पुराने नारे और नया नजरिया दोनों ही उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के बुनियादी ताने-बाने को बदल रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कासगंज के दलित एक्टिविस्ट के.सी. पिप्पल कहते हैं, “हमारी लड़ाई अपने अधिकारों के लिए है। हमारा मंत्र है, जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भगीदारी (आबादी के मुताबिक हिस्सेदारी), यह हमारा अधिकार है।” जनगणना के हालिया आंकड़े के मुताबिक, अनुसूचित जाति की आबादी 16.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की 8.6 फीसदी है। इन आंकड़ों के आधार पर वह कहते हैं कि आरक्षण की मौजूदा केंद्रीय सीमा 22.5 फीसदी से अधिक होनी चाहिए। “यह हमारा अधिकार है। मौजूदा सरकार किसी भी तरह हमारे अधिकारों में कटौती की कोशिश कर रही है। लेकिन अब दलित एकजुट और संगठित हैं।” वह दो अप्रैल के सफल भारत बंद का हवाला देते हैं और कहते हैं कि बिना किसी “राजनीतिक नेतृत्व” के यह कामयाब हुआ।
पिछले साल उत्तर और मध्य भारत में सामाजिक मायनों में बदलाव के कई लम्हे देखे गए। दलित और सवर्ण जातियों, खासकर राजपूतों से टकराव ने तनाव के नए पहलू जोड़े, जिसने इन हिस्सों में राजनीति को परिभाषित किया। मई 2017 में सहारनपुर जिले के शब्बीरपुर गांव में दलितों के खिलाफ हिंसा का ही मामला लें। चंद्रशेखर आजाद रावण ने यह संघर्ष इस अतिसंवेदनशील क्षेत्र में शुरू किया, जिससे दलितों को एक नया प्रतीक मिल गया। चंद्रशेखर रावण भीम आर्मी के करिश्माई संस्थापक हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तारी से पहले इस घटनाक्रम ने उन्हें सुर्खियों में ला दिया।
अगर व्यापक रूप से देखें, तो शब्बीरपुर और उसके बाद के घटनाक्रम सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ गए। रावण की हालिया रिहाई भाजपा की तरफ से 2019 से पहले दलितों की नाराजगी शांत करने के लिए उठाए गए कदम के रूप में देखा जा रहा है। दलित कभी बसपा प्रमुख मायावती के ठोस वोट बैंक माने जाते थे, लेकिन पिछले चुनाव में उसमें बड़ा सेंध लगा। मायावती रावण जैसे नए उभरे प्रतीकों को एक खतरे के तौर पर देखती हैं। इसमें कोई हैरानी नहीं कि उन्होंने उसकी रिहाई के बाद उसकी तरफ से अस्थायी रूप से संबंध आगे बढ़ाने के प्रस्ताव से इनकार कर दिया।
मायावती समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन पर वीटो चाहती हैं, ताकि उनकी अपरिहार्यता बनी रहे। उनकी महत्वाकांक्षा और बगावती युवा दलितों का रुख 2019 में वोटिंग पैटर्न को काफी प्रभावित कर सकता है।
फिलहाल इसमें भाजपा के लिए खुशी की बात नहीं है। इससे तरक्की कर रहे एक समुदाय को अलग-थलग करने में चूक हो सकती है। दीर्घकालीन सुधारवादी नीति और सामाजिक बदलावों ने यह सुनिश्चित किया है कि दलित, विशेष रूप से जाटव अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पुराने शोषित वर्ग नहीं हैं, जैसा कि अन्य किसी जगह पर हैं। तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती की सशक्त मौजूदगी ने दलितों को सामाजिक और मानसिक रूप से सशक्त किया है। पिछले कई दशकों में उनकी शिक्षा और आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है। अब वे सिर्फ खेतिहर मजदूर ही नहीं, बल्कि सरकारी नौकरियों के साथ सामाजिक रूतबा भी बढ़ा है। यहां तक कि कुछ बिजनेस और खेती में भी काफी आगे बढ़े हैं। उन्होंने बेहतर कमाई के लिए गांवों से शहरों और कस्बों का भी रुख किया है। सुप्रीम कोर्ट के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता एस.एस. नेहरा कहते हैं कि दलित अब पहले से अधिक संगठित और अपने मकसद के लिए एकजुट होकर लड़ने में सक्षम हैं। यह रावण जैसे युवा एक्टिविस्ट के उभार को बतलाता है। हालांकि, मतदाताओं पर रावण का प्रभाव अभी भी सीमित है। अधिकांश दलित अपने नेतृत्व को लेकर बिल्कुल स्पष्ट हैं- वह हैं मायावती है, जो राष्ट्रीय राजनीति में धमक रखने वाली एकमात्र दलित नेता हैं।
हालिया घटनाएं भी एक नए दलित-ओबीसी गठजोड़ का संकेत देती हैं। ऐसा गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना उपचुनाव में भी देखा गया, जहां दलितों ने राष्ट्रीय लोक दल के पक्ष में वोट किया। अधिक दिलचस्प मामले फिरोजाबाद, कन्नौज और इटावा जैसे मध्य जिलों में देखने को मिल रहे हैं, जहां दलित सरकारी योजनाओं में लाभ लेने के लिए यादव विधायकों और विधानपरिषद सदस्यों के पास जा रहे हैं। यादव और दलितों के बीच पहले की कड़वाहट तेजी से खत्म हो रही हैः यानी सामाजिक रूप से देखें तो प्रस्तावित गठबंधन जमीनी हकीकत की ओर बढ़ रही है। वरिष्ठ भाजपा नेताओं को अभी भी उम्मीद है कि पुरानी खटास दलित-यादव वोटों के एकजुट होने से रोकेगी, लेकिन फिर भी वे भयभीत हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा ओबीसी और दलित उप-जातियों पर ध्यान केंद्रित कर रही है।
सेवानिवृत्त सेना अधिकारी और दलित एक्टिविस्ट कर्नल आर.एल. राम कहते हैं कि प्रभावशाली ओबीसी और दलितों के बीच कोई विवाद नहीं है। वे कहते हैं, “हम आपसी समझ को बेहतर करने के लिए काम कर रहे हैं।” दूसरी तरफ, वे आगे कहते हैं कि ठाकुर और ब्राह्मणों का दलितों के साथ हमेशा से असहज रिश्ते रहे हैं। हालिया एससी/एसटी अधिनियम विरोध आंदोलन से यह विभाजन बढ़ ही सकता है।
उत्तर प्रदेश में 22-23 फीसदी एससी/एसटी वोटर हैं। इनमें एसटी महज एक फीसदी ही हैं। बाकी के 22 फीसदी में दलित वोटर हैं, जिसमें 60 फीसदी जाटव हैं, जो मायावती के कोर वोटर माने जाते हैं। कोइरी, खटीक और कुछ वाल्मीकि भाजपा के समर्थक हैं। पासी दूसरी सबसे बड़ी दलित जाति है, जो सपा-भाजपा के बीच बंटी है। इसी कारण मायावती का वोट शेयर 22-23 फीसदी से नीचे नहीं जाता है। इसलिए सपा-बसपा और आरएलडी का गठबंधन जो अभी व्यावहारिक दिख रहा है, वह भाजपा के लिए बड़ी परेशानी का सबब बन सकता है।