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योजनाएं हैं लेकिन उन पर अमल नहीं

इस साल यानी 2015 में हम मिलेनियम डेवलेपमेंट गोल्स पाने के करीब हैं। सभी संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों ने ये लक्ष्य अपने लिए तय किए थे और इनमें भारत भी एक है। इन लक्ष्यों में गरीबी, भुखमरी को दूर करना, प्राइमरी शिक्षा सब तक पहुंचाना, लैंगिक समानता के साथ माताओं का स्वास्थ्य भी एक लक्ष्य तय किया गया था। हम इस लक्ष्य को पूरा कर पाएंगे या नहीं इस बहस को एक तरफ रखकर अगर देखें तो जानेगें कि हम इस (माताओं के स्वास्थ्य) लक्ष्य की तरफ अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठा पाएं हैं।
योजनाएं हैं लेकिन उन पर अमल नहीं

इसकी बड़ी वजह ये है कि हम अब तक इस समस्या की जड़ तक ही नहीं पहुंचे हैं। माताओं के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए सरकार (केन्द्र और राज्य) ने खूब योजनाएं बनाई है, पैसे या फंड्स की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन मां बनने वाली किशोरियों के स्वास्थ्य खासकर उनमें बढ़ते अनीमिया को आज भी कोई बड़ी समस्या न तो माना जा रहा है और न ही खास न ही के लिए कोई माकूल योजना है।

राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम और नेशनल ऑयरन प्लस इनीशिएटिव (नीपी) के जरिए सरकार ने देश में किशोरियों में अनीमिया को रोकने की पहल की थी। ये दोनों ही योजनाएं युवा लड़कियों और लड़कों दोनों के लिए हैं। अब इन योजनाओं का पूरा लाभ इस वर्ग तक सहीं मायनों में पहुंच पा रहा है या नहीं ये जानना नीति निर्धारकों के लिए बहुत जरूरी है।देश के नीति-निर्धारकों ने स्वास्थ्य संबंधी सरकारी योजनाओं के मद्देनजर या तो बच्चों को जोड़ा या फिर मांओं को क्योंकि हमारी ज्यादातर योजनाएं या तो बिल्कुल छोटे बच्चों के लिए हैं या फिर माताओं के स्वास्थ्य के लिए। ये योजनाएं नवजातों और मांओं तक ही सिमट कर रह गई हैं। लेकिन किशोरियों के स्वास्थ्य खासकर इस उम्र में होने वाली अनीमिया की समस्या से निपटने के लिए सरकार (केन्द्र या राज्य) कोई बेहतर योजना नहीं बना पाई है। एक कमजोर, बीमार और एनेमिक किशोरी से लेकर एक स्वस्थ मां का सपना देखना सच्चाई से मुंह फेरने जैसा है। यही किशोरियां आगे चलकर जब मां बनती हैं तो अनीमिया की वजह से उनकी और उनके बच्चे की सेहत हमेशा दांव पर लगी रहती है। अब अनीमिया पीड़ित मां जब बच्चे को जन्म देती है तो जाहिर है कि बच्चा भी अनीमिक ही पैदा होता है। किशोरियों के स्वास्थ्य को दरकिनार कर माताओं के बेहतर स्वास्थ्य की कल्पना या बात करना बेमानी है।

इसी कड़ी में जब किशोरियों में अनीमिया की समस्या और सरकार की तरफ से उसे रोकने की कोशिशों की पड़ताल की गई तो पता चला कि हर बार की तरह ही योजनाएं तो हैं लेकिन उनपर अमल नहीं। राजकीय कन्या इंटर कॉलेज, भंगेल के प्रिंसिपल कृष्णपाल सिंह बताते हैं कि उनका विद्यालय लड़कियों का है जहां 10वीं-12वीं कक्षा की किशोरियों को ही ऑयरन की गोलियां सरकार की तरफ से मुफ्त दी जाती है। दादरी ब्लॉक के भंगेल के बेगमपुर गांव के इस स्कूल में हर कक्षा के सेक्शन हैं और कक्षा 10वीं-12वीं के सभी सेक्शनों की किशोरियों की संख्या जोड़कर देखा तो मालूम हुआ कि करीब 600 लड़कियों को ये (आईएफएस) गोलियां मिल रही है।

दादरी के इस ब्लॉक में छह कन्या विद्यालय आते है जो कासना, बादलपुर, भंगेल, जेवर और बरौला गांवों में हैं। प्रिंसिपल श्री सिंह का कहना है कि ये गोलियां आंगनवाड़ी दीदी के अलावा स्कूल की एक टीचर इन लड़कियों को देती है। हांलाकि, ये गोलियां सभी को बराबरी से बांटी जाती हैं, लेकिन प्रिंसिपल का कहना है कि इनमें से कितनी लड़कियां ये ऑयरन गोलियां लगातार खाती हैं ये कह पाना मुश्किल है। उन्होंने ये भी बताया कि इन गोलियों के सेवन से अक्सर लड़कियों को पेट में गड़बड़ी की शिकायत रहती है और इस वजह से इनके माता-पिता भी इन गोलियों से सेवन से लड़कियों को दूर रखते हैं। और बातचीत से पता चला कि स्कूल में आने वाली ज्यादातर किशोरियां जिले से सटे राज्यों से आई हुई है औरउनके परिवार यहां किराए के घरों में रहते हैं।यानी ये कि इन सरकारी स्कूलों में आने वाली लड़कियां निम्न मध्य वर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखती है। ब्लॉक के सभी कन्या स्कूलों में पढ़ने आने वाली छात्राएं इसी आय वर्ग से आती है।

