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चर्चा : चुनावी अवश्वमेघ यज्ञ की तमन्ना। आलोक मेहता

नरेंद्र मोदी चुनावी चुनौतियों को विजय यात्रा के रूप में मानते रहे हैं। उनके आत्मविश्वास और दिन-रात अभियान चलाने की क्षमता का लोहा उनके सहयोगी ही नहीं विरोधी तक मानते हैं। वह 2014 से निरंतर चुनावी सभाओं को संबोधित करते रहे हैं। चुनावी अश्वमेघ यज्ञ के लिए घोड़ा तैयार कर वह अखिल भारतीय स्तर पर एक ही अभियान में एकछत्र राज का प्रयास भी करना चाहते हैं।
चर्चा : चुनावी अवश्वमेघ यज्ञ की तमन्ना। आलोक मेहता

पिछले दिनों भाजपा नेताओं की एक बैठक में उन्होंने सुझाव के रूप में यह इच्छा व्यक्त की कि देश में लोक सभा, विधान सभाओं और पालिका-पंचायत तक के ‌चुनाव पांच वर्ष में एक साथ होना चाहिए। इससे समय, खर्च की बचत के साथ नेताओं-कार्यकर्ताओं को चुनाव के बाद पांच वर्ष तक काम करने का समुचित अवसर मिल सकेगा। इस आकांक्षा को एक व्यक्ति तथा पार्टी के वर्चस्व के खतरे के रूप में भी माना जा सकता है। लेकिन विविधता वाले इस देश में क्षेत्रीय हितों से जुड़े राजनीतिक दलों, मुद्दों, परिस्थितियों के कारण एकदलीय व्यवस्‍था की संभावना बहुत कठिन है। कोई भी एक नेता और पार्टी तानाशाह की तरह भारत में आसानी से शासन नहीं कर सकती है। हां, वर्तमान ‌स्थिति में लोक सभा, विधान सभा चुनाव के निर्णय को लागू करना सर्वाधिक कठिन समस्या है।

यूं राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दृ‌िष्‍ट से यह आदर्श पहल हो सकती है। आखिरकार, आजादी के बाद चुनाव की निर्धारित सीमा पांच वर्ष तय हुई थी और अधिकांश राज्यों में एक साथ चुनाव होते भी थे। सन 1970 के बाद मध्यावधि चुनाव, दलबदल से विधान सभाओं के भंग होने और अस्थिरता के कारण चुनावी व्यवस्‍था बिखरती गई। दूसरी तरफ चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार 2014 के लोक सभा चुनाव में लगभग 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। अकेले चुनाव आयोग ने करीब 3500 करोड़ रुपये खर्च किए। सरकारी खजाने से लगभग इतनी ही धनराशि गृह मंत्रालय ने कानून-व्यवस्‍था की मशीनरी भेजने और राज्य सरकारों ने खर्च की। घोषित रूप से भाजपा ने 714 करोड़ रुपये खर्च किए। अन्य पार्टियों ने भी करोड़ाें रुपये खर्च किए। िफर कुछ महीने बाद महाराष्‍ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली, बिहार जैसे राज्यों के विधान सभा चुनाव हुए।

इन दिनों पांच विधान सभाओं की चुनावी प्रक्रिया चल रही है। मतलब हर तीसरे महीने कहीं न कहीं चुनावी तैयारी चल रही होती है। लोक सभा की तरह हर विधान सभा क्षेत्र में उम्मीदवार घोषित-अघोषित रूप में पांच से दस करोड़ रुपये खर्च कर देते हैं। प्रशासन में भी चुनावी आचार-संहिता या सत्ता बनने-बिगड़ने के कारण अनिर्णय की स्थिति बनी रहती है। देश के बहुमूल्य समय और धन को बचाने एवं एक हद तक राजनीतिक स्थिरता के लिए लोक सभा-विधान सभा के चुनाव एक साथ होना लाभदायक हो सकता है। लेकिन पालिका और पंचायत चुनाव इसके साथ जोड़ना उचित नहीं होगा। उन्हें स्‍थानीय समस्याओं के समाधान के साथ जोड़े रखा जाना चाहिए। हां, अश्वमेघ के बाद किसी के सम्राट न बन पाने की गारंटी भी लोकतंत्र में देनी होगी। 

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