हली बार माकपा में युवा और लोकप्रिय नेतृत्व को इस तरह से तरजीह दी गई। गहरे संकट से गुजर रही इस पार्टी के सामने यह चुनौती है कि वह जनता के सामने खुद को कैसे लोकप्रिय विकल्प के तौर पेश करे। इन तमाम चुनौतियों को ध्यान में रखकर ही सीताराम येचूरी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है।
पद की दौड़ में एस. रामाचंद्रन पिल्लई द्वारा अपना नाम वापस लेने पर सीताराम येचुरी का चुनाव हुआ। विशाखापत्तनम में माकपा की नई केंद्रीय समिति ने पार्टी के 21वें अधिवेशन के अंतिम दिन नए पोलित ब्यूरो और महासचिव का चुनाव किया। इस तरह से, सीताराम येचूरी के रूप में एक अलग तेवर के साथ माकपा को केरल और पश्चिम बंगाल में अपने छीजती जमीन को वापस लेने और हिंदी भाषा-भाषी पट्टी में लोकप्रिय राजनीतिक पार्टी बनाने की महत्वकांक्षा को नया चेहरा मिला।
सीताराम येचूरी की खासियत यह भी है कि वह एक लोकप्रिय नेता के तौर पर राजनीतिक गलियारों में अपनी पहचान बना चुके हैं। राजनीतिक समीकरणों में, गैर वाम दलों के साथ गठबंधन की राजनीति में वह महारथी माने जाते हैं। युवाओं से भी उनका राफ्ता बेहद जीवंत रहा है। अपनी छवि को लेकर बेहद सजग येचूरी लंबे समय से महासचिव पद के लिए खुद को तैयार करते नजर आ रहे थे। पार्टी कांग्रेस में भी उन्होंने जमकर अपने पक्ष में एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह माहौल बनाया। एक दिक्कत यह है कि उन्हें माकपा के पूर्व महासचिव हरकृष्ण सिंह सुरजीत का वारिस माना जाता है, जिन्होंने इस कम्युनिस्ट पार्टी को बुर्जुआ पार्टियों के साथ अलग ढंग के गठबंधन में उतारा था। आज के दौर में इस तरह के गठबंधन की गुंजाइंश न सिर्फ कम है बल्कि माकपा की उनमें पूछ भी नहीं है। वजह संसद और विधानसभाओं में माकपा का प्रतिनिधित्व लगातार कम हुआ है। ऐसे में स्वतंत्र पहलकदमियों की ज्यादा जरूरत है। वाम दलों के साथ की पहले ज्यादा आज के दौर में जरूरत है। अब सीताराम येचूरी के नेतृत्व पर निर्भर करेगा कि वह कैसे पार्टी को इस संकट से उबारते हैं।