ब्लॉक के एक अन्य स्कूल के स्टाफ से बातचीत में पता चला कि स्कूल में लड़कियां खासकर 9वीं-10वीं कक्षा की छात्राएं सिर में चक्कर आना, शरीर ढीला पड़ना या थकावट की शिकायत सबसे ज्यादा करती है। हकीकत ये है कि ये लड़कियां सुबह अपने घर से सिर्फ चाय ही पीकर आती है। न तो नाश्ता करती है और न ही लंच के नाम परकुछरोटी सब्जी लाती है। ऐसे में ऑयरन की गोली इन्हें न पचे इसकी संभावनाएं और ज्यादा बढ़ जाती है। श्री सिंह का कहना है कि आंगनवाड़ी दीदीयों के अलावा स्कूल में इन लड़कियों को बेहतर खान-पान, स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियों और आईएफएस गोलियों से संबंधित सलाह मशविरा भी दिया जाता है ताकि इनके या इनके माता-पिता के मन में सरकार की तरफ से मिलने वाली और इसका सेवन करने वाली ऑयरन की गोलियों के प्रति कोई शक न रहे।भंगेल के इस स्कूल के प्रिंसिपल के मुताबिक पिछलेएक साल से इस स्कूल में ऑयरन की गोलियों का आना बंद है। हालांकि, उन्होंने यह भी बताया कि उनकी तरफ से विभाग को इस बात की कुछ-कुछ समय के अंतराल पर जानकारी दी जाती रही है, लेकिन फिलहाल अभी ऑयरन की गोलियां उन्हें नहीं मिल रही हैं।

यही स्थिति जिले के सभी कन्या स्कूलों की है। हालांकि, इसी गांव की आंगनवाड़ी दीदी रानी बबीता और राजेश से इस बारे में बात करने के बाद पता चला कि पिछले एक नहीं बल्कि आठ सालों से राज्य के बाल कल्याण विभाग से ऑयरन की गोलियों की दवाओं की सप्लाई बंद है। ये दीदियां दादरी ब्लॉक के स्कूलों और घर-घर जाकर स्कूल छोड़ चुकी या स्कूल नहीं जाने वाली किशोरियों को ऑयरन गोलियां वितरित करती थी, लेकिन अब ये खांसी की, पैरासिटामोल और पेट में कीड़ों की दवाएं ही वितरित कर रही हैं। इस पूरे ब्लॉक में कुल नौ आंगनवाड़ियां है।हर आंगनवाड़ी की दीदी 12,000 की आबादी को सरकारी की तरफ से मिलने वाली मुफ्त दवाएं घर-घर जाकर या स्कूलों में जाकर वितरित करती है। और अगर इन दीदीयों की मानें तो सिवाए आईएफएस की गोली के बाकी सभी गोलियां ये दीदीयां इस वक्त वितरित कर रही हैं। बातचीत में इन लोगों ने बताया कि अपने स्तर पर ये लोग भी राज्य के बाल कल्याण विभाग में वक्त-वक्त पर आईएफएस की गोलियों की मांग कर चुकीं हैं, लेकिन इन तक ये दवाएं अभी तक नहीं पहुंच पाई है।

जिला गौतम बुद्ध नगर उत्तर प्रदेश के संपन्न जिलों में आता है। ये जिला तकरीबन हर लिहाज से राज्य के अन्य जिलों से ज्यादा विकसित है। चाहे बात इंफ्रास्ट्रक्चर की हो या शिक्षा की या फिर रोजगार के मौकों की। जिले की शैक्षिक दर 82 प्रतिशत है (जो राष्ट्रीय दर से कहीं ज्यादा है) जबकि लिंगानुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 852 महिलाओं का है जो खासा ठीक है। नोएडा, ग्रेटर नोएडा, यमुना एक्सप्रेस वे, ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे औऱ दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रीयल कॉरीडोर में भी शामिल यह जिला राज्य के अन्य जिलों से काफी संपन्न है। लेकिन, यही संपन्नता अगर स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी दिखती तो किशोरियां अनीमिया से इतना प्रभावित नहीं होती। हालांकि, राज्य सरकार की अनदेखी की वजह से ही राज्य स्तर या जिला स्तर पर एनेमिक किशोरियों की तादाद का सही पता लगाना बेहद मुश्किल है। गैर-सरकारी संगठनों और निजी संस्थाओं की इस दिशा में अरूचि से भी इनकी संख्या का सही पता नहीं लग पाता जिसके अभाव में योजनाएं तो बन जाती है लेकिन न तो उनपर अमल ही हो पाता है और न ही नीति निर्धारकों को आग के लिए दिशा तय करने में मदद मिल पाती है।

(पत्रकार भारतीय प्रतिष्ठान की ओर से शोध के लिए चयनित है)

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