। छात्र यह परीक्षा एक बार ही दे सकते हैं, जिस पर उनकी आगे की पढ़ाई, करिअर, नौकरी, सोशल स्टेटस सब कुछ निर्भर करता है। इसलिए माता-पिता छोटे बच्चों का भी ‘अर्ली एमबीए’ जैसे कोर्स में दाखिला कराते हैं। जाहिर है, इस व्यवस्था में संपन्न घरों के बच्चे ही आगे निकलते हैं। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इसे सामाजिक समस्या बताया था। गाओकाओ के लिए स्कूल के बाद, सप्ताहांत में और छुट्टियों में कक्षाएं आयोजित की जाती हैं। अब इन सब पर रोक लगा दी गई है।

गाओकाओ की तुलना भारत में आइआइटी-जेईई और नीट परीक्षाओं से की जा सकती है, जिसके लिए ट्यूटोरियल कंपनियां अभिभावकों को बड़े-बड़े सपने दिखाती हैं और मोटी फीस वसूलती हैं। फिलहाल भारत में चीन जैसे प्रतिबंध के आसार नहीं हैं, लेकिन नई शिक्षा नीति में कोचिंग की तीखी आलोचना की गई है। पिछले साल 29 जुलाई को जारी नीति में कहा गया है, “मौजूदा परीक्षा व्यवस्था कोचिंग संस्कृति को बढ़ावा देने वाली है। छात्रों का बहुमूल्य समय सही अर्थों में सीखने के बजाय कोचिंग और परीक्षा की तैयारियों में चला जाता है। प्रवेश परीक्षाओं में बदलाव किए जाएंगे ताकि कोचिंग क्लास की जरूरत खत्म की जा सके। इसके लिए बोर्ड परीक्षाओं और उच्च शिक्षा के लिए नेशनल टेस्टिंग एजेंसी की परीक्षाओं में भी बदलाव किए जाएंगे।”

1986 के बाद आई नई नीति भले कोचिंग को हतोत्साहित करने वाली हो, वास्तव में ऐसा दिखता नहीं। गांव-शहर हर जगह कोचिंग क्लास बढ़ती जा रही हैं। कोचिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के महासचिव आलोक दीक्षित आउटलुक से कहते हैं, “भारत में कोचिंग आदि काल से चली आ रही है। कोच और स्कूल टीचर में बुनियादी फर्क यह है कि कोच बच्चे पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देता है। आज कंपनियां डिग्री कम, स्किल ज्यादा देखती हैं। यह स्किल कोच ही निखारता है।”

 

कोचिंग की मांग क्यों

यह सच है कि स्कूल में शिक्षक के पास हर छात्र के लिए पर्याप्त समय नहीं होता है। कक्षा में औसतन 40 छात्र होने चाहिए, जबकि अनेक स्कूलों में 50 से 60 छात्र तक होते हैं। बढ़ती कोचिंग का एक और कारण स्कूलों में शिक्षकों की कमी है। सितंबर 2020 में सरकार ने लोकसभा में बताया कि देश के सरकारी स्कूलों में 17 फीसदी पद खाली हैं। यही स्थिति उच्च शिक्षा संस्थानों की है। नीति में इन बातों पर ध्यान दिए बिना कोचिंग कल्चर खत्म करने की बात कही गई है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व डिप्टी डीन (एडमिशन) गुरप्रीत टुटेजा कहते हैं, “स्कूल-कॉलेज में शिक्षकों की कमी को तो कुछ हद तक एडहॉक भर्तियों से पूरा कर लिया जाता है, समस्या यह है कि यहां विषय समझाने के लिए शिक्षकों को बहुत कम समय मिलता है। कोचिंग एक तरह की पूरक व्यवस्था है। कोचिंग सेंटर विषय के कॉन्सेप्ट को समझने में छात्रों की बहुत मदद करते हैं।” कोचिंग फेडरेशन के दीक्षित के अनुसार कोच किसी भी विषय को विस्तार से समझाता है। इससे छात्रों को समझने में आसानी होती है।

कोचिंग की और भी वजहें हैं। कई बार माता-पिता को लगता है कि बच्चे घर में ठीक से पढ़ाई नहीं करते, इसलिए वे कोचिंग संस्थान में उनका दाखिला करा देते हैं। प्रो. टुटेजा के अनुसार गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण छात्र या माता-पिता मौका खोना नहीं चाहते। आस-पास का भी दबाव होता है। किसी के ज्यादा नंबर आए तो हम भी बच्चों से वैसा करने के लिए कहते हैं।

