नीरजा चौधरी
एक वक्त वह भी था जब राहुल गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने के लिए कांग्रेस की रैलियों में उन्हें मंच पर आगे करना पड़ता या बुलाना पड़ता था। अमूमन वह मंच पर पीछे कुछ शरमाए-से दुविधा में खड़े दिखते, किसी तरह की अहमियत दिए जाने से बचते रहते थे।
आज नेहरू-गांधी खानदान की पांचवीं पीढ़ी के वही राहुल आखिरकार 132 साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व बतौर अध्यक्ष संभालने को तैयार हैं। उन्होंने यह जिम्मेदारी अपनी मां सोनिया गांधी से ली है, जो 19 साल, कांग्रेस की सबसे लंबी अवधि तक अध्यक्ष रही हैं और उनकी एकमात्र उपलब्धि पार्टी को एकजुट रखने की रही है।
दरअसल, राहुल की यह दुविधा 2004 में टूटनी शुरू हुई। वह अमेठी से चुनाव में उतरे। यहीं से चुनावी राजनीति में उनका प्रवेश हुआ। वह फैसला भी उस समय कांग्रेस के प्रथम परिवार का ही था कि चुनाव राहुल लड़ेंगे, प्रियंका नहीं, क्योंकि उनके बच्चे अभी छोटे हैं। वह फैसला इतने वर्षों बाद भी नहीं पलटा। हालांकि समय-समय पर कांग्रेस कार्यकर्ता यह मांग करते रहे हैं कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में उतरें पर उन्होंने खुद को अपनी मां और भाई के चुनाव क्षेत्रों रायबरेली और अमेठी तक ही सीमित कर रखा है।
2004 चुनावों के बाद कांग्रेस की अगुआई में यूपीए सत्ता में आया लेकिन ‘संकोची’ नेता दलितों के घर जाकर ठहरने से ही सुर्खियां बटोरते रहे, जिसकी दिल्ली के सियासी गलियारों में विरोधियों ने दिखावा कहकर आलोचना भी की। हालांकि सत्ता की चाहत न होना, ऐसा मामला है जिस पर देश के लोग वाह-वाह कर उठते हैं और शुरुआती वर्षों में राहुल के बारे में ऐसी ही धारणा बनी। हालांकि राहुल महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को विस्तार दिलाने के लिए सक्रिय रहे। मां सोनिया गांधी की ही तरह उन्होंने भी यूपीए-1 सरकार के दौरान नागरिक अधिकारों की सशक्त पैरोकारी की, जिससे सूचना के अधिकार, रोजगार का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे कानून पारित किए जा सके। इसी से 2009 में सत्ता में वापसी की जमीन तैयार हुई।
2009 के आम चुनावों में भी उनके प्रति जन धारणा काफी अच्छी थी और इसकी कांग्रेस को 206 सीटें दिलाने में भूमिका थी जबकि 2004 में 144 सीटें ही थीं। तब सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह (‘उदारीकरण के अगुआ’ जिन पर अमेरिका से परमाणु करार पर जोर देने से शहरी मध्यवर्ग फिदा था) और राहुल (जिन पर युवा फिदा थे) के तालमेल ने मतदाताओं पर जादू की तरह काम किया। 2009 में तो भाजपा के वरिष्ठ नेता भी कहते पाए गए थे कि उनके परिवारों के युवा तो कांग्रेस को वोट कर रहे हैं!
राहुल को गंभीर और भला तो माना जाता रहा लेकिन वह चौबीसों घंटे राजनीति में बिताने वाले नेता नहीं थे और यही उनकी दुखती रग साबित हुई। वह कई अहम मौकों पर विदेश चले जाते रहे हैं। मसलन, अन्ना हजारे के आंदोलन के उबाल वाले दिनों में, जिससे नरेंद्र मोदी के उत्थान की जमीन तैयार हुई; या 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाए जाने के फौरन बाद; या फिर हाल में मध्य प्रदेश में किसानों की पुलिस की गोली से मौत के लिए भाजपा सरकार की तीखी आलोचना करने के फौरन बाद। ये तो महज कुछ उदाहरण भर हैं। इससे उन्हें ‘पप्पू’ (भाजपा का गढ़ा पद) की पदवी से नवाजा जाने लगा। इस तरह देश का राजकाज चलाने की उनकी क्षमता पर संदेह घना होने लगा। जिस संकोच के लिए राजनीतिक जीवन की शुरुआत में उन्हें सराहा जाता था, वही अब उनका दुर्गुण जैसा बन गया। लोगों को लगने लगा कि वह अंत में जिम्मेदारी लेने से पीछे हट जाएंगे।
वह 2004-09 के दौरान बतौर सांसद कोई छाप छोड़ने में भी नाकाम रहे। वह कई विषयों पर बोल सकते थे, ब्रांड राहुल तैयार कर सकते थे और विभिन्न मुद्दों पर कांग्रेस का रुख साफ कर सकते थे। आखिर उनके पास सरकार और पार्टी थी, जो उनकी मदद करती। राहुल गांधी की सबसे बड़ी भूल उनका यह विश्वास था कि वक्त उनका इंतजार करेगा और वह हाथ आए मौके छोड़ते रहे। मगर राजनीति किसी का इंतजार नहीं करती।
