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चर्चाः अभिव्यक्ति पर नई तोप | आलोक मेहता

‘तोप चलाओ और सत्ता पाओ’। वह बात भूल जाएं कि तोप के बजाय अखबार निकालें, क्योंकि सरकारी बंदूक रखने वाले इसी हथियार की ताकत से सत्ता के बड़े पदों की कामना करने लगते हैं। तभी तो जल्द ही रिटायर होने वाले दिल्ली के पुलिस आयुक्त बी.एस. बस्सी ने राजनीतिक तोप इस्तेमाल कर राष्ट्रद्रोह के वर्तमान कानून को खत्म करने के बजाय इसका दायरा बढ़ाने की सलाह दे डाली है।
चर्चाः अभिव्यक्ति पर नई तोप | आलोक मेहता

यह कानून देने वाले ब्रिटेन तक में इसे समाप्त कर दिया और भारत में इस समय राष्ट्रद्रोह के कानून का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट से संसद तक पहुंचा हुआ है। पिछले चुनाव में मुंबई के पुलिस आयुक्त एस.पी. सिंह को नौकरी से इस्तीफा देकर भारतीय जनता पार्टी का सांसद बनने में सफलता मिल गई थी। कानून को अनुचित बताने वाले मानते हैं कि बस्सी का बयान इससे प्रेरित हो सकता है। चतुर नौकरशाह पहले भी सत्तारूढ़ दल के हित साधकर या लुभाकर राजनीति में कूदते रहे हैं। अजित जोगी तो पहले सांसद, फिर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री तक बन गए। लेकिन बस्सी तो कुर्सी पर रहते ‘बादशाह’ की तरह नए फरमान जारी करने लगे। राष्ट्र प्रेम और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश का फैसला इतना आसान नहीं होगा।

समाजवादी नेता और चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा था - 'वाणी की स्वतंत्रता हर नागरिक के लिए अत्यंत आवश्यक है। लोकतंत्र में हर एक अपनी बात कह सके, स्वतंत्रतापूर्वक - बिना भयांतक बहस कर सके और कोई रूकावट सामने नहीं आए।’ लेकिन व्यक्तिगत आजादी के संदर्भ में उच्श्रंखलता को अनुचित मानते हुए लोहिया ने कहा कि 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उपयोग से सामाजिक व्यवस्था की चूल पर आघात नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत आजादी का अर्थ दूसरों की आजादी के लिए खतरा पैदा करने की छूट नहीं हैं। संयम व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कवच है। सुरक्षा और चैतन्य है।’ इस दृष्टि से वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संयमित ढंग से बहस होनी चाहिए। अभिव्यक्ति को राष्ट्रद्रोह के अपराध से जोड़ना इससे भी गंभीर और विवादास्पद मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि 'नारेबाजी’ को 'राष्ट्रद्रोह’ की श्रेणी का अपराध नहीं माना जा सकता। समाज में हिंसा भड़काकर देश को तोड़ने का आह्वान करने वालों को निश्चित रूप से कठोर दंड भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। यही कारण है कि सुदूर, आदिवासी बहुल ग्रामीण क्षेत्रों में अवैध हथियारों के बल पर असंतोष एवं हिंसा भड़काने वाले माओवादियों अथवा पूर्वोत्तर या जम्मू-कश्मीर में सक्रिय उग्रवादी संगठनों से जुड़े खूंखार लोगों पर कार्रवाई को अनुचित नहीं माना जा सकता। ऐसे संगठनों को बड़े शहरों में भूमिगत रूप से हर संभव सहायता देने वालों को निरपराधी नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह धर्म के नाम पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाले भाषण या पर्चे बांटने वालों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कैसे बरी किया जा सकता है? पिछले कुछ वर्षों के दौरान राजनीतिक स्वार्थों के लिए कई संगठनों ने राजनेताओं के विरूद्ध बहुत हद तक असत्य, असभ्य और उत्तेजक बातों का कुप्रचार किया। माओवादियों की तरह सांप्रदायिक तत्वों पर भी समान कार्रवाई की अपेक्षा सरकार और कानूनी अदालतों से की जाती है।

वहीं यह याद रखना चाहिये कि भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने डायरीनुमा अपनी पुस्तक 'नजरबंद लोकतंत्र’ में लिखा है- 'एक लोकतंत्रवादी कटु आलोचना को स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए अनिवार्य मानता है। वहीं एक फासिस्ट उस आलोचना को अपने दल और देश की सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। वह विपक्ष को देश के दुश्मन के रूप में देखता है और उन्हें किसी राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए अयोग्य मानता है। उसके लिए जिम्मेदार विपक्ष भी जी हुजुरियों की भीड़ बना हुआ होना चाहिए।’ समय बदला है, लेकिन अब अधिकांश सत्ताधारी इसी रूप में स्वतंत्रता और आलोचना को देखने लगे हैं। समाचार माध्यमों के विस्तार एवं सोशल मीडिया आने के बाद अभिव्यक्ति के अधिकार, स्वतंत्रता और राष्ट्रद्रोह की परिभाषा पर नए सिरे से गंभीरतापूर्वक विचार होना चाहिए। देश के विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें हैं। सब अपने ढंग से कानून को परिभाषित करना चाहते हैं। बेहतर यह हो कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर संसद, सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर खुले ढंग से विचार करके वर्तमान कानूनों में आवश्यक बदलाव किए जाएं और अधिकारों के साथ उत्तरदायित्वों का स्पष्ट उल्लेख हो। आजादी के बाद हुए वरिष्ठ संपादकों में से एक बी.जी. वर्गीज ने दो वर्ष पहले एडीटर्स गिल्ड की बैठक में भी मीडिया की उच्श्रंखलता एवं अराजकता को रोकने के लिए नई आचार संहिता की आवश्यकता बताई थी।

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