भारत अपने पड़ोसी देशों में सक्रिय आतंकवादी गतिविधियों से बहुत प्रभावित रहा है। इसी तरह माओवादी नक्सल संगठनों की हिंसा भी गंभीर समस्या रही है। पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों की कश्मीर में घुसपैठ और स्थानीय युवाओं को धर्म के नाम और ड्रग्स के जरिये भड़काकर और मोहरा बनाकर आतंकवादी हिंसा में झोंक दिया जाता है। ऐसे ही युवा बुरहान वानी और उसके साथी पिछले दिनों मुठभेड़ में मारे गए।
अब मीडिया में इस घुसपैठ को लेकर कुछ अधिकारियों के हवाले से कुछ खबरें और मानव अधिकारों के मुद्दे को उठाने वाली प्रतिक्रियाएं भी सामने आ रही हैं। आतंकवादी स्वयं अथवा उसके साथी अत्याधुनिक हथियारों से भारतीय पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवानों पर हमला कर रहे हों, तो क्या अति संयम बरतकर सैनिक अपनी जान गंवाते रह सकते हैं? माओवादी हों या पाकिस्तान की कठपुतली बने आतंकवादियों से निपटने के लिए सैनिक हर संभव बल का इस्तेमाल करेंगे। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद पाकिस्तान में हाफिज सईद और सत्ताधारियों के समर्थक बयानों से यह साबित हो रहा है कि इन तत्वों को पाकिस्तान का अधिकाधिक समर्थन है। ऐसी स्थिति में भारतीय मीडिया से जिम्मेदारी की अपेक्षा उचित ही कही जाएगी।
भारतीय प्रिंट मीडिया में आजादी के बाद लगभग 50 वर्षों तक सांप्रदायिक दंगों में धार्मिक समुदाय और जातिगत पहचान के नाम तक नहीं लिखे और छापे जाते थे। इलेक्ट्रानिक मीडिया आने के बाद पहचान छिपाना कठिन हो गया। फिर इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया तेजी से बढ़ता चला गया। भारतीय प्रेस परिषद या एडीटर्स गिल्ड की आचार संहिताओं का उल्लंघन भी होने लगा। अब तो सोशल मीडिया के सक्रिय होने से कोई लक्ष्मण रेखा नहीं रह गई है। यह स्थिति आदर्श नहीं कही जा सकती है। किसी सरकार द्वारा मीडिया पर नियंत्रण को किसी भी रूप में नहीं स्वीकारा जा सकता है। इसलिए कश्मीर हो या पूर्वोत्तर क्षेत्र, मीडिया को अधिक जिम्मेदारी से काम करना होगा। मानव अधिकारों की आवाज उठाने के साथ सीमा और समाज की रक्षा करने वाले सैन्य बलों की जान और अधिकारों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। दुष्प्रचार और पाकिस्तान के झूठे अभियान को ध्यान में रखते हुए भारतीय मीडिया को अधिक सतर्कता से काम करना होगा। हिंसक घटनाओं को अतिरंजित ढंग से दिखाना अधिक खतरनाक और हिंसा को बढ़ाने वाला भी हो सकता है।