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किसान की लाठी नहीं है अब गन्ना

एक दौर था जब प्रदेश के किसान नकदी फसल गन्ने को अपनी लाठी मानते थे। सूबे की 124 चीनी मिलें सूरसा के मुंह जैसी खेतों की ओर ताकती रहती थीं और दिन रात गन्ने की ही फरमाईश करती थीं मगर अब यह लाठी जैसे टूट गई है और 'सुरसा’ भी न जाने कहां बिला गई है। प्रदेश में गन्ने की फसल को राजनीति का ऐसा घुन लगा है कि खेत, फसल और किसान सब चौपट हो रहे हैं। आलम यह है कि गन्ना उगाने की लागत सवा तीन सौ रुपए क्विंटल आ रही है मगर किसान को मिल रहे हैं मात्र 280 रुपए। वह भी रुला-रुलाकर।
किसान की लाठी नहीं है अब गन्ना

पिछले चार साल से गन्ने का सरकारी दाम नहीं बढ़ाया गया है जबकि उसकी लागत हर साल बढ़ती जा रही है। प्रदेश की सपा सरकार में इस वर्ष भी गन्ने का मूल्य न बढ़ाने की घोषणा कर किसानों को आग बबूला ही कर दिया है। प्रदेश में जिला मुख्या‍लयों पर धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं तो गांव देहातों और पंचायतों में भी गन्ने के नाम पर हुक्के गुडग़ुड़ाए जा रहे हैं। किसानों के क्रोध में राजनीतिक दल भी जी भर-भरकर घी डाल रहे हैं और गन्ना किसान के दुख को लेकर सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी को छोड़ अन्य सभी दल टसुए बहा रहे हैं। अर्से से राजनीतिक पटल पर नेपथ्य में चल रहे किसान अब सबकी चिंताओं में जगह बनाते दिख रहे हैं और कहना न होगा कि डेढ़ वर्ष बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में फिलवक्त‍ सभी दलों को ऊर्जा भी इन्हीं से मिल रही है।


धर्म और जाति के नाम पर बिखरा प्रदेश का किसान बेशक किसी एक मंच पर अब नहीं है मगर उसके क्रोध को वाणी देने के लिए अनेक संगठन उभर आए हैं। राष्ट्रीय लोकदल और भारतीय किसान यूनियन इनमें सबसे मुखर हैं। इन्हीं संगठनों के नेतृत्व में धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं और मुख्य‍मंत्री अखिलेश यादव के पुतले फूंके जा रहे हैं। दरअसल हाल ही में लखनऊ में मुख्य‍ सचिव आलोक रंजन की अध्यक्षता में गन्ना मूल्य निर्धारण समिति की बैठक हुई और उसमें इस बार भी गन्ने का मुल्य न बढ़ाने का निर्णय लिया गया। हालांकि बैठक में किसानों के प्रतिनिधि भी मौजूद थे और उन्होंने गन्ने का मूल्य 300 से 340 के बीच रखने की मांग की थी मगर सरकार ने चीनी मिलों के प्रतिनिधियों की ही बातों पर अमल किया। चीनी मिलों की ओर से यूपी एस्मा के अध्यक्ष सीबी पटोदिया सरकार को समझाने में सफल रहे कि चीनी उद्योग संकट में है और गन्ने के दाम इस बार भी नहीं बढ़ाए जाने चाहिए।

सरकारी फैसले में गन्ना शोध परिषद के निदेशक डॉक्टर बीएल शर्मा की उस रिपोर्ट ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें दावा किया गया कि गन्ने की उत्पादन लागत 245 रुपये प्रति कुंतल ही आ रही है। दाम ने बढ़ाए जाने से अब प्रदेशभर का गन्ना किसान आंदोलित है। प्रदेश में लगभग पचास लाख गन्ना किसान हैं और उनका चीनी मिलों पर आठ हजार करोड़ रुपया बकाया है। मुरादनगर के किसान महेन्द्र त्यागी कहते हैं घाटा दिखाकर चीनी मिलें सरकार से राहत पैकेज और अन्य सुविधाएं ले रही हैं जबकि किसानों का भुगतान करने में आनाकानी करती हैं। उधर, एस्मा सचिव दीपक गुप्ता कुछ और ही दावा करते हैं। बकौल उनके चीनी के दाम न बढऩे से हालात खराब हैं और यही कारण है कि किसानों का भुगतान समय से नहीं हो पा रहा है।
गन्ना किसानों को लेकर इन दिनों प्रदेश में खूब राजनीति चमकाई जा रही है। कुछ माह पूर्व कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सहारनपुर में पदयात्रा कर चुके हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह नोएडा में हुए किसान सम्मे‍लन में आरोप लगा आए हैं कि उत्तर प्रदेश में सरकार और चीनी मिलों का गठजोड़ है और इसी के चलते गन्ने के दाम नहीं बढ़ाए जा रहे हैं। बकौल उनके यह सिलसिला बसपा सरकार के समय से ही चलता आ रहा है।

केंद्रीय अल्पसंख्य‍क कल्याण राज्यमंत्री मुख्ता‍र अब्बा‍स नकवी ने भी लखनऊ में एक प्रेस कान्फ्रेंस में दावा किया है कि केंद्र सरकार किसानों के लिए उत्तर प्रदेश को मदद देना चाहती है मगर सपा सरकार मदद ही नहीं ले रही। रालोद के प्रदेश अध्यक्ष मुन्ना सिंह चौहान कहते हैं कि चुनाव से पूर्व सपा सरकार ने गन्ने का मूल्य 300 से 350 करने का वादा किया था मगर अब सपा किसानों को भूलकर मिल मालिकों की गोद में बैठ गई है। हालांकि मुख्य‍मंत्री अखिलेश यादव इन सभी आरोपों को नकारते हैं। उनका कहना है कि मिलों से साठ गांठ राज्य नहीं केंद्र ही कर सकता है। उन्होंने दावा किया कि राज्य सरकार किसानों के हित में हर संभव प्रयास कर रही है।
बहरहाल गन्ने का मूल्य न बढ़ाए जाने और बकाया भुगतान में देरी से प्रदेश का किसान एकबार फिर लामबंद हो रहा है। एक ओर वह राजनीतिक दलों के कंठ से अपने हित की बात निकलवाने में सफल हो रहा है वहीं वैकल्पिक व्यवस्थाओं में भी जुट गया है। भारी संख्या‍ में किसान अब हल्दी, केला जैसी अन्य नकदी फसलों की ओर मुड़ गए हैं। किसानों का गन्ने के प्रति मोहभंग के चलते ही पिछले चार सालों में गन्ने का रकबा लगातार कम हो रहा है। ये ही कारण है कि इन्हीं वर्षों में एक करोड़ टन गन्ने का उत्पादन कम हुआ है। मानसून में भरपूर वर्षा न होने से इस साल फसल के यूं भी कुछ और कम होने का अंदेशा है। कहना न होगा कि गन्ने और चीनी का यह खेल राजनीतिक ही नहीं बाजारी तूफान भी उठा सकता है।

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