देश को वर्ष 2019 तक साफ करने की घोषणा के साथ क्या प्रधानमंत्री, क्या मंत्री, क्या संत्री, क्या उद्योगपति और क्या सरकारी बाबू, सब नए-नए झाडू हाथ में थामे सड़कों-फुटपाथों को साफ करते दिखाई दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्वच्छता अभियान के लिए 1,96,000 करोड़ रुपये की घोषणा की। उसके बाद तो बड़े-बड़े उद्योगपतियों, ़कॉरपोरेट घरानों से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों खास तौर से बिल गेट्स फाउंडेशन ने इस स्वच्छता अभियान में डुबकी लगाने की घोषणा करके करोड़ों के निवेश की आस जगाई है। इन तमाम दृश्यों से वे गायब हैं, जिनके मजबूत हाथ आज भी देश को साफ करने का काम करते हैं। स्वच्छ भारत की इस कल्पना में सफाई कामगारों की कोई जगह नहीं है क्योंकि यहां तो वे लोग झाडू लेकर सफाई के ब्रांड एम्बैस्डर बन रहे हैं, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर कभी न तो सफाई का काम किया है और न ही सफाई कामगारों के दुख-दर्द को साझा किया है।
स्वच्छ भारत अभियान से सफाईकामगार समुदाय को जो गंभीर सवाल हैं और किस तरह से भारत में स्वच्छता का सवाल जाति प्रथा से जुड़ा हुआ है, इस पर बात किए बिना स्वच्छता के किसी भी अभियान पर बात करना बेमानी होगी। लेकिन उस पर आने से पहले इसकी पड़ताल करनी भी जरूरी है कि आखिर स्वच्छ भारत अभियान किस तरह से क्रियान्वित होने जा रहा है। अगर 2019 तक भारत को स्वच्छ करने की योजना है तो उसकी क्या रूपरेखा सामने रखी गई है। किस मंत्रालय के पास इन 1,96,000 करोड़ रुपये में से कितना हिस्सा आएगा, उसे कैसे जमीन पर खर्च किया जाएगा, यह सब अभी अधर में है। इसे लेकर मंत्रालयों में अभी दुविधा है। केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि उनके पास अभी निर्मल भारत का ही मॉडल है और नए अभियान में शहरी इलाकों पर जोर ज्यादा है। उनके मुताबिक अभी पक्की योजना को लागू होने में समय लगेगा, इसे अभी प्रचारात्मक स्तर पर शुरू किया गया है। शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू का कहना है, `इसे सबको मिलकर लागू करना है। मैंने तमाम राज्यपालों, नेताओं, धार्मिक संस्थाओं और सेलिब्रिटी से बात की है कि सब मिलकर इस आंदोलन का संदेश फैलाएं।’ जमीन पर यही होते दिख भी रहा है। सफाई अभियान के तहत तात्कालिक तौर पर लोग सड़कों पर साफ-सफाई करते जरूर दिख रहे हैं लेकिन सफाई के लिए जिस तरह से बुनियादी आधारभूत ढांचे के निर्माण होना चाहिए, कचरे निपटाने की वैज्ञानिक प्रणाली विकसित करनी चाहिए, सीवर प्रणाली को आधुनिक करने की लेशमात्र चिंता इस अभियान में दिखाई नहीं देती है। इस बारे में जन स्वास्थ्य पर लंबे समय से काम कर रही डॉ. इमराना कदीर का कहना है कि स्वच्छ भारत देश को साफ करने से ज्यादा शौचालय के कारोबार को बढ़ावा देने वाला मिशन ज्यादा है। यह मध्य वर्ग के भीतर सफाई को लेकर नैतिक आग्रह पैदा करने से ज्यादा कुछ नहीं करने जा रहा है क्योंकि सफाई का सवाल जाति से जुड़ा है। जोर निवेश पर है, जोर निजी-सरकारी साझेदारी पर है, जोर कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी पर है और यहीं स्वच्छा अभियान का मिशन भी है।
चाहे वह उद्योग घरानों का संस्था कॉन्फडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) हो या फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) हो या फिर एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचैम) या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियां या बिल गेट्स फाउंडेशन सब के सब स्वच्छ भारत अभियान के तहत देश भर में शौचालय बनाने की बात कर रहे हैं। सीआईआई के सुमित मजुमदार ने कहा कि सीआईआई वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान 10 हजार शौचालय बनाएगा, वहीं फिक्की के ए. दीदार सिंह ने भी इस अभियान में निजी-सरकारी साझेदारी के तहत निवेश करने पर रजामंदी दिखाई है। एसोचैम के अध्यक्ष राना कपूर ने कहा, `स्वच्छ भारत अभियान की सफलता निजी-सरकारी साझेदारी पर है।