2009 में यह अटकल थी कि राहुल गांधी 2011 की शुरुआत में सरकार का नेतृत्व संभाल लेंगे और मनमोहन सिंह राष्ट्रपति भवन की ओर कूच कर जाएंगे। या फिर वह सरकार में शामिल होंगे और राजकाज के तौर-तरीके सीखेंगे और देश का राज चलाने का अनुभव हासिल करेंगे। एक विचार यह भी था कि वह सीधे जनता से जुड़े मंत्रालय का कार्यभार संभालेंगे, ताकि उनकी छवि जन हितैषी की बने।
लेकिन राहुल अपना ‘संकोच’ नहीं तोड़ पाए जबकि सोनिया गांधी ने उनके हक में हटने की इच्छा जाहिर कर चुकी थीं। इस तरह 2014 में अगर मौका मिला तो राहुल की हिचक को भांप कर पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने खुद को सर्वोच्च कुर्सी पर पहुंचाने के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी। इससे एक-दूसरे के खिलाफ खबरें आने लगीं, जो सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर से ही छनकर आ रही थीं। कई वजहों से यूपीए-2 सरकार एक के बाद एक घोटालों के लिए जानी जाने लगी और उसका नेतृत्व उस पर काबू नहीं पा सका क्योंकि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनों की सेहत उतनी अच्छी नहीं रही थी। पार्टी में यह सुगबुगाहट भी थी कि पुराने नेता शायद परदे के पीछे राहुल गांधी के खिलाफ सक्रिय हो सकते हैं क्योंकि पार्टी में पीढ़ीगत बदलाव होने से उनकी ‘राजनीतिक दुकानें’ बंद हो सकती हैं। और राहुल के पास इन चुनौतियों की काट के लिए समर्थकों की टोली, नये विचार, राजनीतिक सूझबूझ या नया राजनीतिक एजेंडा तय करने की काबिलियत का अभाव है।
राहुल को जनवरी 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष का पद संभालने को मनाया गया। उस वक्त उनका भाषण शायद आज तक का सबसे बेहतर भाषण है। उसमें उनका दर्द और दुविधा दोनों छलक रही थीं। मसलन, जिन दो सुरक्षा गार्डों के साथ वे बैडमिंटन खेला करते थे, उन्होंने ही उनकी दादी इंदिरा गांधी को मार डाला; और जो जिम्मेदारी वह उठाने जा रहे हैं, उसका संबंध नेहरू-गांधी परिवार से है, जो लगभग एक सदी से कांग्रेस पार्टी और देश का नेतृत्व करता रहा है। यह सुनकर मंच पर और सभागार में बैठे पके-पकाए कांग्रेसियों की भी आंखें गीली हो गई थीं।
आखिरकार अब वह मोर्चे पर आगे बढ़कर अगुआई को तैयार हुए तो उनके सामने दूसरी तरफ नेताओं की नई जमात-नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी-खड़ी है। इस जोड़ी का वास्ता सिर्फ और सिर्फ राजनीति से ही नहीं है बल्कि वे आक्रामक हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के भी प्रतीक हैं और ऐसी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं जिसके ‘रक्ष्ाकों’ की तादाद लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा मोदी अब भी युवाओं को लुभाते हैं। उन्हें आरएसएस कार्यकर्ताओं के नेटवर्क का भी पूरा समर्थन है, फंड की कोई कमी नहीं है। वे एक अपराजेय-सा चुनावी तंत्र खड़ा कर चुके हैं। इस तरह भाजपा दिल्ली, बिहार (बाद में नीतीश कुमार के पाला बदलने से वहां भी सरकार में), पंजाब को छोड़कर राज्य-दर-राज्य जीतती गई।इसके बरक्स राहुल ऐसी पार्टी की अगुआई करेंगे, जो देश की सबसे पुरानी पार्टी तो है मगर फिलहाल अपने सबसे मुश्किल दौर में है।
2014 में लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या अब तक की सबसे कम 44 रह गई है और वह पंजाब को छोड़कर एक के बाद एक राज्य की सत्ता गंवाती गई है। पार्टी के सामने शायद आज वजूद बचाने का संकट खड़ा है। मोदी और शाह कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के अपने नारे को लेकर वाकई गंभीर हैं। हालांकि कांग्रेस का दावा है कि देश के हर कोने में आज भी उसके कार्यकर्ता हैं लेकिन यह भी सही है कि उसके सामने बेहद कमजोर और मृतप्राय संगठन में जान डालने की चुनौती है।
उसकी इस विडंबना की सबसे बड़ी मिसाल गुजरात है, जहां फिलहाल चुनाव चल रहा है। वहां समाज का बड़ा तबका-पाटीदार, ओबीसी, दलित, किसान, व्यापारी-भाजपा से खफा हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस इस नाराजगी को अपने लिए वोटों में बदल पायी है? क्या वह मतदाताओं को बूथ तक ले जा पायी है? अगर उसके पास कोई लोकप्रिय और करिश्माई चेहरा होता तो शायद वह भाजपा को और कड़ी टक्कर दे पाती।
