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गांधी: बस नाम ही बाकी है

राष्ट्रपिता के रूप में ख्याति पाने वाले शख्स के नाम पर पूरे भारत में ढेरों संस्थाएं हैं, जिनका बस 'नाम’ ही बाकी रह गया है
गांधी: बस नाम ही बाकी है

हे राम की ध्वनि के साथ शांत हुए एक संत को 68 साल बीत गए हैं। हर 30 जनवरी को उनकी याद में हमेशा की तरह कार्यक्रम हुए और फिर उनकी तसवीर के साथ उनके सिद्धांतों को दीवार पर टांग दिया गया। उनकी मृत्यु के बाद अब 'गांधी एक खोज’ जैसी किसी क्रांति की जरूरत है। गांधी जी के नाम पर कुछ संस्थाएं सरकारी हैं, कुछ उनके निधन के बाद ट्रस्ट की संस्थाएं हैं और कुछ संस्थाओं को गांधीवादी व्यक्तियों ने बनाया है। सभी संस्थाएं गांधी जी के विचारों पर काम करती हैं। दिल्ली में राजघाट पर गांधी जी की समाधि के पास गांधी दर्शन और जहां उन्हें गोली मारी गई, (बिरला हाउस) में गांधी स्मृति में एक संग्राहलय स्थापित किया गया। दोनों ही संस्थाएं केंद्र सरकार की मदद से चलती हैं। इन संस्थाओं के निदेशक दीपाकंर श्री ज्ञान कहते हैं, 'गांधी स्मृति में लगभग 50 हजार लोग सालाना गांधी जी पर बने संग्रहालय को देखने आते हैं। हर बार संस्था की कोशिश रहती है कि कुछ नया किया जाए जिससे दर्शक बापू के बारे में ज्यादा से ज्यादा रोचक ढंग से जान सकें।’ चूंकि यह सरकारी संस्था है इसलिए यहां वित्तीय चिंता नहीं रहती। लेकिन जिन संस्थाओं को निजी रूप से अपना खर्च चलाना होता है, उन संस्थाओं के लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना अपने आप में चुनौती है।

पूरे देश में लगभग गांधीवादी संस्थाओं का यही हाल है। न सिर्फ संस्थाओं का बल्कि गांधी के विचारों से इत्तेफाक रखने वाले व्यक्तियों का भी। पिछले दिनों राजस्थान की राजधानी जयपुर में नवंबर 2015 को पूर्व विधायक गुरुशरण छाबड़ा की आमरण अनशन के दौरान मौत हो गई। वह राजस्थान में पूर्ण नशाबंदी की मांग को लेकर आमरण अनशन कर रहे थे।

 

छाबड़ा सन 1977 में जनता पार्टी से विधायक रहे थे और प्रदेश में गांधीवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के काम में जुटे रहते थे। लेकिन राजस्थान सरकार पर इस मौत का भी कोई असर नहीं पड़ा। इससे पहले भी जून 2014 में जयपुर के दुर्गापुरा स्थित राजस्थान समग्र सेवा संघ को 55 साल पुराने भवन से बेदखल करने के मामले में भी राजस्थान की वर्तमान भाजपा सरकार की काफी आलोचना हो चुकी है। दोनों ही मामलों से समझा जा सकता है कि राजस्थान में गांधीवादी संस्थाओं और विचारधारा के प्रति सरकारी का क्या रुख है। राजस्थान समग्र सेवा संघ के अध्यक्ष सवाई सिंह कहते हैं, 'प्रदेश में गांधी के विचार और वस्त्र दोनों ही को खत्म किया जा रहा है। गांधीवादी संस्थाओं की आत्मा को कुचल दिया गया है और वह मात्र सरकारी संस्थान बनकर रह गई हैं।’ राजस्थान में किसी समय में गोकुलभाई भट्ट जैसे गांधीवादी नेताओं के नेतृत्व में गांधीवादी विचारधारा और कार्यक्रमों पर जबरर्दस्त काम हुआ था। गोकुलभाई भट्ट के नेतृत्व में चले आंदोलन के दबाव के चलते सन 80 के अंत में राजस्थान की सरकार को प्रदेश में पूर्ण शराब बंदी लागू करने को विवश होना पड़ा था। गांधी के विचारों की तरह उनका उद्देश्य कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना था। मगर उनके विचार की तरह राजस्थान में खादी को भी कारपोरेट कल्चर के तले दबा दिया गया है।

