“संसाधनों के माकूल बंटवारे से ही समाज के द्वंद्व मिटेंगे”
जातिवार जनगणना (2021) कराने की मांग ऐसा मुद्दा है, जिसके लिए एक वक्त ‘जाति’ सेनाओं के लिए चर्चित बिहार का सत्ता पक्ष और विपक्ष एकजुट होकर राष्ट्रपति को ज्ञापन देने और प्रधानमंत्री से मुलाकात करने के लिए अपनी कड़वाहट भुला बैठा। इसके विपरीत कुछ हलकों ने राष्ट्रपति को जातिवार गणना न कराने का भी ज्ञापन दिया। यह द्वंद्व विचित्र है। 'हमें गिनो और हमें न गिनो' के बीच अस्मिता निर्मिति और जाति भेदभाव की विद्रूपता और उसको प्रकट करने या स्वीकार न करने की भावना बहती रहती है।
कुछ दशक पहले कांशीराम ने ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा दिया था। लेकिन दूसरी तरफ इसके विरुद्ध विमर्श रचा जाने लगा कि जाति गिनने से विभेदकारी और विभाजनकारी प्रवृत्तियां जन्म लेंगी। ऐसी दलील देने वालों को शायद यह खतरा लग रहा था कि वंचित तबके अपनी संख्या की बहुलता जानकर शायद वंचित बने रहने से इनकार कर दें और संसाधनों में ज्यादा हिस्सा मांगने लगें। लेकिन जाति शायद पहले ही विभेदकारी और विभाजनकारी है, इसीलिए बाबा साहब ने कहा था कि जाति श्रम का नहीं, श्रमिकों का विभाजन है। दलील यह भी दी गई कि जातियां न गिनी जाएं क्योंकि यह हिंदू मतावलंबियों का विभाजन है। लेकिन तथ्य यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम, ईसाइयत और सिख मतावलंबी सभी ऊंची-नीची जातियों में बंटे हैं जबकि ये धर्म सैद्धांतिक स्तर पर जाति को नकारते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में तो जाति बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक दर्शन के मतावलंबियों में भी पाई जाती है।
जातिवार गणना अंग्रेजों के राज में 1931 में अविभाजित भारत में हुई थी। उसके बाद 1941 में हुई जनगणना को प्रकाशित नहीं किया गया। स्वतंत्र भारत में 1951 की पहली जनगणना जातिवार न होकर समूहवार की गई, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजातियों को समूह के तौर पर गिना गया। अन्य पिछड़ी जातियों की सिलसिलेवार गणना स्वतंत्रता के बाद नहीं हुई। इसी वजह से समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा बुलंद किया। जगदेव प्रसाद ने उससे आगे बढ़कर कहा, “सौ में नब्बे शोषित हैं तो नब्बे भाग हमारा है।” इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर बाद के दौर में कई राज्यों में जातियों को पिछड़ा, अगड़ा, दलित, महादलित घोषित किया जाता रहा। इससे इतर जाति और पिछड़ेपन के युग्म को तोड़ने के लिए ‘आर्थिक’ आधार को भी विमर्श का हिस्सा बनाया जाने लगा। लेकिन जातिगत पिछड़ेपन को आर्थिक गतिशीलता के सहारे चुनौती नहीं दी जा सकती।
