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25 साल बाद मंडल-2 की बड़ी चुनौती

1990 में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशाें को लागू करने का कदम उठाया तो उस समय पूरी सियासत ही गरमा गई। जगह-जगह वीपी सिंह के पुतले फूकें जा रहे थे और उनकी सरकार भी गिरा दी गई। पच्चीस साल बाद भी मंडल आयोग की सिफारिशें पूरी तरह से लागू नहीं हो पाईं। मंडल आयोग की रिपोर्ट में 13 अनुशंसाएं की गई थीं लेकिन दो ही अनुशंसाएं लागू हो पाईं।
25 साल बाद मंडल-2 की  बड़ी चुनौती

 

पूरे देश के पिछड़ा वर्ग के बीच एक चेतना जगी, राजनीति से लेकर सामाजिक, आर्थिक स्तर पर कई बदलाव देखने को मिला लेकिन दुर्भाग्य यह हुआ कि जो नेता पिछड़े वर्ग की सियासत करके राजनीति के केंद्र में पहुंचे उन्होंने बाद में बदलाव बढ़ाने पर कोई ध्यान नहीं दिया।  आरक्षण को लेकर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और निचली अदालतों में मुकदमे होते रहे। इसकी भी लड़ाई कुछ लोगों ने अपने स्तर पर लड़ी। समय-समय कई दूसरी जातियों को, मसलन कई इलाकों में जाट, भी पिछड़े वर्ग के साथ जोड़कर आरक्षण का लाभ देने की सियासी चाल चली जाती रही है लेकिन हर बार सुप्रीम कोर्ट में मामला जाते ही खारिज हो जाता है। इसके लिए पिछड़े वर्ग के बड़े नेताओं ने कोई एकजुटता नहीं दिखाई लेकिन छोटे-छोटे संगठनों ने जरूर आरक्षण को बचाने की पहल की। 

 

मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व बढ़ा। सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर इस वर्ग के लोगों का चयन हुआ। सामाजिक चेतना जगी जिससे कि इस वर्ग के छात्रों का बड़ी नौकरियों के प्रति रूझान बढ़ा। पिछड़े वर्ग के छात्र-छात्राओंं के लिए नौकरी के अलावा केंद्रीय शैक्षिक संस्‍थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण तो लागू हो गया। लेकिन कई शैक्षिक संस्‍थानों में जातिवादी प्रशासन के वर्चस्व के चलते इसे पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका। एक आंकड़े के मुताबिक पूरे देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयोंं में पिछड़े वर्ग के कोटे से मात्र 2 प्रतिशत ही प्रोफेसर हैं। वहीं देश के विभिन्न मंत्रालयों तथा सरकार के अधीन अन्य संस्‍थानों में समूह एक की नौकरियों में पिछड़े वर्ग का प्रतिशत 4.69, समूह दो में 10.63, समूह तीन में 18.98 तथा समूह चार में 12.55 है। अगर मंडल आयोग की सभी अनुशंसाएं मान ली गई होतीं तो शायद 25 साल बाद यह स्थिति नहीं आती।

 

मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग को एक बड़ा मंच जरूर दिया लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह मंच केवल सियासत के उपयोग के लिए रह गया। आज बिहार में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव यह कहते हैं कि मंडल आयोग दो की लड़ाई लड़ी जा रही है। लेकिन आम जनता जानती है कि मंडल आयोग दो की लड़ाई मंडल आयोग एक की लड़ाई से बिल्कुल ही अलग है।

 

 आज लालू सियासी अस्तित्व को बचाने के लिए मंडल आयोग दो की बात कर रहे हैं। लेकिन जब सत्ता में रहे तो उन्हें इसकी याद नहीं आई। भाजपा नेता भूपेंद्र यादव कहते हैं कि लालू यादव मंडल राज दो की बात तो करते हैं लेकिन यह बताएं कि 25 साल के शासनकाल में लालू और नीतीश ने मंडल आयोग की सिफारिशों को क्योंं नहीं लागू किया और पिछड़े वर्ग का कोटा क्‍यों खाली रहता है।  हालांकि यही सवाल भाजपा से भी किया जा रहा है जो केंद्र में पहले 6 साल सत्‍ता में रह चुकी है। सवाल जायज है, ‌आज पिछड़े वर्ग के वोट के कारण ही कई राज्यों में सत्ता की कमान पिछड़े नेताओं के हाथों में है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कोई मंडल आयोग की पूरी सिफारिशें और कोटा भरने को लागू करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है। यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पिछड़े वर्ग से हैं और पिछड़े वर्ग के हित की बात भी करते हैं लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशें पूरी तरह से लागू करने और कोटा भरने में वह भी हिचक रहे हैं।

 

सवाल उठना लाजिमी है कि मंडल आयोग की सभी सिफारिशें लागू क्योंं नहीं हो पा रही हैंॽ आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है जिसने आबादी के सबसे बड़े हिस्से को उसके वाजिब राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षिक अधिकारों से वंचित कर रखा हैॽ क्या पिछड़े वर्ग के जो नेता सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठे हुए हैं उनको इस पर नहीं विचार करना चाहिएॽ या फिर केवल वोट बैंक के लिए पिछड़ा वर्ग इस्तेमाल किया जाता रहेगाॽ

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