आखिर ऐसा क्या है कि गांधी के नाम पर बनी संस्थाओं को इतना संघर्ष करना पड़ रहा है। स्वराज पीठ ट्रस्ट के अध्यक्ष राजीव वोरा और उनकी पत्नी नीरू वोरा कहती हैं, 'ऐसा इसलिए है क्योंकि गांधी जी के केंद्रीय विचार को छोड़ दिया गया है। विकासवाद से जो मुद्दे खड़े हुए उसमें सभी फंस गए और उसका नुकसान संस्थाओं को हुआ।’ दरअसल गांधीवादी संस्थाओं को सिर्फ वित्तीय नहीं विचारों की गरीबी ने भी मुख्यधारा से बाहर कर दिया है। लेकिन कुछ संस्थाएं हैं जो अभी भी उसी विचारधारा को लेकर काम कर रही हैं जिसके लिए बापू प्रतिबद्ध थे। हरिजन सेवक संघ की स्थापना छुआछुत मिटाने के उद्देश से की गई थी। दिल्ली के किंग्सवे कैंप में अब भी बड़ी संख्या में यहां निम्न तबके के बच्चों को पढ़ाया जाता है। कक्षा पांच तक लडक़े और कक्षा बारह तक लड़कियों को शिक्षा दी जाती है। संघ के सचिव लक्ष्मी दास कहते हैं, 'उन कारणों को मिटाना जरूरी है जिसकी वजह से समाज के वर्ग विभेद होता है। गांधी जी हमेशा अंतिम व्यक्ति के बारे में सोचते थे। इसलिए इस संस्था के माध्यम से जहां तक संभव हो सकता है हम शिक्षा का प्रसार करते हैं।’ भारत के कई राज्यों में इस संघ के स्कूल हैं। पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणनन, योगेन्द्र मकवाना, शांति बेन इन्हीं स्कूलों से पढ़ कर निकले हैं। 

लेकिन कोलकाता के बेलियाघाटा इलाके में महात्मा गांधी की उपासना स्थली की किस्मत ऐसी नहीं है कि उसे अच्छे कारणों से याद किया जा सके। इस संस्था की नीलामी की चर्चा है। इस इमारत में महात्मा गांधी ने 1947 के दंगों के समय उपवास किया था। ग्राम स्वराज का मुख्य केंद्र अभय आश्रम समेत गांधी की स्मृति से जुड़ी अन्य कई संस्थाओं की हालत बहुत ही खस्ता है। रख-रखाव को लेकर हमेशा से ही राजनीतिक खींचतान और उदासीनता रही है। बंद पड़ी इमारत, धूल खातीं वस्तुएं, परिसर में उगे खर-पतवार और बैंक का 50 साल पुराना कर्ज। कहानी यहीं नहीं खत्म होती । पूरे पश्चिम बंगाल में गांधी की स्मृति से जुड़े कई भवन, संस्थान खस्ता हालत में हैं। वाममोर्चा के दीर्घ 34 साल के शासन में ऐसे संस्थान उपेक्षित रहे। सत्ता परिवर्तन के बाद ममता बनर्जी के राज में भी गांधी की स्मृतियों से जुड़े संस्थान पहचान को तरस रहे हैं।

