उन्होंने कहा कि मोदी साहब सुझाव देते हैं और छोड़ देते हैं। उन्हें इससे जुड़़ी समस्या का समाधान देना चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि यदि एक राज्य विधानसभा को उसके पांच साल के कार्यकाल में एक साल के लिए भंग कर दिया जाए तो क्या उस अवधि के लिए उस राज्य में राष्ट्रपति शासन रहेगा?
लोकसभा और विधानसभा के साथ-साथ चुनाव वर्ष 1967 में हुए थे। तब राज्यों में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत थी और इसका प्रभाव देखा गया था कि कार्यकाल पूरा हुए बिना ही कई विधानसभाओं को भंग कर दिया गया था। प्रधानमंत्री मोदी ने अप्रैल में मुख्यमंत्रियों एवं उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में दोनों चुनाव साथ-साथ कराने के विचार का समर्थन किया था। उनका कहना था कि ऐसा नहीं होने पर चीजें रुक जाती हैं और चुनावों पर बहुत अधिक समय लगता है।
सत्तारूढ़ भाजपा के वर्ष 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने के विचार का समर्थन किया गया था। भाजपा को उसी घोषणा पत्र के दम पर सत्ता मिली। भाजपा के नेतृत्ववाली राजग सरकार ने भी नागरिकों से जुड़ी अपनी वेबसाइट माईगव पर इस मुद्दे पर चर्चा की है और लोगों से इस पर 15 अक्टूबर तक अपनी राय देने को कहा है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के नेता डी. राजा ने भी इस पर आश्चर्य जताया है कि इस विचार पर अमल कैसे होगा। उन्होंने कहा कि यह कैसे संभव है? भारत बहुत विविधता वाला देश है और इसका संघीय स्वरूप है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि यह होने योग्य नहीं है, क्योंकि इससे शासन से जुड़ी बहुत सारी समस्याएं पैदा होंगी।
जनता दल (युनाइटेड) के के. सी. त्यागी ने कहा कि यह विचार तो शानदार है, लेकिन बहुत अव्यवहारिक है। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और संविधान विशेषज्ञ शांति भूषण ने कहा कि अच्छा विचार है। चुनाव आयोग ने जून में विधि मंत्रालय को कहा कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने के विचार का वह समर्थन करता है। मंत्रालय ने इस संस्तुति पर चुनाव आयोग की राय मांगी थी।