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चर्चाः ड्रीम गर्ल की ‘ड्रीम जमीन’ | आलोक मेहता

सपनों की रानी के भी सपने हो सकते हैं। सपनों में महल, चांद-सूरज, कोहिनूर हीरे सहित स्वर्ण माला, हाथी, घोड़े-पालकी, दरबार, संगीत-नृत्य होना स्वाभाविक है। आधुनिक भारत में रूपहले पर्दे की सफल अभिनेत्री हेमा मालिनी किसी भी पूर्ववर्ती महारानियों से अधिक लोकप्रिय रही हैं। अभिनय के साथ मंच पर भी हेमा मालिनी की नृत्य-नाटिका आज भी लोगों के मुग्ध करती हैं।
चर्चाः ड्रीम गर्ल की ‘ड्रीम जमीन’ | आलोक मेहता

भारतीय ‘देवी’ दर्शन से धन्य होने वाले भोले-भाले नागरिकों को आकर्षित करने के लिए भारतीय जनता पार्टी पहले ‘ड्रीम गर्ल’ को राज्यसभा लाई। फिर मथुरा जैसी धार्मिक नगरी से लोकसभा चुनाव जीतकर हेमा मालिनी ने राजनीतिक मंच पर भी महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। हेमा के पतिदेव धर्मेंद्र भी लोकसभा के सदस्य रह चुके थे और राज्यसभा की जनता उनसे इसी बात से खिन्न रही कि उन्होंने कोई काम नहीं किया। हेमा मालिनी यदा-कदा मथुरा और अन्य स्थानों पर ‘दर्शन’ देकर मीठे संवाद सुना देती हैं, लेकिन जनप्रतिनिधि के रूप में उनसे सीधा संपर्क लगभग असंभव है। हेमा मालिनी ने चुनाव के दौरान अपनी संपत्ति का विवरण दिया हुआ है। इसलिए भाजपा यह नहीं कह सकती कि वह साधन विहीन कलाकर हैं। लेकिन कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी या अकाली दल के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी भी अपने ‘प्रियजनों’ और ‘हिंदुत्व’ की रक्षा वाली संस्थाओं को सरकारी जमीन, अनुदान देने में कभी पीछे नहीं रही। इस दृष्टि से महाराष्ट्र की भाजपा सरकार द्वारा हेमा मालिनी की संस्था को मुंबई में करोड़ाें रुपये मूल्य की जमीन मात्र सत्तर हजार रुपये में अलॉट कर दी।

हेमाजी लगभग बारह वर्षों से इस जमीन को पाने के सपने देख रहीं थीं। कांग्रेस के पृथ्वीराज ने उदारता नहीं दिखाई। अब अपनों का राज है। फिर अफसर हों या नेता – ड्रीम देवी के एक इशारे पर चांद-तारे जमीन पर लाने की बात कर सकते हैं। चांद या मंगल ग्रह पर भी बड़ा टुकड़ा अलॉट कराने का वायदा मोदी सरकार भी कर सकती है। लेकिन राजनीतिक विरोधी ही नहीं भारतीय नृत्य-संगीत, रंगमंच, कला को समर्पित श्रेष्ठतम कलाकार यदि मुंबई, दिल्ली, कोलकाता या चंडीगढ़ में ऐसी जमीन नाम मात्र के मूल्य पर देने का आग्रह करें, तो क्या सरकारें स्वीकारेंगी ? मुंबई, पुणे में शुभा मुद‍्गल ने अपने संगठनों के माध्यम से संगीत महोत्सव शुरू किए, लेकिन राजकीय अथवा कारपोरेट सहयोग न मिलने से कुछ वर्षों बाद योजना ठप्प हो गई। बिरजू महाराज को नृत्य शिक्षा केंद्र के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा। गांधीवादी संस्थाओं की बदहाली आउटलुक हिंदी के ताजे अंक में पढ़कर देख लीजिए। इस दृष्टि से सत्ताधारियों द्वारा ‘जमीन’ अनुदान बांटने के लिए आंखों पर पट्टी बांधे रखना लोकतंत्र के लिए क्या किसी कलंक से कम है? 

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