50 साल पहले इस इमारत के तत्कालीन मालिक समरेन्द्र कुमार घोष ने भवन और भवन से सटे गांधी मैदान पर बैंक से कर्ज लिया था। समरेन्द्र कुमार घोष का निधन हो चुका है और कर्ज की रकम नहीं चुकाई जा सकी है। ऐसे में बैंक ने परिसंपत्ति की नीलामी का फैसला लिया है। जबकि इस इमारत को विरासत भवन घोषित किया गया है। कोलकाता से मात्र 25 किलोमीटर की दूरी पर बिराटी में स्थित अभय आश्रम की हालत तो बदतर है। गांधी के ग्राम स्वराज के सपनों के इस आश्रम की रूपरेखा सौ साल पहले महात्मा गांधी, देशबंधु चितरंजन दास, प्रफुल्ल चंद्र घोष और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने मिलकर की थी।

 

सुपरिचित खादी की पोशाक, सरसों का तेल पेरने वाली घानी, अगरबत्ती से लेकर कुटीर उद्योग से जुड़े हर उत्पाद के लिए केंद्रीय स्थल का दर्जा इस आश्रम को प्राप्त था। इस आश्रम की रूपरेखा इस तरह से बनाई गई थी कि अंग्रेजों द्वारा सन 1905 में किए गए बंग भंग के विरोध को स्वदेशी आंदोलन के रूप में खड़ा कर एक सूत्र में पिरो दिया जाए। अब हाल यह है कि 22 बीघा जमीन के ऊपर बनाए गए इस आश्रम के इर्द-गिर्द जंगल उग आए हैं। वाममोर्चा के जमाने में इस ऐतिहासिक आश्रम के अधिग्रहण को लेकर राज्य सरकार ने नीतिगत फैसला कर लिए जाने की घोषणा की थी। लेकिन यहां कर्मचारियों और अन्य मद में बकाए को लेकर केंद्रीय खादी आयोग और राज्य सरकार के बीच रस्साकशी चलती रही और ऐतिहासिक विरासत धूल के अंबार में ढकती रही। केयरटेकर सुशांत सेन कहते हैं, 'पहली मंजिल पर एक कमरे में कुछ कर्मचारी रोज आते हैं। दस्तखत पंजिका में हाजिरी भरते हैं इस उम्मीद में कि दिन बहुरेंगे।’ यहां के एक कर्मचारी भुपेन डे बताते हैं, 'एक समय सरकारी नौकरी छोड़कर मैं इस आश्रम में काम करने आया था। अब उम्मीद ही बची है कि कोई अच्छी खबर मिले।’

आजादी की लड़ाई के दिनों में सोदपुर के खादी प्रतिष्ठान और बैरकपुर के गांधी आश्रम की स्थापना की प्रेरणा के मूल में यही अभय आश्रम बताया जाता है। दोनों जगहों के रख-रखाव पर ध्यान दिया जाता है। क्योंकि दोनों जगहें सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं। दोनों जगहों पर राज्यपाल नियमित दौरे करते हैं। बेलियाघाटा की इमारत पर भले ही कर्ज है, लेकिन वहां रहने वाले इसकी देखभाल कर रहे हैं। वहां एक छोटा सा संग्रहालय है, जिसकी देखभाल हो रही है। राज्य खादी बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष मोहम्मद सलीम कहते हैं, 'मैंने केंद्र और राज्य सरकार को कई दफा इन आश्रमों के बारे में लिखा, लेकिन हमेशा यही बताया गया कि फाइलें दोनों जगह वित्त मंत्रालय के पास अटकी है।’