माता-पिता और छात्रों की ललक कहें या मजबूरी, कोचिंग की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। एसोचैम की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार महानगरों में प्राइमरी स्कूल के 87 फीसदी और हाइस्कूल के 95 फीसदी छात्र प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं। ग्लोबल एजुकेशन सेंसस की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 55 फीसदी छात्र कहीं न कहीं ट्यूशन पढ़ते हैं। इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे के अनुसार भारतीय बच्चे सप्ताह में औसतन नौ घंटे ट्यूशन में बिताते हैं।

नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के मुताबिक जिन राज्यों में छात्र सरकारी स्कूलों में अधिक जाते हैं वहां प्राइवेट ट्यूशन का चलन ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में सर्वाधिक 84 फीसदी शहरी स्कूली बच्चे ट्यूशन लेते हैं। ओडिशा में यह 56, बिहार में 58 और असम में 62 फीसदी है। तेलंगाना में प्राइवेट ट्यूशन पर निर्भरता सिर्फ पांच फीसदी छात्रों की है और वहां 12 फीसदी शहरी छात्र ही सरकारी स्कूलों में जाते हैं।

प्राइवेट ट्यूशन लोगों की जेब पर बहुत भारी पड़ता है। आम परिवार की कमाई का 12 फीसदी बच्चों की पढ़ाई पर खर्च होता है। प्राइवेट ट्यूशन से यह खर्च काफी बढ़ जाता है। औसतन शहरी इलाकों में प्राइवेट ट्यूशन से पढ़ाई का खर्च 53 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 75 फीसदी बढ़ता है।

 

स्कूल पाठ्यक्रमों की कोचिंग गलत

कोचिंग इंस्टीट्यूट विद्यामंदिर क्लासेज के डायरेक्टर सौरभ कुमार स्कूल पाठ्यक्रमों की कोचिंग को सही नहीं मानते। वे कहते हैं, “आप स्कूल में पढ़ाई के लिए पैसे दे रहे हैं। स्कूल टीचर ने नहीं पढ़ाया और उसके लिए अलग से ट्यूटर को पैसा देना पड़े तो यह गलत है।” दीक्षित भी कहते हैं कि स्कूल टीचर अगर स्कूल में न पढ़ा कर बाहर बच्चों को पढ़ाता है तो वह गलत है। लेकिन जो टीचर स्कूल या कॉलेज से जुड़े नहीं हैं, वे तो स्कूल की कमियों को पूरा कर रहे हैं।

सौरभ के अनुसार स्कूलों में नियमित पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं। वहां इंजीनियरिंग, मेडिकल या ऐसी अन्य परीक्षाओं की तैयारी नहीं कराई जाती। जहां स्पेशलाइज्ड कोचिंग की जरूरत है वहां तो राज्य सरकारें भी कोचिंग संस्थानों की मदद ले रही हैं। स्पेशलाइज्ड कोचिंग की जरूरत हमेशा रहेगी।

 

एजुटेक इंडस्ट्री विलय और अधिग्रहण बड़े पैमाने पर

नई शिक्षा नीति में कोचिंग संस्थानों की आलोचना के साथ एजुकेशन टेक्नोलॉजी पर जोर दिया गया है। शायद इसीलिए इस सेगमेंट में बड़े पैमाने पर निवेश हो रहा है। पिछले साल लॉकडाउन के बाद ऑनलाइन पढ़ाई का चलन बढ़ा तो एजुटेक सेक्टर में विलय और अधिग्रहण बड़े पैमाने पर होने लगे। खुद को बनाए रखने के लिए कंपनियां प्रतिस्पर्धियों का अधिग्रहण कर रही हैं। मार्च में बाइजूज ने एक अरब डॉलर में आकाश एजुकेशनल सर्विसेज को खरीदा। यह भारत के एजुकेशन सेक्टर में अब तक का सबसे बड़ा सौदा है।

बाइजूज ने 26 जुलाई को प्रोफेशनल और उच्च शिक्षा प्लेटफॉर्म ग्रेट लर्निंग को 60 करोड़ डॉलर में और टॉपर को 15 करोड़ डॉलर में खरीदने की घोषणा की। बाइजूज ने छह महीने में दो अरब डॉलर में चार बड़ी प्रतिस्पर्धी कंपनियों को खरीदा है। बेंगलूरू स्थित वेदांतु ने भी फरवरी में इंस्टासॉल्व का अधिग्रहण किया था। नीति में स्कूल पाठ्यक्रम में कोडिंग को भी शामिल करने का प्रस्ताव है। शायद इसीलिए व्हाइटहैट जूनियर, हैकरकिड, कोडिंग निंजा जैसे कोडिंग प्लेटफॉर्म का अधिग्रहण भी किया गया है।

 

