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अफ्सपा: जब सुप्रीम कोर्ट जांच पैनल ने मणिपुर में छह मुठभेड़ों को पाया फर्जी, जानें वो मामले

नगालैंड में एक असफल सुरक्षा अभियान के बाद सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा) के दुरुपयोग पर फिर...
अफ्सपा: जब सुप्रीम कोर्ट जांच पैनल ने मणिपुर में छह मुठभेड़ों को पाया फर्जी, जानें वो मामले

नगालैंड में एक असफल सुरक्षा अभियान के बाद सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा) के दुरुपयोग पर फिर से बातें होनी शुरू हो गई हैं। ये कानून सुरक्षा बलों को उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में गोली चलाने की छूट देता है।

वर्तमान में, अफ्सपा नागालैंड, असम और मणिपुर के कुछ हिस्सों और अरुणाचल प्रदेश में लागू है। जम्मू कश्मीर में भी 1990 से एक ऐसा कानून सशस्त्र बल (जम्मू और कश्मीर) विशेष अधिकार अधिनियम लागू है जो अफ्सपा से काफी मिलता-जुलता है।

दिलचस्प बात यह है कि अफ्सपा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रयोग में लाया गया था। 15 अगस्त, 1942 को, ब्रिटिश प्रशासन ने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए भारत छोड़ो आंदोलन को दबाने के लिए सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अध्यादेश लागू किया था। बाद में, इसे सितंबर 1958 में संसद में प्रख्यापित किया गया था।

ऐसे समय में जब इसके निरसन के लिए विरोध की आवाजें बढ़ रही हैं, मंगलवार, 7 दिसंबर को नागालैंड के राज्य मंत्रिमंडल ने बैठक की और केंद्र से अफ्सपा को निरस्त करने का आग्रह किया। 6 दिसंबर को, गृह मंत्री अमित शाह ने संसद के दोनों सदनों को आश्वासन दिया था कि एक विशेष जांच दल (एसआईटी) एक महीने के भीतर अपनी जांच पूरी कर लेगा। यह आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा कि सभी एजेंसियां यह सुनिश्चित करेंगी कि उग्रवाद विरोधी अभियानों के दौरान ऐसी घटनाएं दोबारा न हों।

इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच कराई थी। अपने चौंकाने वाले खुलासे में, जांच पैनल ने 2009-10 में मणिपुर में सुरक्षा बलों को अफस्पा के दुरुपयोग का दोषी ठहराया था।  शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त, जेएम लिंगदोह और कर्नाटक के पूर्व पुलिस प्रमुख अजय कुमार सिंह ने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला था कि सुरक्षा बलों द्वारा किए गए कम से कम छह मुठभेड़ फर्जी थे।

2016 में 'एक्स्ट्राजुडिशियल एक्ज़ीक्यूशन विक्टिम्स फैमिली एसोसिएशन ऑफ़ मणिपुर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया' पर अपना फैसला सुनाते हुए जस्टिस मदन लोकुर और यूयू ललित की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने हेगड़े आयोग के निष्कर्षों का हवाला दिया था। 

यहां उन छह मामलों पर एक नजर डालें:

केस 1: मोहम्मद आजाद खान, मणिपुर

जिस घटना में नाबालिग मोहम्मद आज़ाद खान मारा गया, वह मुठभेड़ नहीं थी और न ही आजाद आत्मरक्षा के अधिकार के प्रयोग में मारा गया था। आयोग ने पाया था कि यह निष्कर्ष निकालने के लिए कोई सबूत नहीं था कि मृतक किसी गैरकानूनी संगठन का कार्यकर्ता था या किसी आपराधिक गतिविधियों में शामिल था। 

हालाँकि, अब हमें उपलब्ध कराई गई राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की रिपोर्ट के अनुसार, 2009 में मणिपुर के उच्च न्यायालय ने एक रिट याचिका में मृतक के माँ को 5 लाख रुपये की राहत देने के लिए एक निर्देश पारित किया था। ऐसा इसलिए क्योंकि पुलिसकर्मी और असम राइफल्स के जवान इस मौत के लिए जिम्मेदार थे।