शिक्षा और कला का केंद्र वाराणासी भी गांधी संस्थाओं के मामले में कोई अलग मिसाल पेश नहीं करता। महात्मा गांधी के विचार-दर्शन और सामाजिक सोच के अध्ययन, अनुशीलन और अनुसंधान के उद्देश्य से सन 1960 में लोक नायक जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, शंकर राव देव जैसे प्रखर गांधीवादियों द्वारा वाराणसी में स्थापित गांधी विद्या संस्थान का वजूद खतरे में है। कागजों में जिंदा संस्थान के नाम की बात छोड़ दें तो संस्था के पास कुछ भी नहीं बचा है। वैधानिक संचालन समिति भंग है। अध्ययन, अध्यापन, शोध और विमर्श वर्षों से बंद हैं। राजनीतिक रसूखों के दम पर फर्जी तरह से संस्थान पर काबिज लोगों ने बटोरने की होड़ में फर्नीचरों, लाइब्रेरी अनमोल धरोहर की पुस्तकों के साथ वह कुर्सी तक बेच दी है जिस पर बैठ कर कभी लोकनायक जयप्रकाश नारायण गांधी की वैचारिक विरासत को सहेजने के जतन किया करते थे। संस्थान के भवन को किराये पर चढ़ा कर मोटी रकम कमाई जा रही है। पुराने दस्तावेजों को खंगालें तो आपातकाल के कठिन दौर में तत्कालिन सरकार का क्रोध झेलने के बाद भी सन 1995 तक संस्थान अपने उद्देश्यों को साधने में सक्रिय दिख पड़ता है। बहरहाल संस्था भले ही कोमा में हो, काशी के प्रबुद्धजन और पुराने गांधीवादी अब भी इसे फिर जीवित करने में लगे हैं। जेपी के बेहद नजदीकी रहे प्रसिद्ध गांधीवादी प्रो. जीएन जुवाल सन 2012 से ही संस्था को जीवित करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर फर्जी तरीकों से संस्था पर काबिज लोगों को हटाने और नए संचालक मंडल के गठन के साथ ही गांधी के सपनों को बड़े ही जतन से सहेज रखने वाले संस्थान को नया जीवन देने की मांग की है।

अगर गांधीवादी संस्थाओं की बात हो और अनुपम मिश्र का जिक्र न हो तो यह कहानी अधूरी रहती है। गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े अनुपम मिश्र बिना किसी शोर के चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। गांधी के विचार और विचारों से जुड़े काम को संस्था पुस्तक रूप में न सिर्फ प्रकाशित करती है बल्कि गांव-गांव में पानी और पर्यावरण की अलख भी जगाती है। लेकिन कई बार पुस्तकों को ही पाठकों से दूर कर दिया जाता है। लंबे समय से गांधीवादी संस्थाओं से जुड़ी रहीं मोहिनी माथुर कहती हैं, 'सभी को मिलजुल कर काम करना होगा। सिर्फ साल में एक दिन गांधी पर बात करने से कुछ नहीं होगा।’ क्योंकि गांधीवादी संस्थाओं को उन्हीं के विचारों वाले भी आपस में लड़ कर नुकसान पहुंचाते हैं। इसका उदाहरण राजघाट पर लगने वाला  किताबों का स्टॉल है। एक रुपये की लीज पर मिली जमीन के लिए कमेटी ने लीज खत्म कर दी और तय किया कि हर साल टेंडर निकाला जाए। इस टेंडर में गांधी शांति प्रतिष्ठान ने राजघाट पर किताबें बेचने वाली संस्था हिंदुस्तानी साहित्य सभा को पछाड़ दिया। बातचीत में हल निकला गया तो शांति प्रतिष्ठान ने खुद को हटा लिया। फिर कानूनी रूप से दूसरे क्रम पर सर्व सेवा संघ को मौका दिया गया। जबकि संघ के पास पूरे भारत के स्टेशनों पर लगभग 70 स्टॉल किताबों की बिक्री के लिए है। फिर भी संघ ने कोर्ट में केस लगा दिया है कि नियमत: हमारा टेंडर शांति प्रतिष्ठान के बाद है तो हम ही किताबें बेचेंगे। असहयोग की यह भावना गांधी जी के विचार के विपरीत है, मगर यह भी एक सच्चाई है।

जयपुर से आउटलुक प्रतिनिधि, कोलकाता से दीपक रस्तोगी, वाराणासी से अमितांशु पाठक

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