दस साल में 30 अरब डॉलर की होगी एजुटेक इंडस्ट्री

ब्रोकरेज फर्म आनंद राठी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के एजुटेक सेक्टर में 2020 में 2.1 अरब डॉलर का निवेश हुआ। उससे पहले पूरे एक दशक में 1.7 अरब डॉलर का निवेश हुआ था। नीलसन की रिपोर्ट बताती है कि 2020 में इस सेक्टर में 2.2 अरब डॉलर का निवेश हुआ, 2019 में सिर्फ 55 करोड़ डॉलर का निवेश हुआ था। आरबीएसए एडवाइजर्स की अप्रैल 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत की एजुटेक इंडस्ट्री अभी 70 से 80 करोड़ डॉलर की है। दस साल में यह 30 अरब डॉलर की हो जाएगी।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना ने एजुटेक को तीन साल आगे कर दिया है। इसलिए अच्छा प्रदर्शन करने वाली कंपनियों को ऊंची कीमत पर खरीदा जा रहा है। इस सेक्टर में मार्जिन 70 से 80 फीसदी तक है। चीन में कोचिंग पर प्रतिबंध भारतीय कंपनियों के लिए अच्छा मौका हो सकता है, क्योंकि वहां माता-पिता अब विदेशी ऑनलाइन कोचिंग संस्थानों का रुख करेंगे।

लेकिन दीक्षित के अनुसार कोचिंग का व्यवसायीकरण एक हद तक ही उचित है। वे भारी-भरकम निवेश या आइपीओ जैसे कदमों का समर्थन नहीं करते। वे कहते हैं, “एजुटेक कंपनियों के लेक्चर आमतौर पर रिकॉर्डेड या ऑनलाइन होते हैं। स्कूलों की तरह यहां भी कोई टीचर हर छात्र पर व्यक्तिगत तौर पर ध्यान नहीं देता है। इसका असर पांच-दस साल बाद दिखेगा।” वैसे, विदेशी निवेश के मुद्दे पर विद्यामंदिर के सौरभ का तर्क कुछ अलग है। वे कहते हैं, “जब कोचिंग संस्थानों में सरकार विदेशी कंपनियों को निवेश की अनुमति दे रही है, तो आइपीओ की भी इजाजत देनी पड़ेगी, वर्ना निवेशक कंपनियों से बाहर कैसे निकलेंगे।”

 

प्रवेश परीक्षाओं को सामान्य कक्षाओं से जोड़ने का सुझाव

शिक्षा नीति में कोचिंग संस्कृति खत्म करने की बात कही गई है। प्रो. टुटेजा के अनुसार एक विकल्प यह हो सकता है कि प्रवेश परीक्षाओं को सामान्य कक्षाओं से लिंक किया जाए। उदाहरण के लिए मैथ्स ऑनर्स का कोई छात्र एमबीए की प्रवेश परीक्षा (कैट) देना चाहता है, तो उसे कॉलेज में ही क्वांटिटेटिव एनालिसिस और जीके के दो विषय अतिरिक्त पढ़ाए जाएं। कोई यूपीएससी की परीक्षा देना चाहता है, तो उसे कॉलेज में ही उससे जुड़े अतिरिक्त विषय पढ़ाए जाएं। मार्कशीट पर भी उसका जिक्र हो। तब छात्र को उन विषयों को समझने के लिए अलग ट्यूशन की जरूरत नहीं पड़ेगी। टुटेजा विदेशों में चलने वाले हाइब्रिड लर्निंग कॉन्सेप्ट को भी आजमाने की बात करते हैं। इसमें छात्रों को वीडियो दिया जाता है। वे घर से वीडियो देखकर आते हैं और अगले दिन क्लास में टीचर उस पर चर्चा करते हैं।

दीक्षित कहते हैं, स्कूल टीचर अगर ईमानदारी से पढ़ाएं तो छात्रों को स्कूली विषयों के लिए कोचिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता। विद्यामंदिर के सौरभ इसकी वजह बताते हैं, “भारत में 80 फीसदी ऐसे लोग टीचर बनते हैं जिनके पास और कोई विकल्प नहीं होता। अमेरिका, चीन, कोरिया जैसे देशों में टीचर बनना पैशन है। वहां उन्हें सम्मान और पैसा दोनों मिलता है। यहां आइआइटी प्रोफेसर को तो डेढ़ लाख रुपये मिलते हैं, जबकि उसके पढ़ाए बच्चे को एक करोड़ का पैकेज मिल जाता है।” सौरभ के अनुसार जरूरत इस व्यवस्था को सुधारने की है। अगर लोग मन से टीचर बनेंगे तो ट्यूशन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी और कोचिंग अपने आप खत्म हो जाएगी।

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