इससे भी बढ़कर पार्टी के सामने पूरे देश और राज्यों में बेहद कमजोर-से संगठन में जान डालने की चुनौती है। फिर उसके सामने हर राज्य में मुख्यमंत्री पद के ऐसे चेहरे तलाशने की भी चुनौती है जिनका अभी भी जनाधार हो और जिनमें भाजपा से लोहा लेने की कूव्वत हो। राहुल की पहली चुनौती गुजरात के बाद 2018 में तय चुनाव वाले राज्यों में जीत दर्ज करने की होगी। अगले साल के मध्य में कर्नाटक और राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण हिंदी प्रदेशों के चुनाव हैं। राहुल के लिए शायद इन राज्यों की अहमियत एक मायने में गुजरात से अधिक है (गुजरात तो प्रधानमंत्री का गृह राज्य होने के नाते मोदी के लिए अहम है) क्योंकि ये राज्य 2019 के लोकसभा चुनावों का रुझान तय कर देंगे। इन राज्यों में कांग्रेस की टक्कर सीधे भाजपा से ही है। सिद्धांत रूप में तो इन राज्यों में एंटी-इनकंबेंसी और सरकार के खिलाफ नाराजगी का लाभ कांग्रेस को मिलना चाहिए।
अगर राहुल राजस्थान में सचिन पायलट और मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करते हैं तो कांग्रेस में पीढ़ीगत बदलाव भी दिख सकता है। इन दोनों ने अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस में जान डालने के लिए कड़ी मेहनत की है और शायद युवाओं में इनकी लोकप्रियता भी हो, जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। तो, क्या राहुल युवा नेताओं को राष्ट्रीय मंच पर लगाएंगे? ऐसे कुछ नाम पायलट, सिंधिया, दीपेंद्र हुडा, रणदीप सुरजेवाला, मिलिंद देवड़ा, तरुण गोगोई, सुष्मिता देव, शशि थरूर, जितिन प्रसाद के लिए जा सकते हैं।
राहुल को नरेंद्र मोदी से लोहा लेने के लिए कांग्रेस का युवा और ऊर्जावान चेहरा पेश करना होगा लेकिन उन्हें पुराने नेताओं को भी साथ लेकर चलना होगा। इसका अर्थ उन क्षत्रपों को अधिक स्वायत्तता देनी होगी जिनका अब भी रसूख और जनाधार है। जैसा पंजाब में अमरिंदर सिंह और कर्नाटक में सिद्धरमैया के मामले में किया गया है।
अब वे पार्टी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी उठाने जा रहे हैं तो यह भी ध्यान रखना होगा कि 2019 में कांग्रेस की अपने अकेले दम पर जीतने की उम्मीद कम ही है। सो, उन्हें गैर-एनडीए विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर लाने का कठिन काम अंजाम देना होगा। मुख्यधारा की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। बेशक, उनकी मां सोनिया गांधी गैर-एनडीए विपक्षी पार्टियों के नेताओं के बीच अच्छा रसूख रखती हैं और शायद वह यह भूमिका निभाएं भी।
इतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि विपक्षी वोटों के बिखराव को रोकने के लिए हर संसदीय क्षेत्र में एनडीए के मुकाबले एक ही विपक्षी उम्मीदवार खड़ा हो। आखिर, 2014 में मोदी की पार्टी को सिर्फ 31 फीसदी वोट ही मिले थे। फिर भी वह अपनी पार्टी को बहुमत के आंकड़े से आगे ले गए।
देश भर में जीएसटी और नोटबंदी के असर से उपजी नाराजगी के चलते राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए शायद यह सबसे उपयुक्त समय है। इस मामले में उनके ‘बेहतर’ प्रदर्शन की धारणा बन रही है। शायद इसकी एक वजह भाजपा के खिलाफ नाराजगी हो। इसमें दो राय नहीं कि उनकी संभावनाएं मोदी की गलतियों से जुड़ी हुई हैं।
जब तक मोदी की जमीन तेजी से खिसकना नहीं शुरू होगी और उनके राजकाज के खिलाफ गुस्सा चरम पर नहीं पहुंचेगा, फिलहाल तो यही दिखता है कि राहुल को मोदी के विकल्प के रूप में नहीं देखा जाएगा। 2019 में कांग्रेस राहुल को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करती है और विपक्ष अपने में से किसी को पेश करता है तो उस स्थिति में मोदी से नाराज लोग शायद ‘नोटा’ में वोट डालना पसंद करें या फिर वोट देने ही न जाएं। तो, उस हालत में राहुल क्या अपनी उम्मीदवारी छोड़कर कांग्रेस में जान डालने पर ध्यान लगाएंगे और मोदी से लोहा लेने के लिए किसी विपक्षी मोर्चे को बढ़ावा देंगे?
सवाल कई हैं मगर यह भी सही है कि राहुल के लिए इससे बेहतर वक्त नहीं हो सकता।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और कांग्रेस की राजनीति की जानकार हैं)