` राना कपूर ने सीधे-सीधे कहा, 500 बड़े शहरों में अवशिष्ट प्रबंधन का बड़ा कारोबार निकल सकता है। एसोचैम का खास जोर उन शहरों पर है जहां विदेशी पर्यटक बड़ी तादाद में आते हैं-जैसे हरिद्वार, बनारस, बौद्द गया, त्रिरुपति, चित्रकूट, अमृतसर आदि। उद्योग समूहों में होड़ सी लगी हुई है, मिसाल के तौर पर लॉर्सन एंड टूब्रो ने 5,000 शौचालय बनाने और अनिल अग्रवाल की वेदांता समूह की हिंदुस्तान जिंक ने 10,000 शौचालय बनाने की घोषणा की है तो सुनिल मित्तल की भारतीय इंट्रप्राइसेज ने लुधियाना में 100 करोड़ रुपये लगाने की घोषणा की है। वेदांता समूह की हिंुस्तान जिंक पहले ही राजस्थान में 30,000 शौचालय बनाने का ठेका ले चुकी है, जिसमें से 9,000 शौचालय वह बना चुकी है। ये सारे आंकड़े स्वच्छ अभियान के पीछे के कारोबारी उद्देश्य का खुलासा कर रहे हैं। ऐसा होने जा रहा है इसकी आहट देसी-विदेसी कॉरपोरेट घरानों को पहले मिल चुकी थी। इस संदर्भ में मार्च में दिल्ली के एक पंच सितारा होटल में बिल और मेलेंडा फाउंडेशन द्वारा केंद्र सरकार के साथ मिलकर शौचालय की दुनिया का पुननिर्माण विषय पर किए गए सम्मेलन की जिक्र करना चाहती हूं क्योंकि इसमें जिस तरह से शौचालय और अपशिष्ठ प्रबंधन को एक चमचमाते कारोबार के तौर पर पेश किया गया था, वही आज स्वच्छ भारत अभियान के तहत हो रहा है। इस सम्मेलन में देश भर से आए कॉरपोरेट घरानों ने शौचालयों को एक आकर्षक निवेश न र्सिफ माना था, बल्कि इस क्षेत्र में अपनी क्षमताओं का भी प्रदर्शन किया था। आज की तवारीख में स्वच्छ भारत अगर कहीं मूर्त रूप में दिखाई दे रहा है, तो वह शौचालयों के संभावित बिजनेस में। ये सारे शौचालयों में पानी की सुविधा कहां से आएगी, ये किस तरह से सीवर से जोड़े जाएंगे, सीवर बिछा है कि नहीं-ये सारे पहलू फिलहाल तो गायब है।
देश में ज्यादा से ज्यादा शौचालय हों, इससे किसी को गुरेज नहीं है। लेकिन असल सवाल यही है कि इन्हें साफ कौन करेगा। यहीं आता है सवाल जाति
का। इस बारे में सफाई कर्मचारी आंदोलन के बेजवाडा विल्सन का कहना है, ये शौचालय साफ कौन करेगा, इस पर कोई बात नहीं हो रही है। दिल्ली में 700 सामुदायिक शौचालय बनाने की बात है, इन शौचालयों की सफाई के लिए क्या दलित जाति के लोगों को नहीं लगाया जाएगा। स्वच्छ भारत सफाई कामगारों की सम्मानजनक स्थिति के बारे में क्यों नहीं बात करता। इसकी सिर्फ एक वजह यह है कि पहले की ही तरह इस अभियान में भी यह मान कर चला जा रहा है कि चाहे वह शौचालय साफ करने की बात हो या गटर की सफाई-ये सब दलित जाति का काम है। लिहाजा उस जातिगत व्यवस्था को तोड़ने की कोई पहल इसमें नहीं दिखाई देती। यह शौचालय बनाने का कारोबार है, सफाई का नहीं। देश तब तक स्वच्छ नहीं हो सकता जब तक सफाई कामगारों को सम्मानजनक जीवन की गारंटी न की जाए। तकरीबन यही कहना तमलिनाडु के कोयंबटूर में मेनहोल साफ करने वाले मणि का है। मणि ने कहा, `ये नेता और बाबू के लिए फक्र की बात होगी कि वे चमचमाते कपड़े पहनकर, नए-नए झाडू से सड़कों पर सफाई करें। हमारे लिए नहीं, क्योंकि जातिगत व्यवस्था के चलते हमें पीढि़यों से इसमें ढकेला गया है। मैं उन्हें चुनौती देना चाहता हूं कि असली गंदगी गटर में है, क्या वे यहां उतरेंगे। जवाब आपको भी पता है, यहां कोई नहीं आएगा। मेरा मानना है कि उन्हें ही नहीं किसी भी इंसान को इस नर्क में नहीं उतरना चाहिए। लेकिन यह स्वच्च भारत अभियान हमें इस नर्क से मुक्त करने की बात नहीं करता। ` मणि सरीखे लाखों सफाई कामगार आज भी बजबजाती गंदगी में जिंदगी गुजार रहे हैं और ये सब जाति विशेष से जुड़े हुए है। भारत में जब तक हम जातिगत आधार पर सफाई के खौफनाक रिश्ते को नहीं तोड़ेगे, तब तक भारत साफ नहीं हो पाएगा। असल समस्या पर बात करने के बजाय कारोबार की चिंता ही छाई हुई है। दिक्कत यह है कि या तो हम गंदगी साफ करने को आध्यातमिक अनुभव बता कर महानत कार्य बना देते है या फिर सफाई को शौचालय निर्माण कारोबार का पर्यायवाची-दोनों ही स्थितियों में भारत गंदा रहना है। यह सच स्वच्छ भारत नहीं स्वीकारने की हिम्मत रखता कि भारत इसलिए गंदा है क्योंकि हमने अपने सफाई कामगारों को बराबरी और सम्मान से जीने का मौका नहीं दिया।