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चर्चाः पुण्य के लिए पवित्र जल | आलोक मेहता

हरिद्वार में आज अर्द्ध कुंभ का समापन और उज्जैन में सिंहस्‍थ-कुंभ की शाही शुरुआत हो रही है। भारतीय संस्कृ‌ति के सबसे बड़े उत्सव, जिसमें लाखों नहीं करोड़ों लोग पहुंचते हैं।
चर्चाः पुण्य के लिए पवित्र जल | आलोक मेहता

मान्यता यही है कि हजारों वर्ष पहले जिन स्‍थानों पर अमृत गिरा, वहां जल से जीवन की नई शक्ति मिलने के विश्वास के साथ गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी की वंदना करते हुए लोग स्नान-ध्यान-सम्मिलन के लिए पहुंचते हैं। न जाति का बंधन, न धर्म का बंधन, न धन की सीमा, न गरीब की हथेली पर बाधा। पैदल, हाथी, घोड़े, बैलगाड़ी, बस, रेल, हवाई जहाज से पहुंचने की सुविधा से लोग इलाहाबाद, हरिद्वार, नासिक की तरह उज्जैन पहुंच रहे हैं। साधु, संत, शंकराचार्य ही नहीं, विदेशी पर्यटक और भारत के शीर्ष नेता भी पहुंचेंगे। लेकिन इसके साथ ही एक बार फिर यह सवाल उठेगा कि पुण्य पावन नदियां आखिर कब प्रदूषण मुक्त हो सकेंगी? गंगा, यमुना, शिप्रा के पानी को गंदगी, बदबू से कब बचाया जा सकेगा? गांव, कस्बों, शहरों की नालियों-नालों अथवा औद्योगिक बस्तियों का प्रदूषित जल वर्षों से इन नदियों में प्रवाहित हो रहा है। राजीव गांधी के सत्ताकाल से नरेंद्र मोदी के शासन के दो वर्षों तक हर नेता ने बड़ी घोषणाएं कीं। लेकिन किसी एक नदी के किसी पच्चीस-पचास किलोमीटर के हिस्से का किनारा साफ नहीं हो सका। पर्यावरण और स्वास्‍थ्य विशेषज्ञ निरंतर ध्यान दिला रहे हैं कि प्रदूषित जल से नियमित स्नान और आचमन करने वाले गंभीर बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। पुण्य के लिए होने वाले मेलों में हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। लेकिन जल को सही अर्थों में अमृत बनाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं हुए हैं। साधु संत कुंभ-सिंहस्‍थ में आवश्यक सुविधाओं की अपेक्षा के साथ भक्तों के रूप में सत्ताधारियों को आशीर्वाद देते हैं। समय-समय पर समागम में नदी के महत्व और कल्याण की बात करते हैं, लेकिन पुराने ऋषि-मुनियों की तरह कोप व्यक्त करते हुए श्राप देने की चेतावनी नहीं देते। यों सरकार ही क्यों, बड़ी औद्योगिक कंपनियों के अलावा लघु-मध्यम उद्योगों, व्यापार और दुकानों से जुड़े लाखों भक्त भी तो हर-हर गंगे करते हैं। वे दान-पुण्य के साथ पुण्य सलिला नदियों को प्रदूषण की कालिमा से मुक्ति के लिए योगदान क्यों नहीं करते? मंदिर की प्रतिमाओं के लिए चढ़ने वाले धन, सोने, चांदी का उपयोग असली जन कल्याण के लिए क्यों नहीं हो सकता है? भोले भंडारी वाराणसी, उज्जैन, हरिद्वार या हिमालय में विराजते हैं, लेकिन कृपा के साथ उनके क्रोध की प्रतीक्षा कब तक होगी?

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