शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने शर्तों के साथ इच्छा मृत्यु को मंजूरी दे दी है। मगर इच्छा मृत्यु किसे चाहिए? कैसे उठी इच्छा मृत्यु की मांग? इसे कानूनी जामा पहनाने की लड़ाई में क्या-क्या हुआ? इन सबके जवाबों के बीच में एक नाम जरुर आता है वह है ‘अरुणा शानबाग केस’, यह मामला इच्छा मृत्यु की कानूनी लड़ाई में अहम मोड़ सिद्ध हुआ।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की बेंच ने 2011 में अरुणा शानबाग केस की सुनवाई करते हुए निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति दी थी। बाद में संसद से आईपीसी की धारा 309 (आत्महत्या का प्रयास) को समाप्त करने की सिफारिश की थी।
7 मार्च, 2011 को आए इस निर्णय ने ठीक न होने की हालत में पहुंच चुके मरीजों एवं उनकेपरिवार वालों को राहत देते हुए विशेष परिस्थितियों में इच्छा मृत्यु की मंजूरी दी।
क्यों मांगी गई थी इच्छा मृत्यु
1973 में मुंबई के किंग एडवर्ड्स मेमोरियल अस्पताल में नर्स अरुणा शानबाग के साथ उसी अस्पताल के सोहनलाल वाल्मीकि नाम के वार्ड बॉय ने रेप किया था। साथ ही बर्बरता करते हुए कुत्तों को बांधने वाली जंजीर से गला घोंटकर उसे मारने का भी प्रयास किया। दिमाग में ऑक्सीजन की पूर्ति नहीं होने के कारण वह कॉमा में चली गई। 18 मई, 2015 को 42 साल बाद को उसकी मौत हो गई।
कानूनी घटनाक्रम
-26 अप्रैल, 1994 को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने भी इच्छा मृत्यु का समर्थन करते हुए आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाने) को असंवैधानिक करार दिया था। पीठ ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के अधिकार के साथ मरने का अधिकार भी मौलिक अधिकार के रूप में निहित है।
-21 मार्च, 1996 को पांच जजों की संविधान पीठ ने ज्ञान कौर बनाम भारत सरकार के मामले में इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि इच्छा मृत्यु और किसी की सहायता से आत्महत्या देश में गैरकानूनी हैं।
- 2000 में केरल हाईकोर्ट ने कहा कि इच्छामृत्यु की अनुमति देना आत्महत्या को स्वीकार करने के बराबर होगा।