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चर्चाः नियम-कानून आतंक न बने | आलोक मेहता

सुप्रीम कोर्ट ने सही राय दी है कि प्रदूषण नियंत्रण के नियम-कानून इस तरह न लागू हों, जिससे अर्थव्यवस्‍था ही चौपट हो जाए। दिल्ली या केंद्र सरकार हड़बड़ी या दबावों के कारण पिछले कुछ अर्से से ऐसे कदम उठाती रही हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की राय के बाद विभिन्न मंत्रालयों में तालमेल और पूर्वाग्रहों-दबावों से हटकर पर्यावरण संरक्षण के प्रयास करने होंगे।
चर्चाः नियम-कानून आतंक न बने | आलोक मेहता

कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार में एक मंत्री इसलिए बदनाम रहीं कि वह महीनों तक ‘क्लीयरेंस’ की फाइल को अटकाती रहती थीं और उद्योग-व्यापार से जुड़े लोग मुसीबत में धक्के खाते रहे। नई सरकार में प्रकाश जावडेकर ने बहुत जल्द ऐसी फाइलें निपटाईं। दिल्ली सरकार ने बिना तैयारी के ऑड-ईवन फार्मूला लागू किया, लेकिन डीजल वाले व्यावसायिक वाहनों एवं औद्योगिक बस्तियों के जानलेवा प्रदूषण के नियंत्रण के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाए। बसें आई नहीं और वायदा कर दिया। मेट्रो के पास पर्याप्त कोच नहीं होने के बावजूद उसे फेरी और कोच बढ़ाने के लिए कह दिया।

 

अन्य प्रदेशों में हालत इससे भी बदतर है। कोलकाता, लखनऊ, पटना, इंदौर जैसे शहरों में प्रदूषण के कारण हजारों लोग प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन राज्य सरकारों और स्‍थानीय निकायों में समन्वय नहीं है। सड़कों की धूल, कारखानों का धुंआ अथवा नालियों में बहने वाला औद्योगिक कचरा-रसायन नदियों तक पहुंच रहा है। इस समस्या पर सरकारें, संसद अदालतें बहुत कुछ कहती-लिखती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बाद राजनीतिक खींचातानी से हटकर ‘प्रदूषण’ मुक्ति के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाना होगा।

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