वंचित और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को प्रोत्साहित करने के लिए भी पहले उनका गिना जाना आवश्यक है। अक्सर जातिगत भेदभाव कम करने के लिए किसी भी सरकार के उठाए कदमों को शंका की नजर से देखा जाता है और उसे वोट बैंक की राजनीति बता दिया जाता है। आरक्षण जैसे प्रावधान को जाति उन्मूलन का तरीका न मान कर संसाधनों का बंटवारा ही माना जाता है। जाति और पिछड़ेपन को भांपने के लिए हमें जानना होगा कि भारतीय परिस्थितियों में आर्थिक स्तर पर दलित हिस्सेदारी कितनी है। कुल कृषि योग्य भूमि में से मात्र 8.5 फीसदी पर दलितों का मालिकाना हक है। यह कथित जमींदारी उन्मूलन और भूदान आंदोलन के नतीजे से हुआ है। इस मालिकाना हक में भी 61 फीसद दो हेक्टयर से भी कम भूमि है, बाकी तो एक हेक्टयर भूमि भी नहीं रखते। इसी अवस्था के कारण दिहाड़ी मजदूरों में 63 फीसदी दलित हैं और बेरोजगारी के आंकड़ों में ‘सामान्य वर्ग’ से डेढ़ फीसदी से अधिक का फासला है। एक और अध्ययन के अनुसार केंद्र में सचिव पद पर फिलहाल एक भी दलित नहीं और सबसे ऊपर के पांच सौ अधिकारियों में से मात्र तीन दलित हैं। ये आंकड़े भी उस विषमता को दर्शाते हैं, जिसके अनुसार 110 दलित सीवर-सेप्टिक टैंक साफ करने के दौरान 2019 में मारे गए और सरकार के अनुसार अब भी 42 हजार लोग सिर पर मैला ढोते हैं।
उपरोक्त द्वंद्व शिक्षा क्षेत्र में उस विमर्श जैसा है कि कक्षा में जाति पढ़ाई जाए या न पढ़ाई जाए। जाति पढ़ाए बिना उससे जुड़े भेदभाव और भारतीय उपमहाद्वीप में अस्मिता निर्मिति को नहीं समझा जा सकता। जाति पढ़ाई जाए तो समाज ‘जातिविहीन’ कैसे होगा। फिर पाठ्यवस्तु कैसी हो? तमाम शिक्षा संस्थानों में मध्यान्ह भोजन, छात्रावास आवंटन, दाखिले और मूल्यांकन वगैरह में जाति भेद की मिसालें हैं। जिन शैक्षणिक संस्थानों में भावी समरसता पनपनी थी, उन्हीं में सेंथिल कुमार, बालमुकुंद भारती, जसप्रीत सिंह और तमाम अन्य वंचित जातियों के विद्यार्थी आत्महत्या कर लेते हैं।
इसी क्रम में मेरिट की वह अवधारणा पनपती है, जहां ज्ञान और कर्म के बीच अकथित अनुक्रम रचा जाता है। अध्यापक, विद्यार्थी, पाठ्यक्रम और मूल्यांकन जब सभी जाति लेकर कक्षा में आते हैं, तो उस कक्षा में जातिविहीन समाज के भविष्य की रूपरेखा कैसे गढ़ी जा सकती है? अस्मिता का दर्शन ही भेदभावपरक है, जिसे मनुष्य स्वयं को दूसरे से भिन्न दिखाने के लिए ही रचता है। हालांकि जैसे स्त्री-पुरुष, भाषा, धर्म, वर्ण, नस्ल जैसी भूगोलीय-जैविक-राजनैतिक भिन्नताओं को मिटाना संभव नहीं है, वैसे ही भारतीय उपमहाद्वीप में ‘जाति’ निर्मिति को मिटाया नहीं जा सकता। जाति कभी नहीं जाती, हम न केवल अपनी जाति में जन्म, विवाह, मैत्री, राजनीति वगैरह करते हैं, बल्कि मरते भी उसी जाति में है और अंतिम संस्कार भी उसी के अनुरूप होता है। इसका सामना करने के दुस्साहस से ही शायद इसका निराकरण हो। न गिनने का विकल्प हमारे पास नहीं है, क्योंकि गाहे-बगाहे एनएसएसओ के सर्वेक्षण जाति संख्या के आंकड़े परोक्ष रूप से प्रस्तुत करते ही हैं। नेता चुनाव के मकसद से अपने क्षेत्र में भिन्न जातियों का संख्या बल जानते भी हैं और चुनावी समर में उसका इस्तेमाल भी करते हैं। जरूरी है कि इसे औपचारिक बनाया जाए और कुछ जातियों के भरोसे ही राष्ट्र विकास के दर्शन और राजनीति को खारिज किया जाए।
(लेखक हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला में पढ़ाते हैं। ये उनके निजी विचार हैं)