केस 2: खुंबोंगमयम ओरसोनजीत

जिस घटना में मृतक खुंबोंगमयम ओरसनजीत की मृत्यु हुई, वह न तो एक मुठभेड़ थी और न ही सुरक्षा बल यह दलील दे सकते हैं कि यह उनके आत्म-रक्षा के अधिकार का प्रयोग था।

आयोग ने आगे पाया कि खुंबोंगमयम ओरसनजीत का कोई प्रतिकूल आपराधिक इतिहास नहीं था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार के गृह मंत्रालय को यह कारण बताने के लिए एक नोटिस जारी किया गया था कि मृतक के परिजनों को मौद्रिक राहत का भुगतान क्यों नहीं किया जाना चाहिए। जाहिर है इसको अदालत ने नोट किया था लेकिन मामला अभी भी एनएचआरसी के पास लंबित है।

केस 3: नामिरकपम गोबिंद मैतेई और नामिरकपम नोबो मीतेई

यह घटना एक मुठभेड़ का नहीं था, बल्कि सुरक्षा बलों द्वारा चलाए गए एक ऑपरेशन से जुड़ा है, जिसमें पीड़ितों की मौत जानबूझकर की गई थी।

आयोग ने आगे पाया कि दोनों मृतकों का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था। एनएचआरसी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, दो मृतकों के परिवार को 5-5 लाख की मौद्रिक राहत देने की शिफारिश मणिपुर सरकार से की गई है। हालांकि, न्यायालय द्वारा वर्तमान याचिका पर निर्णय अभी भी लेना बाकी है, इसलिए राज्य सरकार के अनुरोध पर ये मामला अभी भी एनएचआरसी के पास लंबित है।

केस 4: एलंगबाम किरणजीत सिंह

यदि शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत किया गया मामला स्वीकार नहीं किया जा सकता है, तो सुरक्षा बलों द्वारा प्रस्तुत किया गया मामला भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि उन्होंने अपने निजी बचाव के अधिकार के दायरा को लांघा है। इसलिए, आयोग की राय है कि इस घटना को आत्मरक्षा के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

मृतक के खिलाफ इससे पहले कोई भी प्रतिकूल मामला दर्ज नहीं था। एनएचआरसी की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, मणिपुर सरकार को एक नोटिस जारी किया गया है कि वह कारण बताए कि मृतक के परिजनों को आर्थिक राहत क्यों नहीं दी जाए। अदालत ने कहा है कि मामला राज्य सरकार द्वारा अनुपालन की प्रतीक्षा में एनएचआरसी के पास लंबित है।

केस 5: चोंगथम उमाकांत

उमाकांत को जिस तरह से उठाया गया है और जैसे उमाकांत की मृत्यु हुई है, वो स्वीकारा नहीं जा सकता है। जिस तरह से उसकी मौत हुई, उससे निश्चित तौर पर पता चलता है कि यह मुठभेड़ नहीं हो सकती थी। ऊपर बताए गए कारणों के लिए, हमारा विचार है कि सुरक्षा बलों की ओर से यह मामला सामने रखा गया कि घटना एक मुठभेड़ थी और उमाकांत एक मुठभेड़ में या आत्मरक्षा में मारा गया था। यह कारण बिल्कुल भी स्वीकार करने योग्य नहीं है।

आयोग ने आगे पाया कि हालांकि मृतक के खिलाफ आरोप थे, लेकिन उन आरोपों की सत्यता स्थापित नहीं हो पाई थी। हमें बताया गया है कि एनएचआरसी ने मणिपुर सरकार को मृतक के परिजन को 5 लाख रुपये के भुगतान के लिए सिफारिश की है। लेकिन, अदालत ने कहा है कि मामला एनएचआरसी के पास लंबित है।

केस 6: अकोइजम प्रियव्रत उर्फ बोचौ सिंह

मृतक किसी मुठभेड़ में नहीं मरा। आयोग ने आगे पाया कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कोई स्वीकार्य सामग्री नहीं है कि मृतक के खिलाफ पहले भी ऐसा कोई प्रतिकूल मामला सामने आए हों। एनएचआरसी ने मणिपुर सरकार से मृतक के परिवार को रुपये की भुगतान करने की सिफारिश की है। हालांकि यह मामला राज्य सरकार के अनुरोध पर अभी भी एनएचआरसी के पास लंबित है।

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